कबूतरबाजी
चूंकि 'कबूतर' शब्द से बना है, इसलिए इसके लिए कबूतर का होना जरूरी है। कबूतर कोई एनडेंजर्ड प्रजाति नहीं है। यह अभी भी बहुतायत में मिलता है। धर्म-कर्म वाले लोग शहर के चौराहों पर उनके लिए अब भी दाना डालते हैं। वैसे तो दाना डालने के बाद जाल डालने का भी रिवाज है। पर धर्म-कर्म वाले लोग ऐसा तो नहीं करते होंगे। खैर, कबूतर बहुत ही निरीह प्राणी होता है। इतना कि बिल्ली को देखकर आंखें बंद कर लेता है और बिल्ली भी कोई एनडेंजर्ड प्रजाति नहीं है। वह भी बहुतायत में मिलती है। वह हर उस जगह पर पहुंच जाती है, जहां खाने-पीने का जुगाड़ हो। वह दूध पी जाती है, मलाई खा जाती है। कबूतर उसके लिए दूध-मलाई जैसी ही चीज है। बल्कि उससे भी आसान। वह उसके सामने आंख मूंदकर बैठ जाता है- लीजिए, मैं हाजिर हूं।

कबूतर हमेशा इंसान के काम आया है। पहले के जमाने में वह संदेशवाहक का काम करता था। इधर उसका यह काम कुछ फिल्मों तक ही सीमित रह गया है। फिर वह शांति दूत बन गया। जैसे कभी खलील खां फाख्ते उड़ाया करता था, वैसे ही नेता शांति के लिए कबूतर उड़ाने लगे। अब न खलील खां के फाख्ते उड़ाने का जमाना रहा, न नेताओं के शांति कपोत उड़ाने का। यह तो बुश का जमाना है और इस जमाने में सिर्फ बमवर्षक उड़ते हैं।

वैसे तो बताते हैं कि कबूतर के और भी कई काम हैं। जैसे कहते हैं लक्का कबूतर के पंखों की हवा से लकवा ठीक हो जाता है। पर इधर कबूतर, कबूतरबाजी के ज्यादा काम आ रहा है। कबूतरबाजी एक पेशा है। यह इतना अच्छा और मलाईदार पेशा है कि कुछ साल पहले जो लोग भंगड़ेबाज थे, वे कबूतरबाज हो गए। गा-गाकर कबूतरों को आकर्षित करने लगे- साढे नाल रहोगे तो ऐश करोगे, दुनिया के सारे मजे कैश करोगे। फिर कैश खुद रख लेते थे और उसे ऐश करने के लिए फुर्र कर देते थे। नाल नहीं रखते थे। अब कबूतरों का तो ऐसा ही है जी। उनसे चाहे संदेशे भिजवा लो, प्यार और शांति के और चाहे भंगड़ा डलवा लो। और जब चाहो फुर्र कर दो।

खैर, यह पेशा लोगों को इतना पसंद आया कि गाने वाले गाना छोड़ कबूतरबाजी करने लगे। डांस वाले डांस छोड़ कबूतरबाजी करने लगे। कल्चर की तुक वैसे तो वल्चर से बैठती है, मगर कल्चर वाले, वल्चर को पसंद नहीं करते, पर कबूतरबाजी उन्हें बड़ी रास आई। पर ऐसा नहीं है कि कल्चर में ही कबूतरबाजी का योगदान रहा हो। कहते हैं कि खेल में और खासतौर से हॉकी में कबूतरबाजी का काफी योगदान है। देश में हॉकी की आज जो स्थिति है, उसे इस एंगल से भी समझा जा सकता है।

अब अगर पेशा इतना अच्छा हो, तो हर कोई उसकी ओर आकर्षित हो सकता है। आकर्षित होने के मामले में हमारे नेताओं का कोई जवाब नहीं। कभी जनता उनकी ओर आकर्षित होती थी, इधर वे कबूतरबाजी की ओर आकर्षित हो रहे हैं। बीच-बीच में वे अपनी पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टियों की ओर आकर्षित हो जाते हैं। बड़े-बड़े सेठों और कंपनियों की ओर आकर्षित हो जाते हैं। खैर, कबूतरबाजी की ओर वे खूब आकर्षित हो रहे हैं।

