कर्मों से तय होता है सुख-दुख
विचारों की शुद्धता शब्दों से होती है। आत्मा का पुरुषार्थ ही भगवान को प्राप्त करने का साधन है। अपने कार्य ही सुख-दुख देने वाले होते हैं। जो जैसे कार्य करेगा उसे वैसा ही फल मिलेगा। जीव अनादि से है और अनंतकाल तक विद्यमान रहेगा। इसे न किसी ने बनाया है और न ही नष्ट कर सकता है। आज कोई किसी का शत्रु नहीं है, हम स्वयं के शत्रु हैं। 

उक्त उद्गार आचार्य विशुद्घ सागर महाराज ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि आज परिणामों की स्वतंत्रता किचन संस्कृति में खो गई है। पहले चौके में भगवान और मुनि महाराज के फोटो हुआ करते थे। शुद्घ भाव से पालकी मारकर भोजन किया करते थे, जिससे अच्छे परिणाम मिलते थे। 

आज चमड़े के जूते पहन कर टेलीविजन के सामने लड़ने-झगड़ने के दृश्यों को देखते हुए खाना खाते हैं। जरा सोचिए ऐसे में हमारे पेट के अंदर क्या जाएगा। हमारे परिणति और परिणाम भी वैसे ही हो जाएँगे। विचारों की शुद्घता शब्दों से होती है, आप जितने शांत भाव से जिनवाणी की वाणी सुनेंगे उतनी ही आप अपने शब्दों एवं वाणी पर हमेशा संयम रख पाएँगे। 

भगवान महावीर ने दुनिया को जो सेवा और परोपकार का मार्ग दिखाया है, उस पर अन्य के लोग तो अमल कर रहे हैं। परंतु जैन समाज में अभी सेवा के क्षेत्र में कोई बड़े आयाम स्थापित नहीं हुए हैं। जैन समाज देश के लोगों की जो सेवा की जाएगी, वही सेवा सच्चा मानवता का धर्म कहलाएगी।

उसी प्रकार राम साक्षात ईश्वर थे और भरत के अंदर विष्णु भगवान का अंश था, जबकि शेषावतारी लक्ष्मण के अंदर शंकर भगवान का अंश है। शत्रुघ्न ब्रह्मा जी के अवतार हैं। इस प्रकार चारों भाई की शक्तिपुंज को संग्रह करके राम का पूर्णावतार मानना चाहिए। हमें भी भगवान के दिखाए परोपकार के मार्ग पर चलकर मानवता का पालन करना चाहिए।