शिवधनुष तोड़क राम के उपासक तुलसी ने शिव से लगवायी मानस पर मोहर : जो प्रेम में भी नकारा गया और भक्ति में भी दुत्‍कारा गया, उसकी बदतर हालत की कल्‍पना तो हर कोई कर सकता है। ऐसे लोगों को आम तौर पर तो लोग यह कह कर खारिज कर सकते हैं कि माया मिली ना राम। लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसा ही एक शख्‍स आखिरकार ऊंचाई के उस मुकाम तक पहुंच गया, जहां सोच पाने तक का साहस शायद कोई नहीं कर सकेगा। उसे राम का वह नाम मिल गया जहां उसके बिना कोई राम का नाम तक नहीं ले सकता है। चार शताब्‍दी बीत जाने के बावजूद उसका नाम राम के साथ ठीक वैसा ही जुड गया है, जैसा सीता या हनुमान का नाम। बिलकुल सही पहचाना आपने। हम शाहों के उस शाह का जिक्र कर रहे हैं जिसे आज पूरी दुनिया गोस्‍वामी तुलसीदास के नाम से जानती है।
विवाह के बाद पत्‍नी जब पहली बार अपने मायके गयी तो पत्‍नी-विरह से विह्वल तुलसीदास से रहा नहीं गया। वे अपने इसी प्रेम के चलते सांप की पूंछ पकड़ कर भले ही अपनी ससुराल पहुंच गये, लेकिन आखिरकार पत्‍नी ने ही उनकी इस हरकत पर दुत्‍कार लगा दी। झिड़कते हुए बोली कि मेरे बजाय अगर तुमने अपना ध्‍यान प्रभु राम पर लगाया होता तो जीवन ही सार्थक हो गया होता। चित्रकूट में तो चरित्र जाता दिखा, तो बेइज्‍जती और शर्म के मारे तुलसीदास सीधे भोलेनाथ की नगरी काशी पहुंच गये और राम की उपासना में लीन होना चाहा। लेकिन वहां शैव उपासकों ने उन्‍हें चैन से रहने ही नहीं दिया। जहां भी धूनी रमायी, उजाड़ दी गयी। ऐसा एक नहीं, अनेक बार हुआ। अब यह भले ही समझ से परे हो, लेकिन अयोध्‍या के बजाय तुलसीदास ने वाराणसी को क्‍यों चुना। शायद इसलिए कि वे इतने अपमान के बाद अपने जीवन का ध्‍येय अपमान मार्ग से ही हासिल करना चाहते रहे हों। बहरहाल, तुलसीदास पर इन अपमानों का आखिरकार कितना जबर्दस्‍त असर पड़ा होगा, यह उनकी इन लाइनों में देखा जा सकता है।
धूत कहो, अवधूत कहो,
राजपूत कहो, जुलहा कहो कोऊ।
काहू की बेटी से बेटा ना ब्‍याहब,
काहू की जात बिगार ना सोउ।
तनिक दिल पर हाथ रख कर सुनिये कि अपने बारे में तुलसीदास जी की एकमात्र यही उक्ति अब तक मिली है। कुछ भी हो, वेदों की नगरी काशी में तुलसी का हठ योग कुछ इस कदर हावी हुआ कि उन्‍होंने संस्‍कृत की बजाय रामचरित मानस को अवधी में लिखा। बस यहीं से उनके विरोध की नींव पड़ गयी। काशी में उनका जबर्दस्‍त विरोध हुआ। संस्‍कृत की नगरी काशी के पंडितों ने इसे बकवास करार दे दिया। उन विद्वानों ने ऐलानिया कहा कि इसे कोई भी स्‍वीकार नहीं करेगा। लेकिन इन चुनौतियों का सामना हर मोड़ पर तुलसी ने किया और अपने राम अभियान को और भी तेज लहकाते रहे। बनारस में ही इस असाधारण जीवट वाले साधु ने अपने लिये संकट मोचन तैयार किया और लंका भी। यानी अपनी सारी भक्तिगत सोच की जमीन वहीं अपने आसपास ही तैयार कर ली। ग्रंथ तो तैयार होने के पहले ही बकवास करार दिया जा चुका था। लेकिन तुलसी ने फिर अपने विरोध की अलख जगायी और यह साबित करने के लिए कि राम और शिव आदि भगवान एकात्‍म ही हैं, उन्‍होंने विश्‍वनाथ मंदिर में माथा टेका।
यह अजीब ही तो था कि रामचरित मानस में शिव-धनुष तोड़क राम की महिमा लिखने वाले तुलसी ने स्‍वयं के त्राण के लिए खुद शिव की चौखट पर न्‍याय की अर्जी बिलकुल निरपेक्ष भाव से लगायी और किंवदंतियों के अनुसार विश्‍वनाथ मंदिर की चौखट पर रामचरित मानस की प्रति रख दी। बताते हैं कि सुबह जब वे मंदिर पहुंचे तो देखा कि उनके ग्रंथ पर शिव की मोहर लग चुकी है। और अब यह कहने की जरूरत तो हर्गिज नहीं है कि भीषण अपमान और चरम उपेक्षा के दौर से शुरू हुए तुलसी के अपने अभियान की सफलता का अंदाजा आज घर-घर में पूरे सम्‍मान के साथ रखे जाने वाले रामचरित मानस के गुटका के तौर पर देखा जा सकता है। पिछले चार सौ बरसों से रामचरित मानस भारतीय जीवन का एक बड़ा जीवन-सिद्धांत ग्रंथ बन चुका है, जहां इंसान की हर समस्‍या का समाधान है, उसके लिए दिशा-निर्देश हैं और इतना ही नहीं, चमत्‍कारों पर यकीन रखने वालों के लिए जादुई वर्ग पहेली भी है।
दरअसल, सच तो यह है कि राम के प्रेम के साथ ही तुलसीदास जी ने भक्ति की एक ऐसी महान कहानी रच डाली जो इसके पहले कभी सोची ही नहीं गयी थी। उस कहानी का नाम है हनुमान चालीसा। हैरत की बात तो यह है कि एक ओर जहां रामचरित मानस मर्यादित जीवन जीने का एक सम्‍बल बन गया, वहीं हनुमान चालीसा ने भक्ति भाव की सारी सीमाएं ही तोड़ डालीं। इस चालीसा में वे भले ही राम की उपासना से अपनी बात शुरू करते हों, लेकिन दोहे की अगली पंक्ति में ही वे इस भक्ति का माध्‍यम पवनसुत यानी हनुमान की उपासना से कर बैठते हैं और फिर उसकी सारी लाइनें बजरंगबली को ही समर्पित हैं। कहने की जरूरत नहीं कि किसी भी साहित्‍य में यह अद़भुत संयोग लाख खोजने पर भी नहीं मिलेगा। हां, अब यह अलग बात है कि रामचरित मानस के गुटका को छापने का रिकार्ड बना चुके गीता प्रेस का भी दावा है कि रामचरित मानस अपने मूल में नहीं बचा है, उसमें अनेक दोहा और चौपाई बाद में भी जोड़ी गयी हैं।