बाबूभाई कटारा को ही देख लीजिए। पहले वह हिंदुत्व की ओर आकर्षित हुए। फिर वह हिंदुत्व के बाहुबली हो गए। जी हां, सबके अपने-अपने बाहुबली होते हैं। कोई समाजवाद का बाहुबली तो कोई हिंदुत्व का बाहुबली। फिर गुजरात के हैं और गोधरा के पड़ोसी हैं तो दंगों ने उन्हें आकर्षित कर लिया और पूरी फैमिली दंगों के बिजनेस में आ गई। बताते हैं उनके और उनके बेटों पर अभी दंगों के केस चल रहे हैं। पर दंगे तो हमेशा होते नहीं रह सकते न और वे ठहरे आकर्षण के मारे। सो वे कबूतरबाजी की ओर आकर्षित हो गए। विचारधारा का कोई संकट तो था नहीं। हिंदुत्व वाले हवाला, तहलका वगैरह सबकी ओर आकर्षित होते रहते हैं, तो उन्हें क्या संकट था। फिर यूएस, यूके, कनाडा में हिंदुत्व का प्रसार हो रहा था। भई, उनके कबूतर संदेश तो ले जाते होंगे न। और वे हिंदुत्व का संदेश नहीं ले जाएंगे तो क्या प्रेम का संदेश ले जाएंगे? 
सर विलियम बैवरीज के अनुसार ‘‘संसार में पाँच आर्थिक राक्षस मानव जाति को ग्रसित करन के लिए तैयार हैं- निर्धनता, अज्ञानता, गन्दगी, बीमारी और बेरा जगारी, परन्तु इनमें बेरा जगारी सबस भयंकर है।’’ बेरोजगारी का अर्थ है, काम करन या ग्य एवं काम करने के इच्छुक व्यक्तिया ं के लिए काम का अभाव। कोई भी व्यक्ति ब रोजगार तब कहलायेगा, जबकि वह काम करने के या ग्य है तथा काम करना चाहता है, किन्तु उसे काम नही मिलता। अर्थात् जो शारीरिक व मानसिक दृष्टि से काम करने की क्षमता रखता है एव काम करना चाहता है परन्तु उसे कार्य नहीं मिलता 187 अथवा काम से अलग होने के लिए बाध्य किया जाता है। वर्तमान में बेरोजगारी की समस्या विश्व व्यापी समस्या है, किन्तु यहाँ भारत के संदर्भ में विचार करें तो पाते हैं कि भारत में बेरोजगारी विभिन्न रूपों में पायी जाती है। जब काम ढूँढने पर भी लोगों को काम नहीं मिलता है तो ऐसी स्थिति को खुली बेरोजगारी कहते हैं। व्यवसाय में नियुक्त ऐसी जन शक्ति के कुछ भाग को, जब उस क्षेत्र से हटाकर किसी अन्य व्यवसाय में लगा दिया जाता है तो भी उससे व्यवसाय के कुल उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस प्रकार की बेरोजगारी को अदृश्य बेरोजगारी कहते हैं। जब किसी व्यक्ति को वर्ष के किसी विशिष्ट समय के लिए रोजगार मिले और वह शेष अवधि के लिए बेरोजगार बैठा रहे तो वह मौसमी बेरोजगारी कहलाती है। मंदी के दिनों में प्रभावपूर्ण माँग में कमी के कारण जो बेरोजगारी फैलती है, उसे चक्रीय बेरोजगारी कहते हैं। इनके अतिरिक्त अस्थिर बेरोजगारी, शिक्षित बेरोजगारी तथा तकनीकी बेरोजगारी भी भारत में देखी जा सकती है। जनसंख्या की वृद्धि को भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण माना जाता है। देश में प्रतिवर्ष जिस दर से जनसंख्या बढ़ रही है, पर रोजगार के अवसर उसी अनुपात में नहीं बढ़ रहे हैं। यद्यपि भारत एक कृषि प्रधान देश है तथापि भारतीय कृषि के पिछड़ेपन के कारण अतिरिक्त रोजगार के अवसरों का सृजन बहुत कम है। साथ ही भारत के विविध प्राकृतिक साधन अभी तक अविकसित होने से कृषि एवम् औद्योगिक विकास धीमी गति से हो रहा है। पारिवारिक और सामाजिक कारणों के कारण लोग अपना निवास छोड़कर अन्यत्र जाना पसंद नहीं करते जिससे भारतीय श्रम भी गतिहीनता का शिकार हो गया है। दरिद्रता और बेरोजगारी का तो मानो चोली दामन का साथ है। एक व्यक्ति गरीब है क्योंकि वह बेरोजगार है तथा वह बेरोजगार है इसलिए गरीब है। वर्तमान दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली