महाबली की पूंछ तक न हिला सके भीम!


महाबली की पूंछ
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महाभारत काल में जब पांडव पुत्र अपना बारह वर्ष का वनवास पूर्ण कर चुके थे और अज्ञातवास का एक वर्ष पूर्ण करने के लिए छुपे-छुपे फिर रहे थे तभी वे राजस्थान के अलवर के समीप इस स्थान पर पहुंचे।उस समय उन्हें राह में दो पहाड़ियां आपस में जुडी नजर आईं जिससे उनका आगे का मार्ग अवरुद्ध हो रहा था तब माता कुंती ने अपने पुत्रों से पहाड़ी को तोड़ रास्ता बनाने को कहा।
माता का आदेश सुनते ही महावली भीम ने अपनी गदा से एक भरपूर प्रहार किया जिससे पहाड़ियों को चकनाचूर कर रास्ता बना दिया। भीम के इस पौरुष भरे कार्य को देश उनकी माता और भाई प्रशंसा करने लगे जिससे भीम के मन में अहंकार पैदा हो गया।
भीम का यह अहंकार तोड़ने के लिए हनुमानजी ने योजना बनाई और आगे बढ़ रहे पांडवों के रास्ते में बूढ़े वानर का रूप रखकर लेट गए। जब पांडवों ने देखा कि जिस राह से उन्हें गुजरना है वहां एक बूढा वानर आराम कर रहा है तो उन्होंने उससे रास्ता छोड़ने का आग्रह करते हुए कहा कि वह उनका रास्ता छोड़ कहीं और जाकर विश्राम करे।
पांडवों का आग्रह सुन हनुमानजी ने कहा कि वे बूढ़े होने के कारण हिलडुल नहीं सकते अतः पांडव किसी दूसरे रास्ते से निकल जाएं। अपने अहंकार में चूर भीम को हनुमानजी की यह बात अच्छी नहीं लगी और हनुमानजी को ललकारने लगे।
भीम की ललकार सुन हनुमानजी ने बड़े ही नम्र भाव से कहा कि वे उनकी पूंछ को हटाकर निकल जाएं लेकिन भीम उनकी पूंछ को हटाना तो दूर हिला भी न सके और अपने अहंकार पर पछताने लगे साथ ही हनुमानजी से  क्षमा याचना करने लगे।
भीम के द्वारा क्षमा याचना करने पर हनुमानजी अपने असली रूप में आए और बोले- तुम वीर ही नहीं महाबली हो लेकिन वीरों को इस तरह अहंकार शोभा नहीं देता। इसके बाद हनुमानजी भीम को महाबली होने का वरदान देकर वहां से विदा हो गए लेकिन वह स्थान जहां वे लेटे थे आज भी उनके प्रसिद्ध धाम के रूप में पूज्य है।

हनुमान मंदिर का निर्माण जंगल में ही रहने वाले एक संत निर्भायादास ने कराया है। प्रत्ति मंगलवार और शनिवार को इस मंदिर में हनुमानजी के इस अद्भुत रूप के दर्शन करने भक्तों का मेल सा लगता है। यहीं से कुछ दूरी पर वह पहाड़ी भी मौजूद है जिसे भीम ने गदा से चकनाचूर रास्ता बनाया था। इस पहाड़ी को भीम पहाड़ी के नाम से जाना जाता है।

सिंदूर क्यों लगाते हैं हनुमानजी को ?


वैसे तो सिंदूर सुहाग का प्रतीक है और इसे सभी सुहागन स्त्रियों द्वारा मांग में लगाने की परंपरा है। सिंदूर का पूजन-पाठ में भी गहरा महत्व है। बहुत से देवी-देवताओं को सिंदूर अर्पित किया जाता है। श्री गणेश, माताजी, भैरव महाराज के अतिरिक्त मुख्य रूप से हनुमानजी को सिंदूर चढ़ाया जाता है।

हनुमानजी का पूरा श्रंगार ही सिंदूर से किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार हर युग में बजरंग बली की आराधना सभी मनोकामनाओं को पूरा करने वाली मानी गई है। हनुमानजी श्रीराम के अनन्य भक्त हैं और जो भी इन पर आस्था रखता है उनके सभी कष्टों को ये दूर करते हैं। हनुमानजी को सिंदूर क्यों लगाया जाता है? इस संबंध में शास्त्रों में एक प्रसंग बताया गया है।