शाहन के शाह : 
अपने पति के शव पर बिलखती नि:सन्‍तान रानी के वैधव्‍य से दुखी होकर गुरू को दया तो आ गयी लेकिन बाद में यही दया-भाव उस रानी के प्रति उनकी आसक्ति में बदल गया। जाहिर था कि गुरू ने गुरू-दायित्‍वों को गृहस्‍थ जीवन में तिरोहित कर दिया। गुरू को टोकने का साहस किसी में नहीं था, लेकिन वह चेला ही क्‍या, जो अनाचार को सहन कर जाए। भले ही वह अनाचार खुद उसके गुरू ही करने पर आमादा क्‍यों ना हों। बस फिर क्‍या था, चेले ने लगायी भभूत, उठाया त्रिशूल और लगा दिया हुंकारा :- उठ जाग मछन्‍दर गोरख आया। यह गाथा है उस सात्विकता की जिसकी रक्षा का संकल्‍प किया गोरक्षनाथ ने। बाद में गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध इस चेले ने अपने ही गुरू को उसके गुरूत्‍व का आभास कराने के लिए किसी भी सीमा तक जाने में तनिक भी संकोच नहीं किया। यही वजह रही कि गोरखनाथ संप्रदाय का एक बड़ा खेमा मुसलमानों का है जो पाकिस्‍तान के रावलपिण्‍डी में है।
मूल रूप से शिव के उपासक माने जाते हैं नाथ-सम्‍प्रदाय के लोग। मराठी संत ज्ञानेश्‍वर के अनुसार क्षीरसागर में पार्वती के कानों में शिव ने जो ज्ञान दिया, मछली के पेट में निवास कर रहे मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ के कानों तक पहुंच गया। और इसी के साथ ही मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ बाकायदा गुरू हो गये। अब रही चेले की बात। यह घटना अलग है। गोरखपीठ की मान्‍यता के अनुसार शिव ने ही एक बार धूनी रमाये औघड़ की शक्‍ल में एक नि:संतान महिला को भभूत देते हुए उसे मंगल का आशीष दिया। लेकिन दूसरी महिलाओं ने उस महिला को भरमा दिया कि इन औघड़ों के चक्‍कर में मत पड़ो। महिला ने उस भस्‍म को जमीन में गाड़ दिया। बात खुली तो जमीन खोदी गयी और निकल आये गोरक्षनाथ। इसके बाद से ही साथ हो गया मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ और गोरक्षनाथ का। इन दोनों ने काया, मन और आत्‍मा की सम्‍पूर्ण पवित्रता की जरूरत को समझा और अपने इस संकल्‍प को जन-जन तक पहुंचाने के लिए नगरों-गांवों की धूल छाननी शुरू कर दी। योग और ध्‍यान को इसके केंद्र में रखा गया।
गुरू-चेले का यह सम्‍बन्‍ध अविच्छिन्‍न रूप से चल ही रहा था कि अचानक एक राज्‍य की मैनाकिनी नाम की रानी का करूण रूदन मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ को विचलित कर गया। वह नि:संतान थी और अपने पति के शव पर विलाप कर रही थी। मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ को दया आ गयी। रानी की गोद भरने के लिए वे राजा के शव में प्रवेश कर गये। मैनाकिनी की गोद साल भर बाद लहलहा उठी। लेकिन कुछ ही दिनों बाद वे अपने कर्तव्‍यों को ही भूल गये। रास-लीलाओं ने उन्‍हें घेर लिया। राजमहल में पुरूषों का प्रवेश रोक दिया गया। केवल महिला कर्मचारी या नर्तकियां ही वहां जा सकती थीं। गोरक्षनाथ इस हालत से विचलित थे। गुरू को बचाना था और तरीका सूझ नहीं रहा था। बस एक दिन भभूत लगाया और त्रिशूल उठाकर संकल्‍प लिया गुरू को बचाने का। नर्तकियों के साथ उनके ही वेश में राजमहल में प्रवेश कर गये। रास-रंग और गायन-नर्तन शुरू हुआ।
स्‍त्री-वेश में अपनी अदायें दिखा रहे गोरखनाथ मृदंग भी बजा रहे थे। पूरा माहौल वाह-वाह से गूंज रहा था। कि अचानक राजा के शरीर में वास कर रहे मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ की आंखें फटी की फटी ही रह गयीं। गौर से सुना तो पाया कि एक नर्तकी के मृदंग से साफ आवाज आ रही थी कि जाग मछन्‍दर गोरख आया, चेत मछन्‍दर गोरख आया, चल मछन्‍दर गोरख आया। मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ बेहाल हो गये, सिर चकरा गया। गौर से देखा तो सामने चेला खड़ा है। गुरू शर्मसार हो गये। राजविलासिता छोड़कर चलने को तैयार तो हुए, लेकिन शर्त रखी कि मैनाकिनी के बेटे को नदी पर साफ कर आओ। गोरखनाथ को साफ लगा कि गुरू में मायामोह अभी छूटा नहीं है। उन्‍होंने राजकुमार को धोबी की तरह पाटा पर पीट-पीट कर छीपा और निचोडकर अलगनी पर टांग दिया। मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ नाराज हुए तो गोरखनाथ ने शर्त रख दी कि माया छोड़ों तो बेटे को जीवित कर दूं। मरता क्‍या ना करता। भोगविलास ने गुरू की ताकत खत्‍म कर दी थी। शर्त माननी ही पड़ी। यानी गुरू तो गुरू ही रहा मगर चेला शक्‍कर हो गया। बाद की सारी गाथाएं गोरखनाथ की शान में गढ़ी गयीं।
उधर आस्‍था से अलग तर्कशास्त्रियों के अनुसार ईसा की सातवीं से लेकर बारहवीं शताब्‍दी के बीच ही गोरखनाथ का आविर्भाव हुआ। चूंकि यह काल भारत के लिए काफी संक्रमण का था, इसलिए गोरखनाथ का योगदान देश को एकजुट करने के लिए याद किया जाता है। काया, मन और आत्‍मा की शुद्धि को समाजसेवा और फिर मोक्ष के लिए अनिवार्य साधन बताने का गोरखनाथ का तरीका जन सामान्‍य ने अपना लिया। गोरखनाथ का कहना था कि साधना के द्वारा ब्रहमरंध्र तक पहुंच जाने पर अनाहत नाद सुनाई देता है जो वास्‍तविक सार है। यहीं से ब्रह़मानुभूति होती है जिसे शब्‍दों से व्‍यक्‍त नहीं किया जा सकता। वे राम में रमने को एकमात्र मार्ग बताते हैं जिससे परमनिधान वा ब्रह्मपद प्राप्‍त होता है। गोरखनाथ ने असम से पेशावर, कश्‍मीर से नेपाल और महाराष्‍ट्र तक की यात्राएं कीं। उनकी बनायी गयीं 12 शाखाएं आज भी जीवित हैं जिनमें उडीसा में सत्‍यनाथ, कच्‍छ का धर्मनाथ, गंगासागर का कपिलानी, गोरखपुर का रामनाथ, अंबाला का ध्‍वजनाथ, झेलम का लक्ष्‍मणनाथ, पुष्‍कर का बैराग, जोधपुर का माननाथी, गुरूदासपुर का गंगानाथ, बोहर का पागलपंथ समुदाय के अलावा दिनाजपुर के आईपंथ की कमान विमलादेवी सम्‍भाले हैं, जबकि रावलपिंडी के रावल या नागनाथ पंथ में ज्‍यादातर मुसलमान योगी ही हैं।