भी विद्यार्थियों को रचनात्मक कार्यौं में लगाने, स्वावलम्बी बनाने तथा आत्मविश्वास पैदा करने में असफल रही है। फलतः आज पढ़ा लिखा व्यक्ति रोजगार के लिए मारा-मारा फिर रहा है। भारत में माँग व प्रशिक्षण की सुविधाओं में समन्वय के अभाव में कई विभागों में प्रशिक्षित श्रमिकों की कमी है। उक्त कारणों के अतिरिक्त भारत में विद्युत की कमी, परिवहन की असुविधा, कच्चा माल तथा औद्योगिक अशान्ति के कारण नये उद्योग स्थापित नहीं हो रहे हैं, वहीं उत्पादन में तकनीकी विधियों को लागू करने से भी बेरोजगारी में वृद्धि हो रही है। हस्त व लघु उद्योगों की अवनति, त्रुटिपूर्ण नियोजन, यन्त्रीकरण एवं अभिनवीकरण, स्त्रियों द्वारा नौकरी करना, विदेशों से भारतीयों का आगमन आदि कारण भी बेरोजगारी समस्या के लिए उत्तरदायी हैं। बेरोजगारी की समस्या समाज में आज अत्यन्त भयंकर एवं गम्भीर समस्या बन गयी है। देश का शिक्षित एवं बेरोजगार युवक अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति हड़तालें करने, बसें जलाने एवं राष्ट्रीय सम्पत्ति को क्षति पहुँचाने में कर रहा है वहीं कई बार वह कुंठित हो आत्महत्या जैसा भयंकर कुकृत्य कर बैठता है। कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घरकहावत को हमारे युवक चरितार्थ कर रहे हैं। सच भी है मरता क्या नहीं करता, आवश्यकता सब पापों की जड़ है, अतः वह चोरी, डकैती, अपहरण, तस्करी, आतंकवादी गतिविधियों में सक्रिय हो रहा है। देश की जनशक्ति का सदुपयोग नहीं हो रहा है, फलतः आर्थिक ढाँचा चरमरा रहा है। भारत जैसे विकासशील देश को अपनी बेरोजगारी के उन्मूलन हेतु सर्वप्रथम जनसंख्या नियन्त्रण कार्यक्रम को हाथ में लेकर परिवार नियोजन, महिला शिक्षा, शिशु स्वास्थ्य के कार्य अपनाने होंगे। कृषि विकास के लिए शोध गति से विस्तार एवं कृषि में उन्नत बीजों को अपनाना होगा। नियोजन की प्रभावी नीति, पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना, कुटीर एवं लघु उद्योगों का विकास किया 188 जाना चाहिए तथा उन्हें कच्चा माल, औजार, लाइस स व अन्य आधार भूत सुविधाएँ उपलब्ध करानी चाहिए। सरकार द्वारा विद्युत आपूर्ति, परिवहन सम्बन्धी अड़चन द र करने का प्रयत्न किया जाय। वर्तमान शिक्षा पद्धति को रोजगारोन्मुख बनाए जाने की महती आवश्यकता है। यदि माध्यमिक शिक्षा के बाद औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थाओं तथा अन्य तकनीकी संस्थाओं की अधिकाधिक स्थापना कर युवकों को प्रशिक्षित कर वित्त, कच्च माल व विपणन की सुविधा देकर स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित किया जाय तो इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता। साथ ही प्राकृतिक साधना ं का सर्वेक्षण, गाँवों में रा जगारोन्मुख नियोजन, युवा शक्ति का उपयोग किया जाना चाहिए। वैस सरकार की आ र स इस दिशा में प्रयत्न हेतु एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम भी चलाए जा रहे हैं। इस विश्व व्यापी समस्या के समाधान हेतु उपाय अपने अपने देश की परिस्थितियों के अनुसार ही सार्थक, प्रभावशाली एवं उचित सिद्ध हा ंगे। केवल सरकारी योजनाओं से इसका निराकरण स भव नहीं होगा। आवश्यकता है-इस हेतु युवका ं को ही आगे आकर अपने लिए मार्ग का निर्धारण करना हा गा। हाथ पर हाथ धरे बैठे रहन से कुछ होने का नहीं। नौकरी के लिए भटकने की अपेक्षा अपनी रुचि उद्या गा क प्रति जाग्रत करनी होगी, तभी इसका कोई स्थायी समाधान हो सकेगा, अन्यथा नहीं।