रामचरित मानस के अनुसार हनुमानजी ने माता सीता को मांग में सिंदूर लगाते हुए देखा। तब उनके मन में जिज्ञासा जागी कि माता मांग में सिंदूर क्यों लगाती है? यह प्रश्न उन्होंने माता सीता से पूछा। इसके जवाब में सीता ने कहा कि वे अपने स्वामी, पति श्रीराम की लंबी उम्र और स्वस्थ जीवन की कामना के लिए मांग में सिंदूर लगाती हैं। शास्त्रों के अनुसार सुहागन स्त्री मांग में सिंदूर लगाती है तो उसके पति की आयु में वृद्धि होती है और वह हमेशा स्वस्थ रहते हैं।

माता सीता का उत्तर सुनकर हनुमानजी ने सोचा कि जब थोड़े सा सिंदूर लगाने का इतना लाभ है तो वे पूरे शरीर पर सिंदूर लगाएंगे तो उनके स्वामी श्रीराम हमेशा के लिए अमर हो जाएंगे। यही सोचकर उन्होंने पूरे शरीर पर सिंदूर लगाना प्रारंभ कर दिया। तभी से बजरंग बली को सिंदूर चढ़ाने की परंपरा शुरू हुई।

वैसे तो सभी के जीवन में समस्याएं सदैव बनी रहती हैं लेकिन यदि किसी व्यक्ति के जीवन में अत्यधिक परेशानियां उत्पन्न हो गई है और उसे कोई रास्ता नहीं मिल रहा हो तब हनुमानजी की सच्ची भक्ति से उसके सारे बिगड़े कार्य बन जाएंगे। दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल जाएगा। प्रतिदिन हनुमान के चरणों का सिंदूर अपने सिर या मस्तक पर लगाने से मानसिक शांति प्राप्त होती है और विचार सकारात्मक बनते हैं। जीवन की परेशानियां दूर हो जाती हैं।

एक मात्र मंत्र, आत्मा का संगीत

यह संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतीक है। बहुत-सी आकाश गंगाएँ इसी तरह फैली हुई है। ब्रह्म का अर्थ होता है विस्तार। ओंकार ध्वनि के 100 से भी अधिक अर्थ दिए गए हैं। 

आइंसटाइन से पूर्व भगवान महावीर ने कहा था। महावीर से पूर्व वेदों में इसका उल्लेख मिलता है। उन्होंने तो ध्यान की अतल गहराइयों में उतर कर देखा तब कहा।
ॐ को ओम कहा जाता है। उसमें भी बोलते वक्त '' पर ज्यादा जोर होता है। इसे प्रणव मंत्र भी कहते हैं। इस मंत्र का प्रारंभ है अंत नहीं। किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीजों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।

तपस्वी ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना की एक ऐसी ध्वनि है जो सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ओम।

साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है। ध्वनि को सुनने लगता है वह परमात्मा से सीधा जुड़ने लगता है। परमात्मा से जुड़ने का साधारण तरीका है ॐ का उच्चारण करते रहना।

त्रिदेव और तीन लोक का प्रतीक : ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- अ, , म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है। 

बीमारी दूर भगाएँ : तंत्र योग में एकाक्षर मंत्रों का भी विशेष महत्व है। देवनागरी लिपि के प्रत्येक शब्द में अनुस्वार लगाकर उन्हें मंत्र का स्वरूप दिया गया है। उदाहरण के तौर पर कं, खं, गं, घं आदि। इसी तरह श्रीं, क्लीं, ह्रीं, हूं, फट् आदि भी एकाक्षरी मंत्रों में गिने जाते हैं।

सभी मंत्रों का उच्चारण जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु के सम्मिलित प्रभाव से संभव होता है। इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है। इन ग्रंथिंयों के स्राव को नियंत्रित करके बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है।

उच्चारण विधि : प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ का उच्चारण पद्मासन, सुखासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं। 

लाभ : इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलेगी। दिल की धड़कन और रक्तसंचार व्यवस्थित होगा। इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं। काम करने की शक्ति बढ़ जाती है। इसका उच्चारण करने, सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं। इसके उच्चारण में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है।

क्या है चार युग?