महत्व

ये संस्कार भगवान् की अन्तरंग सेवा में मनुष्य के अधिकार एवं योग्यता सिद्ध करने के कारण बनते हैं। इसमें दूसरा कारण यह भी है कि तापादि पञ्चसंस्कार वेदविहित परमवैदिक संस्कार हैं और धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण तथा पाञ्चरात्रागमपद्धति से पूर्ण समर्थित है। जिस प्रकार अन्य सोलह संस्कार किसी भी कर्म के लिए हमें अधिकारी बनाते हैं, उसी प्रकार ये पञ्च संस्कार भी हमें भगवदाराधना में योग्यता प्रदान करते हैं। ये पञ्चसंस्कार भगवदाराधनाविरोधी पापों का नाश करके हमें पूर्णत: शुद्ध करके ऐकान्तिक भगवत्कैंकर्य में निष्ठा एवं अधिकार प्राप्त कराते है। ताप के द्वारा हमारे शरीर की शुद्धि और समस्त संचित कर्मों नाश होता है। तिलक से हमारे बुद्धि- मस्तिष्क की शुद्धि होती है, मन्त्र से हमारे अन्त:करण, आत्मा की शुद्धि तथा भगवन्नाम से हमें भागवत होने का अधिकार प्राप्त होने के पश्चात् हम यागरूपी भगवत्समाराधना के अधिकारी बन जाते हैं। ये पञ्चसंस्कार हमारी प्रपन्नता के परिचायक हैं और प्रतिफल हमें शरणागतिमार्ग से भटकने से बचाये रहते हैं क्योंकि यह भी विशेष ज्ञातव्य है कि यदि शरणागतिमार्ग में एक बार भी शरणागति का भाव हटा दो शरणागति भंग हो जाती है, अत: आचार्य द्वारा प्राप्त इन चिह्नों को हमेशा धारण करना चाहिए, जिससे कि हमारी शरणागति भंग न हो।
इस प्रकार प्रपत्ति स्वरूप का प्रकाशक है। जिसका चिन्ह धारण करता है, उसी का वस्तु वह माना जाता । जिस प्रकार सेना, पुलिस को राजचिन्ह, राजपोशाक धारण करने के पश्चात् राजकार्य करने का अधिकार प्राप्त होता है। उसी प्रकार यह संस्कार भी भगवद्धर्म अनुष्ठान करने के लिए अनिवार्य रूप से धारण करने के लिए शास्त्र आज्ञा प्रदान करते हैं।
लोक में भी पतिव्रता स्त्रियों के पातिव्रत्य धर्म के लिए चूड़ी, मंगलसूत्र, सिंदूररेखा आदि धारण करना आवश्यक होता है तो मन का भाव भी पति के लिए अव्यभिचारी, अनुकूल तथा शुद्ध होना चाहिए। उसी प्रकार परमेश्वर के विषय में बाह्मचिन्ह शंख चक्रादि धारण हैं। आन्तरिक चिन्ह विषय में वैराग्य के साथ भगवत्प्रेम है।
अन्तरंग संस्कारों में स्वीकृत पञ्च संस्कार ही श्रेष्ठ हैं। वैष्णवत्वसिद्धि में सर्वप्रथम कारण शंख-चक्र धारण, द्वितीय श्रीचूर्ण के साथ भगवान के चरण चिह्न ऊध्र्वपुण्ड्र का धारण, तृतीय भगवत्सम्बन्धी दासान्त नाम, चतुर्थ भगवत्स्वरूप एवं गुणों के प्रकाशक व्यापक मन्त्र का ग्रहण, पाँचवां है भगवत्समाराधन रूप याग संस्कार। ये संस्कार भगवान के अन्तरंग सेवा में मनुष्य का अधिकार एवं योग्यता सिद्ध करने के कारण बनते हैं। यह शास्त्र की आज्ञा हैं।
श्रीरामानुज सम्प्रदाय के श्रीवैष्णवों में पञ्चसंस्कार का महत्व सर्वविदित है क्योंकि सभी भक्त पञ्चसंस्कार संस्कृत रहते हैं। इसमें दूसरा कारण यह भी है कि तापादि पञ्चसंस्कार वेदविहित परमवैदिक संस्कार हैं और धर्मशास्त्र इतिहास, पुराण, तथा पाञ्चरात्रागम से पूर्ण समर्थित है।
सामान्य संस्कार के समान विशेष पञ्चसंस्कार भी संस्कार होने के कारण अन्य कार्य में योग्यता के साधक होते हैं। पञ्चसंस्कार भगवत् आराधना में योग्यता के साधक होते हैं। पञ्चसंस्कार भगवत् आराधना में योग्यता के विरोधी पापों को नाश करके ऐकान्तिक भगवत्कैंकर्य में निष्ठा एवं अधिकार प्राप्त कराते हैं। साथ ही देह और आत्मा के भी संस्कार होने से शरीर और आत्मा दोनों को पवित्र करते हैं। शरीर से वैदिक विधि से भगवान के शंख और चक्र आदि का धारण करने से यमराज का भी भय नहीं रहता। क्योंकि यमराज श्रीवैष्णवों के शासक नहीं हैं।