                                लोहड़ी




      मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व उत्तर भारत विशेषतः पंजाब में लोहड़ी का त्यौहार मनाया जाता है। किसी न किसी नाम से मकर संक्रांति के दिन या उससे आस-पास भारत के विभिन्न प्रदेशों में कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है। मकर संक्रांति के दिन तमिल हिंदू पोंगल का त्यौहार मनाते हैं। इस प्रकार लगभग पूर्ण भारत में यह विविध रूपों में मनाया जाता है।

मकर संक्रांति की पूर्व संध्या को  पंजाब, हरियाणा व पड़ोसी राज्यों में बड़ी धूम-धाम से 'लोहड़ी '  का त्यौहार मनाया जाता है।  पंजाबियों  के लिए लोहड़ी खास महत्व रखती है।  लोहड़ी से कुछ दिन पहले से ही  छोटे बच्चे  लोहड़ी के गीत गाकर लोहड़ी हेतु लकड़ियां, मेवे, रेवड़ियां, मूंगफली  इकट्ठा करने लग जाते हैं।  लोहड़ी की संध्या को आग जलाई जाती है। लोग अग्नि के चारो ओर चक्कर काटते हुए नाचते-गाते हैं व आग मे रेवड़ी, मूंगफली, खील, मक्की के दानों की आहुति देते हैं। आग के चारो ओर बैठकर लोग आग सेंकते हैं व रेवड़ी,  खील, गज्जक, मक्का खाने का आनंद लेते हैं। जिस घर में नई शादी हुई हो या बच्चा हुआ हो उन्हें विशेष तौर पर बधाई दी जाती है।  प्राय:  घर मे नव वधू या और बच्चे  की पहली लोहड़ी बहुत विशेष होती है। 

लोहड़ी को पहले तिलोड़ी कहा जाता था। यह शब्द तिल तथा रोड़ी (गुड़ की रोड़ी) शब्दों के मेल से बना है, जो समय के साथ बदल कर लोहड़ी के रुप में प्रसिद्ध हो गया।

ऐतिहासिक संदर्भ -  किसी समय में सुंदरी एवं मुंदरी नाम की दो अनाथ लड़कियां थीं जिनको उनका चाचा विधिवत शादी न करके एक राजा को भेंट कर देना चाहता था। उसी समय में दुल्ला भट्टी नाम का एक नामी डाकू हुआ है। उसने दोनों लड़कियों,  'सुंदरी एवं मुंदरी' को जालिमों से छुड़ा कर उन की शादियां कीं। इस मुसीबत की घडी में दुल्ला भट्टी ने लड़कियों की मदद की और लडके वालों को मना कर एक जंगल में आग जला कर सुंदरी और मुंदरी का विवाह करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहते हैं दुल्ले ने शगुन के रूप में उनको शक्कर दी थी।