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 एक तिथि वह समय होता है, जिसमें सूर्य और चंद्र के बीच का देशांतरीय कोण बारह अंश बढ़ जाता है। तिथियाँ दिन में किसी भी समय आरम्भ हो सकती हैं और इनकी अवधि उन्नीस से छब्बीस घंटे तक हो सकती है।
पंद्रह तिथियों का एक पक्ष या पखवाड़ा माना गया है। शुक्ल और कृष्ण पक्ष मिलाकर दो पक्ष का एक मास। फिर दो मास की एक ऋतु और इस तरह तीन ऋतुएँ मिलकर एक अयन बनता है और दो अयन यानी उत्तरायन और दक्षिणायन। इस तरह दो अयनों का एक वर्ष पूरा होता है।
15 मानव दिवस एक पितृ दिवस कहलाता है यही एक पक्ष है। 30 पितृ दिवस का एक पितृ मास कहलाता है। 12 पितृ मास का एक पितृ वर्ष। यानी पितरों का जीवनकाल 100 का माना गया है तो इस मान से 1500 मानव वर्ष हुए।
और इसी तरह पितरों के एक मास से कुछ दिन कम यानी मानव के एक वर्ष का देवताओं का एक दिव्य दिवस होता है, जिसमें दो अयन होते हैं पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। तीस दिव्य दिवसों का एक दिव्य मास। बारह दिव्य मासों का एक दिव्य वर्ष कहलाता है।

(1) 4,800 दिव्य वर्ष अर्थात एक कृत युग (सतयुग)।
   
 मानव वर्ष के मान से 1728000 वर्ष।

(2) 3,600 दिव्य वर्ष अर्थात एक त्रेता युग।
   
 मानव वर्ष के मान से 1296000 वर्ष।

3) 2,400 दिव्य वर्ष अर्थात एक द्वापर युग।

  मानव वर्ष के मान से 864000 वर्ष।

4) 1,200 दिव्य वर्ष अर्थात एक कलि युग।


   मानव वर्ष के मान से 432000 वर्ष।


12000 दिव्य वर्ष अर्थात 4 युग अर्थात एक महायुग

जिसे दिव्य युग भी कहते हैं

सत्य युग : वर्तमान वराह कल्प में हुए कृत या सत्य को 4800 दिव्य वर्ष का माना गया है। ब्रह्मा का एक दिवस 10000 भागों में बँटा होता है, जिसे चरण कहते हैं।
त्रेतायुग : त्रेतायुग को 3600 दिव्य वर्ष का माना गया है। त्रेता युग मानवकाल के द्वितीय युग को कहते हैं। यह काल राम के देहान्त से समाप्त होता है।
द्वापर : द्वापर मानवकाल के तृतीय युग को कहते हैं। यह काल कृष्ण के देहान्त से समाप्त होता है।
कलियुग : 1200 दिव्य वर्ष का एक कलियुग माना गया है। कलियुग चौथा युग है। आर्यभट्ट के अनुसार
महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ था। कृष्ण का इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात देहान्त हुआ, तभी से कलियुग का आरम्भ माना जाता है।
वर्तमान में जो युग चल रहें है ऐसे चार युग पहले भी बहुत से हो चुके हैं। अनुमानत: चार युगों का यह 22वाँ या 23वाँ चक्र चल रहा है। उपरोक्त आँकड़ों में दोष हो सकता हैं, क्योंकि पुराणों में युगों की काल अवधि को लेकर अलग-अलग धारणा मिलती है।
साभार वेबदुनिया डेस्क 



सोने से पहले हनुमान चालीसा के उपाय

हनुमान चालीसा के उपाय
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हनुमानजी को मनाने और उनकी कृपा प्राप्त करने का सबसे सरल और चमत्कारी उपाय है हनुमान चालीसा का पाठ। हनुमान चालीसा बहुत ही सरल और मन को शांति प्रदान करने वाली है।