गुरु का महत्व

गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है –
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।
भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं –
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।
अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।
किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या है?  अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं। भौतिकवाद में भी गुरू  की आवश्यकता होती है।
सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।
तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।
मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त  क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेनाअज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं।
किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि
यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान,
शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।
गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।
गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।
सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।
आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन  को यही संदेश दिया था –
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच: ।। (गीता 18/66)
अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है। ऐसे परम गुरु को ही गुरु बनाना चाहिए। हमारे बैकुंठवासी श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी सुदर्शनाचार्य जी महाराज में परम गुरु के सभी  गुण मौजूद थे और वर्तमान पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुचार्य स्वामी पुरूषोत्तमाचार्य जी महाराज में भी वे सभी गुण प्रत्यत्क्ष दिखाई देते हैं।
नारायण                                                नारायण                                                            नारायण

तत्वदर्शी कौन ?



सत -असत को जो अपने अनुभव एवं आत्मबोध के स्तर पर यथार्थरूपसे जानता हो l वही वास्तव में तत्वदर्शी होता है l पोथी -पुरणोंको पढ़- पढ़ कर जिसने अपने  मस्तिष्क को बोझीला बना दिया हो , पोथी -पुराणोंकी जानकारी से अपना मस्तिष्क भर कर स्वयं को तत्वदर्शी घोषित करता हो तो निश्चित रूपसे जानना चाहिए वह व्यक्ति तत्वदर्शी नहीं है l 

  जो महापुरुष सत्य -असत्य का भेद अपने अनुभव के आधारपर बतावे वही अस्सल में तत्वदर्शी होते है l किस पुराण में क्या लिखा है ,इसकी चर्चा सच्चे तत्वदर्शी जादा करते ही नहीं है l पुरणोंका कचरा अपने मस्तिष्क में भरकर सत्य का दर्शन नहीं कराया जाता है l सत्य का बोध पुरणोंके , ग्रंथोंके आधारपर नहीं कराया जाता है ,वह तो आत्मज्ञानी गुरुओंकी करुणा कृपा से ही होता है l 
  हजारों पोथी -पुराण ,ग्रन्थ पढनेसे कोई तत्वदर्शी , तत्वज्ञानी नहीं होता है l पोथी -पुराण , ग्रन्थकी जानकारी अपने मस्तिष्कमें  भरनेवाला जादा से जादा पंडित बन सकता है , लेकिन वह कभी भी तत्वदर्शी बन नहीं सकता है l जरा सोचिये , कोई सच्चा संत पुराणोंकी अधूरी बात लोगोंको बताकर स्वयं को असली दूसरोंको नकली साबित करने में अपना जीवन बर्बाद करता है क्या ?
       नकली संत की पहचान केवल एक ही उदाहरण से समझे l 
अगर किसी  पुराण या ग्रन्थ में ऐसा लिखा हो कि अमुक - अमुक ने इतने दिन में सृष्टि बनाई l इस बात को सत्य मानकर स्वयं को तत्वदर्शी माननेवाला पुराण की जैसी की तैसी बात बताता हो तो वह निच्छित रूपसे अज्ञानी तथा नकली संत है ऐसा मानना चाहिए l क्योंकि असली संत यह सवाल खड़ा करता है कि -
  * जिस किसीने सृष्टि बनाई उसे देखा किसने ?
  * सृष्टि बनानेवालेने कहाँ बैठकर सृष्टि बनाई ?
  * सृष्टि बनानेवालेको देखा किसने ?
  * जिस किसीने सृष्टि बनानेवालेको देखा ,वह देखनेवाला 
          किस जगह  याने किस स्थान पर  बैठकर देखा ?
*   सृष्टि बनानेवाला  बड़ा  या सृष्टि को बनाते हुए देखनेवाला बड़ा  ?
*   वह कौन था जो सुष्टि के बनने के पहलेसे ही मौजूद था ?
       ग्रन्थ तथा पुराण की बात पढ़कर उपर्युक्त सवाल जिसके मन में उठते नहीं है  वह कैसा तत्वदर्शी है ? यही असली और नकली संत की पहचान है l 