जल्दी-जल्दी में शादी की धूमधाम का इंतजाम भी न हो सका सो दुल्ले ने उन लड़कियों की झोली में एक सेर शक्कर डालकर ही उनको विदा कर दिया। भावार्थ यह है कि डाकू हो कर भी  दुल्ला भट्टी ने निर्धन लड़कियों के लिए पिता की भूमिका निभाई।

यह भी कहा जाता है कि संत कबीर की पत्नी लोई की याद में यह पर्व मनाया जाता है. इसीलिए इसे लोई भी कहा जाता है।

ऐसा टोटका जो भूत-पिशाच की समस्या सुलझाएगा

घर के किसी बीमार व्यक्ति, जिसकी जल्द ही मौत होने वाली हो, के ऊपर से सुई लगा नींबू वार कर चौराहे पर रख देना और सामने खड़े होकर यह प्रतीक्षा करना कि शायद कोई व्यक्ति उस नींबू को लांघ जाएगा. अगर आपकी नजरों के सामने कोई ऐसा कर लेता है तो आपको यह आश्वासन हो जाता है कि जिस व्यक्ति की लंबी उम्र की कामना किए आपने यह सब किया है, उसकी बीमारी उसे लग जाएगी जिसने नींबू को लांघा है और आपका परिजन पूरी तरह ठीक हो जाएगा.

यह एक ऐसा टोटका है, जिसे अधिकांशत: प्रयोग में लाया जाता है. लोगों का मानना है कि ऐसा करने से एक व्यक्ति के कष्ट दूसरे व्यक्ति तक बड़ी आसानी से पहुंचाए जा सकते हैं. मानवीय दृष्टिकोण से तो यह सही नहीं है लेकिन जो अपने लोगों की जान बचाना चाहता है, उन्हें खुश देखना चाहता है उसे मजबूरन ऐसा करना पड़ता है. हम आपको बताते हैं कि नींबू का टोटका कब और क्यों प्रयोग में लाया जाता है.


व्यापार में होने वाले नुकसान से बचने के लिए: प्राय: ऐसा माना जाता है कि अगर कोई व्यक्ति व्यापार में लगातार हानि का ही सामना कर रहा है या किसी के घरेलू हालात खराब हैं तो अगर वह अपने ऊपर से सुई लगा नींबू वार कर चौराहे पर रख दे या घर के बाहर नींबू मिर्ची लटका दे तो उसके हालात सुधर सकते हैं. इसीलिए आपने कई बार चौराहों पर सुई से जुदा नींबू और घरों या दुकानों के बाहर नींबू-मिर्ची लटकी जरूर देखी होगी.

बीमारी से बचने के लिए: बहुत से लोग इस बात पर विश्वास करते हैं कि अगर सुई लगा नींबू किसी बीमार के सिर पर से 7 बार वार कर चौराहे पर रख दिया जाए और अगर उस नींबू को पार कर कोई चला जाए तो उस बीमार व्यक्ति की सारी बीमारी उस व्यक्ति को लग जाती है.




भूत बाधा को दूर करने के लिए: भारत अंधविश्वासों में यकीन करने वाला देश है. यहां कदम-कदम पर भूत-प्रेत-पिशाचों से जुड़ी कहानियां सुनाई देती हैं. लोगों का मानना है कि अगर किसी व्यक्ति पर किसी बुरी आत्मा का साया है तो उसके ऊपर से नींबू वार कर चौराहे पर रख दें. अगर कोई व्यक्ति उसे लांघकर चला जाता है या किसी गाड़ी के नीचे वह नींबू कुचला जाता है तो वह आत्मा उस व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाती है.