जो लोग धन अभाव से ग्रस्त हैं या घर-परिवार में परेशानियां चल रही हैं या ऑफिस में बॉस और सहयोगियों से रिश्ते बिगड़े हुए हैं या समाज में सम्मान नहीं मिल रहा है या स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां हैं तो इन्हें दूर करने के लिए हनुमान चालीसा का ये उपाय श्रेष्ठ मार्ग है।
जो लोग मस्तिष्क से संबंधित कार्य में लगे रहते हैं और मानसिक तनाव का सामना करते हैं या जिनका दिमाग अन्य लोगों की अपेक्षा तेज नहीं चलता है तो सोने से पहले हनुमान चालीसा का जप करें। आप पूरी हनुमान चालीसा का जप नहीं कर सकते हैं
तो इन पंक्तियों का जप करें...

बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरो पवन कुमार। बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरेहू कलेश विकार।

पंक्ति में हनुमान से यही प्रार्थना की गई है कि हे प्रभु मैं खुद को बुद्धि हीन मानकर आपका ध्यान करता हूं। कृपा करें और मुझे शक्ति, बुद्धि, विद्या दीजिए। मेरे सभी कष्ट-क्लेश दूर कीजिए।

हनुमान चालीसा सुन भी सकते हैं या जप कर सकते हैं। जब आपका मन हो आप आसानी से मोबाइल की मदद से हनुमान चालीसा सुन सकते हैं।
जिन लोगों को बुरे सपने आते हैं, नींद में डर जाते हैं उन्हें सोने से पहले इन पंक्तियों का जप करना चाहिए...

भूत-पिशाच निकट नहीं आवे। महाबीर जब नाम सुनावे।

पंक्ति के माध्यम से भक्त द्वारा हनुमान से भूत-पिशाच आदि के डर से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की जाती है। जो भी व्यक्ति इस पंक्ति का जप करता है उसे न तो बुरे सपने आते हैं और न ही कोई भय सताता है। यदि कोई व्यक्ति भयंकर बीमारी से ग्रस्त है तो उसे सोने से पहले इस पंक्ति का जप करना चाहिए...

नासे रोग हरे सब पीरा। जो सुमिरे हनुमंत बलबीरा।।

पंक्ति से हम बजरंग बली से सभी प्रकार रोगों और पीड़ाओं से मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। जो भी बीमार व्यक्ति इन पंक्तियों का जप करके सोता है उसकी बीमारी जल्दी ठीक हो जाती है।
यदि कोई व्यक्ति सर्वगुण संपन्न बनना चाहता है और घर-परिवार, समाज में वर्चस्व बनाना चाहता है, सम्मान पाना चाहता है उसे सोने से पहले इस पंक्ति का जप करना चाहिए...

अष्ट-सिद्धि नवनिधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता।।

पंक्ति के अनुसार हनुमान अष्ट सिद्धियां और नौ निधियों के दाता है। जो कि उन्हें माता सीता ने प्रदान की है। जिन लोगों के पास ये सिद्धियां और निधियां आ जाती हैं वे समाज में और घर-परिवार में मान-सम्मान, प्रसिद्धि पाते हैं।


Balaji Darbar: हनुमानजी और तुलसीदास

Balaji Darbar: हनुमानजी और तुलसीदास

Balaji Darbar: हनुमानजी और तुलसीदास

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हनुमानजी और तुलसीदास

हनुमानजी और तुलसीदास की बातें
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 हनुमानजी की भक्ति सभी इच्छाओं को पूरी करने वाली है। हनुमानजी को मनाने के लिए हनुमान चालीसा का पाठ सबसे सरल उपाय है। हनुमान चालीसा की रचना गोस्वामी तुलसीदास ने सैकड़ों वर्ष पहले की थी और आज भी यह सबसे ज्यादा लोकप्रिय स्तुति है। श्रावण माह में शुक्ल पक्ष की सप्तमी है। इसी तिथि को गोस्वामी तुलसीदास का जन्म हुआ था। ऐसा माना जाता है कि हनुमानजी साक्षात् रूप में तुलसीदासजी को दर्शन देते थे।