गुरू एक किसान




पूर्व के सिद्ध संतोंने गुरू को भगवानसे भी बड़ा माना है , क्योंकि उस जमानेके गुरू होते थे ही ऐसे l उन गुरुओंके तुलनामें आज कल के गुरू कही भी बैठते नहीं है फिर भी स्वयं को भगवान जैसा पुजवाते है l जैसा एक किसान अपने खेत में बीज बोता है तो उसकी पूरी निगरानी रखता है ,ऐसा ही गुरुका काम होता है , जिस साधक के ह्रदय में दीक्षा के माध्यम से मंत्र रूपी बीज बोया है , उस बीज को साधक ठीक ढंग से सिंचाई कर रहा है या नहीं इसकी ओर बार बार देखने का काम गुरू का होता है , उसे अपनेसे से भी ऊँचा उठानेका काम गुरुका होता है लेकिन आज कल के गुरू साधक को जीवनभर अज्ञानी रखकर अपनी तिजोरी भरते रहते है l  दूसरी बात यह है कि आज के ज़माने के गुरू को डर यह होता है , मेरा चेला मेरी दुकान तो बंद नहीं कर देगा ,इसकारण आज के ज़माने के गुरू अपने गुरुत्व के प्रति उतने ईमानदार नहीं होते है , जहाँ - तहाँ  धोकाही ही धोका है l अत: सावधान होकर गुरुका चुनाव करना चाहिए l  

भगवान शिव को  जो लोग आकृतिमे देखते है ,वे शिव की अनंत कृपासे वंचित रह जाते है L भगवान शिव जैसा समतासे परिपूर्ण दूसरा कोई नहीं है L भगवान शिवजी का परिवार देखो , कितनी  अदभूत समता है , उनके परिवारमें L माँ पार्वती जी का वाहन शेर है ,शिवजी का वाहन वृषभ है , कार्तिके का वाहन मोर है  और गणेशजी का वाहन चूहा है L सब एक दूसरेसे  विपरित है , लेकिन समताका अजोड मिसाल है L समाज में फैली विषमता को दूर करना हो तो भगवान शिव जी के परिवार को देखना चाहिये L भगवान शिव जी का बाहरी स्वरुप विचित्रसा लगता है , लेकिन वे विरक्त और त्याग की मूर्ति है L श्मशान उनका निवास स्थान है , भस्म उनका अङ्गराग है ,  पिशाच उनके सहचर है , वे  मुण्डमालाको  धारण करनेवाले है L भगवान शिव जी का  यह उपरी स्वरुप विषयभोग त्याग की शिक्षा देनेवाला है L इतनाही नहीं वैराग्य क्या होता है इसके यह लक्षण है L ऐसे त्यागमूर्ति भगवान की उपासना वैराग्यवान ही कर सकता है L भगवान शिव जी का उपरी रंगरूप देखकर जो शिव जी को तमोगुणी कहते है उन्हें सच्चे शिव का पता ही नहीं है L 

        भगवान शिव जी के बारेमे कहा जाता है कि -
 शिव जी के त्रिनेत्र - त्रिकाल माने , भूत  ,भविष्य , वर्तमान के ज्ञान अर्थात              सर्वज्ञताके  प्रतिपादक है l
 शिव जी का त्रिशूल - आधिदैविक , आधिभौतिक , आध्यात्मिक तिन प्रकारके शूलोंसे बचानेवाला है l 
शिव जी का मुण्डमालाका धारण करना - मृत्यु को स्मरण करनेवाला है , जिससे संसारमे आसक्ति नहीं रहती l 
शिव जी का विषपान - विषयभोग ही वास्तव में विष है l जिन लोगोंका लक्ष्य विषय भोग ही है ,ऐसे विषयभोगीयोंको  त्याग और वैराग्यकी शिक्षा  देकर उन्हें विषयभोग रूपी विषसे छुड़ानेवाले है l  
   भगवान शिव जी समताध्यक्ष है l उनके मस्तिष्क पर गंगाजी और चन्द्रमा है ,जो शितलताका प्रतिक है l जिसका मस्तिष्क शितल हो , ठंडा हो , जिसके मस्तिष्क में अद्भुत शांति हो , वह सारे संसारको शितलता और शांति प्रदान करनेवाला होता है l शिवजी ने अपने  गलेमे जो नागराज को धारण किया है ,वह अहंकाररुपी नाग को अपने काबू में रखनेकी सीख देता है l शिव जी का उपरी आचरण हमें बहुत कुछ सीखता है l 
   शिव एक परम तत्व है , यह तत्व सर्वव्यापी है l भगवान शिव अनंत है , शिव केवल किसी शिवालयमे या कैलास पर ही नहीं रहते है वे हर एक के हृदय में नित्य विराजमान है l प्राचिन कालसे शिवजी की आराधना , उपासना शिवलिंग के माध्यमसे कि जाती है l शिवलिंगपर दूध , बिल्बपत्र  आदि चढ़ाये जाते है, यह सब तो ठीक है , लेकिन असली शिव आराधना विधि यह है कि अपने आन्तरात्माको को ही शिवस्वरूप मानकर नित्य आत्मशिव की आराधना करनी चाहिये ,यही असली शिव आराधना है l यह आराधना तुरंत फल देनेवाली है l  शिव परम कल्याणकारी है l धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष प्रदान करनेवाले है l 