धन प्राप्ति के टोटके: हनुमान जी की पूजा करने वाले भक्तों को हर परेशानी से बजरंगबली बचाते हैं. बजरंगबली को लेकर कई टोटके भी हैं. कहा जाता है कि इन टोटक़ों को ‍विशेष रूप से धन प्राप्ति के लिए किया जा सकता है. इतना ही नहीं ये टोटके हर प्रकार का अनिष्ट भी दूर करते हैं.

पीपल के वृक्ष की जड़ में तेल का दीपक जला दें. फिर वापस घर आ जाएं और पीछे मुड़कर न देखें. इससे आपको धन लाभ के साथ ही हर बिगड़ा काम बन जाएगा.


ये छ: करिश्माई अक्षर आपके भाग्य को बदल सकते हैं

दरिद्रता या धन की कमी इंसान के गुण, रूप व शक्ति को लील जाती है। यही वजह है कि हर इंसान जरूरतों की पूर्ति व अभावों से बचने के लिए ज्यादा से ज्यादा धन बटोरने की कोशिश करता है। धार्मिक उपायों के जरिए ऐसी ही कोशिशों में भगवान गणेश की पूजा, बुद्धि, ज्ञान व बल द्वारा सुख-समृद्धि देने वाली मानी जाती है।


सुख-वैभव की कामनापूर्ति के लिए शास्त्रों में गणेश उत्सव के दौरान (चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक) कुछ विशेष मंत्रों से भगवान गणेश का ध्यान बहुत मंगलकारी बताया गया है। इनमें षडाक्षरी गणेश मंत्र अर्थ, यानी धन व सुख-सुविधाओं के साथ धर्म, काम व मोक्ष देने वाला भी माना गया है।

मान्यता है कि यह सिद्ध मंत्र ब्रह्मदेव ने सृष्टि रचना के लिए प्रकट हुई चतुर्थी स्वरूपा देवी को श्रीगणेश की भक्ति के लिए दिया था। जानिए यह मंत्र विशेष व पूजा उपाय  श्रीगणेश की केसरिया चंदन, अक्षत, दूर्वा, सिंदूर से पूजा व गुड़ के लड्डुओं का भोग लगाने के बाद इस गणेश मंत्र का स्मरण करें या पूर्व दिशा की ओर मुख कर पीले आसन पर बैठ करें।

अगली स्लाइड पर जानिए कौन सा है षडाक्षरी मंत्र व इसे कैसे और कितनी बार स्मरण करें -
षडाक्षरी मंत्र स्मरण हल्दी या चन्दन की माला से कम से कम 108 बार जप करें। मंत्र जप के बाद भगवान गणेश की चंदन धूप व गोघृत आरती कर वैभव व यश की कामना करें। यह सरल मंत्र है -
वक्रतुण्डाय हुम्।।

काला जादू से ज्यादा शैतानी है यह धर्म !!

अभी तक आपने ऐसे नए धर्म के बारे में सुना होगा जिसके अनुसार व्यक्ति अपनी आत्मा के बल पर अपने सभी  बुरे अनुभवों से पीछा छुड़ा सकता है। इसे साइंटोलॉजी नाम से जाना जाता है और इस नए धर्म से हॉलीवुड के ख्‍यात हीरो टॉम क्रूज को भी जुड़ा बताया जाता रहा है, लेकिन अब नया धर्म सामने आ गया है जिसे ‘शैतानी सेक्सी धर्म’ कहा जाता है।इसके संस्थापक एलिस्टर क्राउली ने खुद को विश्व का सबसे बुरा आदमी घोषित किया था। 1875 में पैदा हुए क्राउली ने खुद को ‘द ग्रेट बीस्ट, 666′ की शैली में ढाला था। यह एक ऐसा धर्म था जिसे मानने वाले गोपनीय तरीके से रहते हैं और इसके बारे में भी बहुत कम ही जाना जाता है