गोस्वामी तुलसीदास ने बहुचर्चित और प्रसिद्ध श्रीरामचरितमानस की रचना की। श्रीरामचरितमानस की रचना सैकड़ों वर्ष पहले की गई थी और आज भी यह सबसे अधिक बिकने वाला ग्रंथ है। वेद व्यास द्वारा रचित रामायण का सरल रूप श्रीरामचरित मानस है। यह ग्रंथ सरल होने के कारण ही आज भी सबसे अधिक प्रसिद्ध है। हनुमान चालीसा की रचना भी तुलसीदासजी ने ही की है।

तुलसीदासजी से श्रीरामचरित मानस की रचना की और हनुमानजी से उनकी भेंट कैसे हुई, कैसे तुलसीदास अपनी पत्नी के कारण श्रीराम के भक्त हो गए...

उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले से कुछ दूरी पर राजापुर नाम का एक गांव है। इसी गांव में गोस्वामी तुलसीदास का जन्म हुआ था। तुलसीदास के पिता आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास का जन्म श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन हुआ था।

तुलसीदास जन्म के समय पूरे बारह माह तक माता के गर्भ में रहने की वजह से काफी तंदुरुस्त थे और उनके मुख में दांत भी दिखायी दे रहे थे। जन्म के बाद सभी शिशु रोया करते हैं किन्तु इस शिशु ने जो पहला शब्द बोला वह राम था। इसी वजह से तुलसीदास का प्रारंभिक नाम रामबोला पड गया

माता हुलसी तुलसीदास को जन्म देने के बाद दूसरे दिन ही मृत्यु को प्राप्त हो गईं। तब पिता आत्माराम ने नवजात शिशु रामबोला को एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। जब रामबोला साढ़े पांच वर्ष का हुआ तो वह दासी भी जीवित न रही। रामबोला किसी अनाथ बच्चे की तरह गली-गली भटकने को विवश हो गया।
इसी प्रकार भटकते हुए एक दिन नरहरि बाबा से रामबोला की भेंट हुई। नरहरि बाबा उस समय प्रसिद्ध संत थे। उन्होंने रामबोला का नया नाम तुलसीराम रखा। इसके बाद वे तुलसीराम को अयोध्या ले आए और वहां उनका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया।

तुलसीराम ने संस्कार के समय बिना सिखाए ही गायत्री-मन्त्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। इसके बाद नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पांच संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया।

तुलसीराम की बुद्धि बहुत तेज थी। वह एक ही बार में गुरु-मुख से जो भी सुन लेता, उसे वह तुरंत याद हो जाता। वहां से कुछ समय बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र पहुंचे। वहां नरहरि बाबा ने तुलसीराम को रामकथा सुनाई किन्तु बालक रामकथा ठीक से समझ न सका।

तुलसीराम का विवाह रत्नावली नाम की बहुत सुंदर कन्या से हुआ था। विवाह के समय तुलसीराम की आयु लगभग 29 वर्ष थी। विवाह के तुरंत बाद तुलसीराम बिना गौना किए काशी चले आए और अध्ययन में जुट गए। एक दिन उन्हें अपनी पत्नी रत्नावली की याद आई और वे उससे मिलने के लिए व्याकुल हो गए। तब वे अपने गुरुजी से आज्ञा लेकर पत्नी रत्नावली से मिलने जा पहुंचे।

रत्नावली मायके में थीं और जब तुलसीराम उनके घर पहुंचे तब यमुना नदी में भयंकर बाढ़ थी और वे नदी में तैर कर रत्नावली के घर पहुंचे थे। उस समय भयंकर अंधेरा था। जब तुलसीराम पत्नी के शयनकक्ष में पहुंचे तब रत्नावली उन्हें देखकर आश्चर्यचकित हो गई। लोक-लज्जा की चिंता से उन्होंने तुलसीराम को वापस लौटने को कहा।

सुनते ही तुलसीराम उसी समय रत्नावली को पिता के घर छोड़कर वापस अपने गांव राजापुर लौट आए। जब वे राजापुर में अपने घर पहुंचे तब उन्हें पता चला कि उनके पिता भी नहीं रहे। तब किसी उन्होंने पिता का अंतिम संस्कार किया और उसी गांव में लोगों को श्रीराम कथा सुनाने लगे।