     भगवान शिव  सच्छिदानन्दघन स्वरुप है l भगवान शिव किसी धर्म , सम्प्रदाय या जातिसे  बंधे हुए नहीं l  जो अज्ञानी मूढ़मतिके है ,वे ही लोग शिव जी को जन्म - मृत्यु को प्राप्त होनेवाले है ,  किसी धर्म विशेष  मानते है l भगवान शिव का किसी धर्म , सम्प्रदाय , जाती  से कोई लेना देना नहीं है, शिव  तत्व का जिन्हें अभ्यास नहीं है उन अज्ञानी को भगवान शिव  एक ही धर्म के लगते है  l शिव ही ब्रह्मा ,विष्णु है l  शिव इस सृष्टि के कणकण में व्याप्त है l शिव अनंत है , शिव कृपा अनंत है l उन्हें अपना परम इष्ट , परमगुरु के रूप में अराध्य l भगवान शिव तत्काल प्रसन्न होनेवाले है l भगवान शिव जी को सर्वशक्तिमान , सर्वसमर्थ , सर्वज्ञ , सर्वान्तरात्मा , सबके रक्षक-पोषक ,परम हितैषी , परम दयालु , परम कृपालु ,  परम  सुहृद जानकर उनकी आत्मभावसे आराधना करनेवालोंपर  वे शीघ्र कृपा करते है l आखिर भाव ही देव है l जिस भाव से उस परमपिता को हम ध्यायेंगे वैसी ही हमपर कृपा  करेंगे l  भगवान शिव  को जो श्रेष्ठ भावसे ध्याते है , शिव जी  श्रेष्ठ ही प्रदान करते है  l सदगुण ,सदाचार ,सत्कर्म ,सद्भावना , सबके लिये मंगल कामना इस पंचामृतसे  आत्मशिवका नित्य अभिषेक करना चाहिये और विश्व को शिव रूप में देखना ही असली बिल्बपत्र अर्पण करना है l   आओ महाशिवरात्रि के पावन पर्वपर आत्मशिव को प्रसन्न करनेका शिवसंकल्प करे l और अपना जीवन धन्य करे l 

                                ll   ॐ नम: शिवाय ll 

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  सच्चे गुरू  , सच्चा ज्ञान देते है , जो सच्चे होते है वे जगतगुरु नहीं होते है l वे केवल  भक्तोंका परम कल्याण करनेवाले निराभिमानी कल्याणदाता  गुरू ही होते है l 
          मुझे जो ज्ञान है ,या मेरे पास जो ज्ञान है दुनियामे किसी के पास भी  नहीं है , इस प्रकार का अहंकार का भूत उनके मस्तिष्क में नहीं होता  है  l सच्चे गुरू दूसरोंको नीचा दिखानेका घटिया काम नहीं करते है l शास्त्रकी बात भी वे  आदरभाव से बताते है  l    यह असली गुरू के लक्षण है l अभिमानी गुरू न जाने अपने आगे पीछे कितनी उपाधियाँ लगाएँगे इसका कोई पता नहीं  होता है l   नकली गुरू दंभ , अभिमान , अहंकार के दलदल में फँसे हुए होते है l       दूसरोंको नीचा दिखानेका  काम वे निरंतर करते रहते है l अधिक शास्त्र पढ़नेवाले सच्चे गुरू या संत नहीं होते है l  भीतरी स्वाद जिन्हे नहीं मिला है वे तथाकथित गुरू निरंतर  शास्त्रकी  ही बात बताकर अपना कोरापन सिद्ध करते है  ऐसे जगतगुरु को  " कोरा  गुरू  " कहना चाहिये  l  शास्त्र की बाते बतानी नहीं चाहिए ऐसा नहीं है लेकिन जो शास्त्रपर ही निर्भर है उनके लिए यह बात है l   यह बात है तथाकथित   जगतगुरुयोंके लिए  l जो शास्त्र की  अधूरी बाते  बताकर लोगोंको  गुमराह करते है l
                                 
            असली गुरू अपने हृदय कि बात बताते है ,अपने भीतर के अनंत  ज्ञान भंडार  से ज्ञान के मोती चुनकर अपने भक्तोंको देते है l असली गुरू या संत पोथी - पुरणोंपर निर्भर नहीं होते है  क्योंकि उनकेपास शाश्वत ज्ञान होता है l संत कबीर , गुरुनानकदेव , संत तुकाराम महाराज जैसे अनेक संत -गुरुने जो ज्ञान दिया वह  ज्ञान,  सच्चा ज्ञान था  , न कि  पोथी पुराणोंका था   l  इन महापुरुषोंने  पोथी -  पुराणकी  बाते भक्तोंको बताकर उन्हें गुमराह नहीं किया l जो ज्ञान  पोथी पुराणोंसे परे है वह                                    
शाश्वत ज्ञान उन्होंने सच्चे हृदय से लोगोंको  बाँटा l असली गुरू जो ज्ञान देते है ,  वह ज्ञान असली ज्ञान होता है l असली और नकली गुरु में फर्क क्या है ?