पर अब इस धर्म की सबसे ग्लैमरस और चर्चित प्रचारक पीचेस गेडोफ हैं, जो कहती हैं कि उनका विलीफ सिस्टम दिन-प्रतिदिन के जीवन में भी प्रयोग किया जाता है और इससे व्यक्ति को बहुत शांति मिलती है। लेकिन पीचेस गेडोफ ने जब अपनी धार्मिक मान्यताओं के बारे में ट्‍विटर पर अपने एक लाख 48 हजार सहयोगियों को बताया तो दुनिया को एक ऐसे धर्म की जानकारी मिली जो शैतानों की जीवनशैली लगती है।  चौबीस वर्षीय पीचेस ओटीओ (ओर्डो टेम्पली ओरिएंटिस) की भक्त हैं। ओटीओ उन्होंने अपनी बाईं बांह पर गुदवा भी लिया है। हालांकि उनके लिए धर्म जैसी किसी बात का पालन करना फैशन से ज्यादा नहीं है। पीचेस एक समय साइंटोलॉजिस्ट थीं, बाद में इसे छोड़कर वे यहूदी धर्म मानने लगीं, लेकिन हाल में उन्होंने इस नए धर्म को न केवल मानने की ठानी वरन इसका वे प्रचार-प्रसार भी करती हैं। अब एक निगाह ओटीओ और इसके संस्थापक एलिस्टर क्राउली के में जानें। वे इस धर्म के संस्थापक पैगम्बर थे। वे 1875 में एक सम्पन्न ब्रिटिश परिवार में पैदा हुए थे, पर उन्होंने खुद को ‘द ग्रेट बीस्ट 666′ का दर्जा दिया था। वह जादू-टोनों और गूढ़ विद्याओं को मानने वाला था। 1947 में मौत से पहले उसे इस बात का गर्व था कि वह ‘‍दुनिया का सबसे दुष्कर्मी प्राणी’ है।पीचेस एक समय साइंटोलॉजिस्ट थीं, बाद में इसे छोड़कर वे यहूदी धर्म मानने लगीं, लेकिन हाल में उन्होंने इस नए धर्म को न केवल मानने की ठानी वरन इसका वे प्रचार-प्रसार भी करती हैं।

 


हॉलीवुड की एक और हस्ती जे जेड के बारे में भी ऐसा ही कहा जाता है। रैपर जे जेड के बारे में कहा जाता है कि वे क्राउली की किताबों से संग्रहित बातों को फैलाने में यकीन रखते हैं। प्रसिद्ध गायिका रिहाना के बारे में भी कहा जाता है कि उनके कुछ वीडियोज में इनका असर दिखता है। पीजेस से जब उनके एक टि्वटर अनुयायी ने पूछा कि वह थेल्मा (क्राऊली की शिक्षाओं) के बारे में कै‍से जान सकती हैं, पीचेस ने कहा उनकी किताबें पढ़ो जो सुपर इंट्रेस्टिंग हैं।कुछ लोग इसको कारोबारी अवसरवाद भी कहते हैं क्योंकि उनका मानना है कि इस तरह की किताबें और क्रियाकलाप युवा लोगों को बहुत जल्दी प्रभावित कर सकते हैं। लेकिन इसके मानने वाले युवा नहीं वरन ऐसे लोग हैं जो क्राउली की किताबों में बताए गए धार्मिक क्रियाओं, तंत्र-मंत्र को आजमाते हैं। ब्रिटेन में ओटीओ के प्रमुख जॉन बोनर (62) का कहना है कि हम मास अपील वाले संगठन नहीं हैं। ब्रिटेन में हमसे सैकड़ों लोग जुड़े हैं और सारी दुनिया में हमारे मानने वालों की संख्‍या हजारों में हो सकती है। ईस्ट ससेक्स में रहने वाले बोनर का कहना है कि एक तरीके से आप हमें सेक्स धर्म वाले भी कह सकते हैं क्योंकि हम इसे मानते, स्वीकार करते हैं और पूजते हैं।



वो तो बस चाहता था कि उसका बेटा ठीक हो जाए…



क्या सच में उसमें शक्तियां थीं? क्या सच में वो एक जादूगर था जो इस दुनिया को तबाह कर देता और इसीलिए उन चुड़ैलों ने उसे मार डाला…? क्या उन्होंने  ऐसा कर के ठीक किया या यह उनकी सबसे बड़ी भूल थी? यह कहानी है एक ऐसे काले जादू की जिसने पूरे परिवार को ही निगल लिया… और ना जानें कितनी जानें लेना बाकी है अभी!