कुछ समय राजापुर में रहने के बाद वे पुन: काशी लौट आए और वहां राम-कथा सुनाने लगे। इसी दौरान तुलसीराम को एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमानजी का पता बताया। हनुमानजी से मिलकर तुलसीराम ने उनसे श्रीराम के दर्शन कराने की प्रार्थना की। तब हनुमानजी ने कहा उन्हें कहा कि चित्रकूट में रघुनाथजी दर्शन होंगें। इसके बाद तुलसीदासजी चित्रकूट की ओर चल पड़े।

उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके कि वे ही श्रीराम और लक्ष्मण हैं।

इसके बाद हनुमानजी ने आकर बताया जब तुलसीदास को पश्चाताप हुआ। तब हनुमानजी ने उन्हें सांत्वना दी और कहा आप प्रात:काल फिर श्रीराम के दर्शन कर सकेंगे।

अगले दिन सुबह-सुबह पुन: श्रीराम प्रकट हुए। इस बार वे एक बालक रूप में तुलसीदास के समक्ष आए थे। श्रीराम ने बालक रूप में तुलसीदास से कहा कि उन्हें चंदन चाहिए। यह सब हनुमानजी देख रहे थे और उन्होंने सोचा कि तुलसीदास इस बार भी श्रीराम को पहचान नहीं पा रहे हैं। तब बजरंगबली ने एक दोहा कहा कि

चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर। तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥

दोहा सुनकर तुलसीदास श्रीरामजी की अद्भुत दर्शन किए। श्रीराम के दर्शन की वजह से तुलसीदासजी सुध-बुध खो बैठे थे। तब भगवान राम ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर स्वयं के मस्तक पर तथा तुलसीदासजी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गए।

तुलसीदास हनुमानजी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। रास्ते में उस समय प्रयाग में माघ का मेला लगा हुआ था। तुलसीदास कुछ दिन के लिए वहीं रुक गए।

मेले में एक दिन तुलसीदास को किसी वटवृक्ष के नीचे भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहां वही कथा हो रही थी, जो उन्होंने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। मेला समाप्त होते ही तुलसीदास प्रयाग से पुन: काशी आ गए और वहां एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व शक्ति जागृत हुई। अब वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। तुलसीदास दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब भूल जाते। यह घटना रोज हो रही थी। तब एक दिन भगवान शंकर ने तुलसीदास जी को सपने आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो।

 तुलसीदासजी ने
श्रीरामचरितमानस की रचना
नींद से जागने पर तुलसीदास ने देखा कि उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान होगी।


दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रात:काल तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। 2 वर्ष, 7 महीने और 26 दिन में इस अद्भुत ग्रन्थ की रचना हुई। शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हुए।

हनुमानजी को चोला चढ़ाएं सावन

हनुमानजी को चोला

सावन में भगवान शिव की पूजा का विशेष महत्व है लेकिन यदि सावन के किसी मंगलवार को हनुमानजी को चोला चढ़ाया जाए तो हर मनोकामना पूरी हो जाती है। अगर आप पैसों की तंगी से परेशान हैं और इसके कारण आपके घर में रोज विवाद होता है तो सावन के मंगलवार हनुमानजी भी भगवान शिव की एक अवतार है। वे भी अपने भक्तों की हर मुराद पूरी करते हैं।

हनुमानजी को चोला चढ़ाने से पहले स्वयं स्नान कर शुद्ध हो जाएं और साफ वस्त्र धारण करें। सिर्फ लाल रंग की धोती पहने।

चोला चढ़ाने के लिए चमेली के तेल का उपयोग करें। दीपक हनुमानजी के सामने जला कर रख दें।

चोला चढ़ाने के बाद हनुमानजी को गुलाब के फूल की माला पहनाएं और केवड़े का इत्र हनुमानजी की मूर्ति के दोनों कंधों पर थोड़ा-थोड़ा छिटक दें।
साबूत पान का पत्ता लें और इसके ऊपर थोड़ा गुड़ व चना रख कर हनुमानजी को इसका भोग लगाएं।

हनुमानजी को चढ़ाए गए गुलाब के फूल की माला से एक फूल तोड़ कर उसे एक लाल कपड़े में लपेटकर अपने धन स्थान यानी तिजोरी में रखें।