         महाराष्ट्र के महान संत तुकाराम का ही उदाहरण  लीजिये -  वे परमात्मा का ठिकाना बताते हुए कहते है -
                       " काया ही पंढरी , आत्मा पांडुरंग "      
        यह देह पंढरी है और उसमे आत्मारूप से भगवान पांडुरंग याने परमात्मा विराजमान है l  संत कबीर जी भी यही बात कहते है  l
         इसका तात्पर्य यह है कि -" परमात्मा कही आकाश - पाताल में , या सतलोक  या अन्य किसी लोक में  या किसी विशिष्ट जगह विराजमान नहीं है वे सर्वव्यापक है , वे कहींसे आते नहीं है हमारे भीतर ही है  l "
        जो तथाकथित जगतगुरू यह कहते है कि परमात्मा सतलोक से चलकर आते है , ऐसे गुरू को अज्ञानी , ठगीगुरू कहना चाहिए l क्योंकि उनका ज्ञान आत्मज्ञान नहीं है , पोथी - पुराणोंका ज्ञान है l जो गुरू पुरा जीवनभर  पोथी पुराण ही भक्तोंको समझाते है , पुराणोंका ही तर्क देते  है तो निश्चित रूपसे वे  गुरू नकली  गुरू समझना चाहिए l
        पुराणोंकी पुरी बात न बताकर अधूरी  बात बड़ी चतुराईसे बतानेवाले  स्वयंको जगतगुरु बताते है l ऐसे अधूरे गुरू पर भरोसा करके अपनी ह्त्या नहीं कर लेनी चाहिए l सच्चे गुरू जो ज्ञान देते है वह ज्ञान सच्चा होता है l और सच्चा गुरू वह होता है परमात्माको सर्वव्याप्त , सर्वमय बताते है l किसी लोक में परमात्माका ठिकाना नहीं बताते है l जैसे कि संत कबीर जी कहते है -
                                 " कीड़ी में तूं नान्यो लाग्यो , हाथीमे में तूं मोटो क्यों ?
                         बण महावत ने माथो बेटो , हाकलणेवाळो  तूं को तूं l
                         ऐसो खेल रचो मेरे दाता जहाँ देखूँ वहाँ तूं  को तूं l  "
       परमात्मा के सर्वव्यापकता का यह बख़ान है l यहाँ संत कबीर जी किसी लोक या सतलोक का बख़ान नहीं करते है l लेकिन संत कबीर जी के बहुतसारे ठेकेदार परमात्माके बारे में मनघडण कहानियाँ बताते है l इस उदाहरण से भी सच्चे गुरू और उनके सच्चे ज्ञान का का परिचय मिलता है l 

कम खाने से दिमाग करता है तेज काम

एक नए अध्ययन से यह पता चला है कि कम खाने से दिमाग तेज होता है। इस शोध में स्मरण शक्ति और सीखने की प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण सीआरईबी-1 नाम के प्रोटीन पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया गया था। वैज्ञानिको ने चूहे पर प्रयोग करते वक्त यह पाया कि कैलोरी की मात्रा कम करने से सीखने की प्रक्रिया में तेजी आती है।
अगर तेज दिमाग के साथ याद्दाश्त भी अच्छी हो तो फिर क्या कहना! आप अपनी स्मरण शक्ति को मजबूत बनाना चाहते हैं तो रोजाना विटमिन बी लें। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में यह पाया है कि रोजाना विटमिन बी की खुराक इंसान को बुढ़ापे मे डिमेंशिया और अल्जाइमर से बचाती है। इस अध्ययन में 250 से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। इनमें 70 और उससे भी ज्यादा उम्र के वे लोग थे, जो कमजोर स्मरण शक्ति की समस्या से जूझ रहे थे। इन लोगों के भोजन में लगातार दो वर्षो तक अंकुरित अनाज, केला, बीन्स और रेड मीट आदि को प्रमुखता से शामिल किया गया।
विटमिन बी से भरपूर इन चीजों का सेवन करने वाले लोगों की याद्दाश्त में बहुत तेजी से सुधार हुआ। शोधकर्ताओं के अनुसार सप्लीमेंट की तुलना में विटमिन बी युक्त चीजों का सेवन ज्यादा फायदेमंद साबित होता है। इसलिए इन्हें भोजन में जरूर शामिल करना चाहिए।
दान सबसे बड़ा धर्म
हिन्दू धर्म के अनुसार दान धर्म से बड़ा ना तो कोई पूण्य है ना ही कोई धर्म। दान, भीख. जो भी बदले में कुछ भी पाने की आशा के बिना किसी ब्राह्मण, भिखारी, जरूरतमंद, गरीब लोगों को दिया जाता है उसे दान कहा जाता है. “दान-धर्मत परो धर्मो भत्नम नेहा विद्धते”।

दान के प्रकार
सात्विक दान – किसी भी देश में जिस समय पर जिन चीज़ो की कमी हैं उसे बिना किसी भी उम्मीद के जरूरतमंद लोगों को देना ही सात्विक दान है।

पद्म पुराण में, विष्णु फलक से कहते हैं - "दान के लिए तीन समय होते हैं - नित्या (दैनिक) किया गया दान, नैमित्तिक दान कुछ प्रयोजन के लिए किया गया दान, और काम्या दान किसा इच्छा के पूरी होने के लिए किया गया दान। इसके अलावा चौथी बार दान प्रायिक दान होता है जो मृत्यु से संबंधित है।“
(1) नित्य दान – जो प्राणी नित्य सुबह उठ कर अपने नित्या कर्म में देवता के ही एक स्वरूप उगते सूरज को जल भी अर्पित कर दे उसे ढेर सारा पुण्य मिलता है। उस समय जो स्नान करता है , देवता और पितर की पूजा करता है, अपनी क्षमता के अनुसार अन्न, पानी, फल, फूल, कपड़े, पान, आभूषण, सोने का दान करता है, उसके फल असीम है। जो भी दोपहर में भोजन कि वस्तु दान करता है, वह भी बहुत से पुण्य इकट्ठा कर लेता है। इसलिए एक दिन के तीनों समय कुछ दान ज़रूर करना चाहिए। कोई भी दिन दान से मुक्त नही होना चाहिए। अगर कोई भी एक पखवाड़े या एक महीने के लिए कुछ भी भोजन दान नहीं करता है, तो मैं भी उसे उतने ही समय के लिए भूखा रखता हूँ। मैं उसे एक ऐसी बीमारी में डाल देता हूँ जिसमें कि वह कुछ भी आनंद नहीं ले सकते है। जो कुछ भी नहीं दान नही कर पाता है, उसे कई व्रत रखने चाहिए।
 (2) नैमित्तिक दान - नैमित्तिक दान के लिए कुछ विशेष  नैमित्तिक अवसर और समय होते हैं। अमावस्या, पूर्णिमा, एकादशी, संक्रांति, माघ, अषाढ़, वैशाख और कार्तिक पूर्णिमा, सोमवती अमावस्या, युग तिथि, गजच्छाया, अश्विन कृष्ण त्रयोदशी ; व्यतीपात और वैध्रिती नामक योग ,पिता की मृत्यु तिथि आदि को नैमित्तिक समय दान के लिए कहा जाता है। जो भी देवता के नाम से कुछ भी दान करता है उसे सारे सुख मिलते हैं।
(3) काम्या दान - जब एक दान व्रत और देवता के नाम पर कुछ इच्छा की पूर्ति के लिए किया जाता है, उसे दान के लिए काम्या समय कहा जाता है ।
अभ्युदायिक दान क्या है - अभ्युदायिक दान का समय सभी शुभ अवसरों, शादी के समय, एक नवजात शिशु के मंदिर में अभिषेक संस्कार के समय, अच्छी तरह से अपनी क्षमता के अनुसार दान किया जाता है उसे दान के लिए अभ्युदायिक समय कहा जाता है। इस दान को करने वाला सभी प्रकार की सिद्धि को प्राप्त करता है।मनुष्य को मरते समय शरीर को नश्वर जानकर दान करना चाहिए। इस दान से यम लोक रास्ते में आप सभी प्रकार की आराम को प्राप्त करते हैं।

जहां ब्राह्मण उपलब्ध नहीं हैं, वहां मूर्तियों में रहने वाले देवता को दान करना चाहिए।  मूर्तियों में रहने वाले देवता से दान का फल बहुत देर से मिलता है, तो मनुष्य को ब्राह्मण, जरूरतमंद, गरीब को दान करना चाहिए जिसका फल तुरन्त ही अवश्य मिलता है।
 
 
 

मनुष्य में सबसे बड़ा गुण है-देने का भाव। इसी का नाम दान है। दान प्रसन्न मन से दिया जाता है। दान देने से किसी को तृप्त करने के संस्कार रूपी बीज दानी की सूक्ष्म देह में समाविष्ट हो जाते हैं। पदार्थ में जब परमार्थ का भाव जुड़ जाता है तो वह वस्तु देने योग्य हो जाती है। वस्तु सत्य, भाव सत्य में बदल जाता है। दान का यह भाव महापुरुषों का एक प्रमुख गुण है। दान में आत्मा का अंश रच बस जाने से यह मानव धर्म और कल्याण का स्वरूप पा जाता है। दान अपने सुख को व्यापक बनाने का एक साधन है। अपने अकेलेपन से जूझने के लिए यह ज्योति स्तंभ है। दान हमें बड़ा बनाता है। यह दूसरों की आंखों के आंसू पोंछकर सब कुछ पाकर सब कुछ छोड़ने का प्रयास है। दान पर दुख कातरता का भाव है। जनक देह से विदेह की ओर चलना सिखाते हैं। हरिश्चंद्र और रघु की दानशीलता विश्व प्रसिद्ध है। जो देता है वह देवता है। देने का भाव जाग्रत होने पर पुण्य उदित होता है। भामाशाह, कर्ण, दधीचि और राजा भोज को कौन नहीं जानता। दान कल्पवृक्ष है।
किसी फल की इच्छा से किया गया दान सकाम दान है। किसी कामना या फल के बगैर दिया गया निष्काम दान सात्विक और सर्वश्रेष्ठ होता है। दान देने से धन नष्ट नहीं होता, बल्कि जीवन शुद्ध और श्रेष्ठ होता है। स्नेह, प्रेम, सेवा और प्रिय वचन से दान किया जाता है। कहा गया है कि दानी को दान देने में अहं नहीं पालना चाहिए, बल्कि उसे अपना परम सौभाग्य मानना चाहिए कि हमारा दान स्वीकार करने वाला कोई सुपात्र मिला तो। दाएं हाथ द्वारा दिया गया दान बाएं हाथ को नहीं बताना चाहिए। विक्त्रमादित्य ने वह दिया जो किसी ने नहीं दिया। अपने कोषाध्यक्ष को उन्होंने यह आदेश दे रखा था कि जब कोई गुणी मेरे आगे हो तो उससे एक सहस्न, वार्तालाप करें और दस सहस्न मुद्राएं दान में दी जानी चाहिए। सभी धर्मो में गुप्त दान की महिमा वर्णित है। दान मानवता को बचाता है। यह जीवन में सिद्धि और प्रसिद्धि प्रदान करता है।

दान की महिमा


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एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल दिए, इस के कारण कि भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देखकर दूसरों को भी लगता है कि इसे पहले से ही किसी ने कुछ दे रखा है।

पूर्णिमा का दिन था, भिखारी सोच रहा था कि आज अगर ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी। अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती हुई दिखाई दी। 
देने से कोई चीज कभी घटती नहीं। लेने वाले से देने वाला बड़ा होता है।
भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा कि राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से आज तो उसके सारे दरिद्र दूर हो जाएंगे और उसका जीवन संवर जाएगा। जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। 

जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रूकवाया और उतर कर उसके निकट पहुंचे।
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भिखारी की तो मानो सांसें ही रूकने लगीं, लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उल्टे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और उससे भीख की याचना करने लगा। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुनः याचना की। भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था।

जैसे-तैसे करके उसने दो दाने जौ के निकाले और राजा की चादर में डाल दिए। उस दिन हालांकि भिखारी को अधिक भीख मिली, लेकिन अपनी झोली में से दो दाने जौ के देने का मलाल उसे सारा दिन रहा। शाम को जब उसने अपनी झोली पलटी तो उसके आश्चर्य का सीमा न रही।

जो जौ वह अपने साथ झोली में ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। अब उसे समझ में आया कि यह दान की महिमा के कारण ही हुआ। वह पछताया कि - काश! उस समय उसने राजा को और अधिक जौ दिए होते लेकिन दे नहीं सका, क्योंकि उसकी देने की आदत जो नहीं थी