वो तो बस चाहता था कि उसका बेटा ठीक हो जाए…

भारत एक ऐसा देश है जहां कभी भी किसी भी समय कोई अजीबोगरीब व विचित्र घटना घट सकती है, जिसका आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते. भारत का इतिहास  साक्षी है कि भारत के कोने-कोने में अंधविश्वास व क्रूरता समाई है. आप विश्वास करें या ना करें, यहां के लोग आपको इस घेरे में डाल ही देते हैं. यहां आएदिन कोई ना कोई अंधविश्वासों की बलि चढ़ता रहता है और इसी बात का शिकार हुआ मध्य प्रदेश का रहने वाला बृजलाल चोपड़ा.

black magic

उसका बीमार बेटा ठीक नहीं हो रहा था और परिवार को ऐसा लगा कि जरूर बच्चे के ऊपर कोई काला साया मंडरा रहा है. वो उसे पास में मौजूद एक कबीले में ले गए जहां काले जादू से निजात पाया जा सकता है, लेकिन वहां जो हुआ उसे सुनकर भी रूंह कांप उठे.



वो चीखता-चिल्लाता रहा लेकिन जालिम हंसते रहे

कबीले की सरदार है पार्वती, जिसके साथियों ने ऐसा जाल बिछाया कि बृजलाल, उसकी पत्नी व उसका 10 साल का बेटा उससे बाहर ना निकल सके. बृजलाल अपने बेटे को लेकर अभी कबीले में गया ही था कि वहां मौजूद लोगों ने बृजलाल को ही एक जादूगर कह कर उसे घेर लिया. उनका कहना था कि बृजलाल एक बहुत बड़ा जादूगर है और इसका मरना इस संसार के लिए बहुत आवश्यक है.

scary

पार्वती ने अपने कबीले के लोगों को बृजलाल को मारने का आदेश दिया. उन्होंने बृजलाल को घेर लिया, उसके आस-पास नाचने लगे, किसी के हाथ में त्रिशूल था तो किसी के हाथ में तेज-तरार कुल्हाड़ी. उनमें से एक तेजी से ब्रिजलाल  की ओर बड़ा और उसने उसके हाथ काट दिए. बृजलाल चीखा, चिल्लाया, बार-बार कहता रहा कि मैं कोई जादूगर नहीं हूं, लेकिन उसकी आवाज उन सबके गाने व हंसने में दब सी गई. उन जालिमों ने बृजलाल को मिट्टी के तेल से भीगे हुए कपड़ों के चीथड़ों की मदद से जिंदा जला डाला और देखते ही देखते बृजलाल का शरीर राख में तब्दील हो गया.



क्यों की ऐसी हैवानियत?

बृजलाल को एक जादूगर कहने के बाद पार्वती ने अपने लोगों से यह कहा कि इसकी सारी शक्तियां इसके हाथों में है इसीलिए उन्होंने बिना कुछ सोचे समझे बृजलाल के दोनों हाथ काट डाले. इसके बाद ब्रिजलाल कभी भी किसी पर हावी ना हो सके और उसकी सारी शक्तियां भस्म हो जाएं, इसके लिए उन्होंने बृजलाल को जिंदा जला डाला.

Witches Burned Victim Alive In Front Of Family

यह सारा दृश्य ब्रजलाल के 10 साल के बेटे व उसकी पत्नी के सामने घटा. वे दोनों मदद की गुहार लगाते रहे, चिल्लाए, बृजलाल की जान की भीख मांगी लेकिन उन्होंने उनकी एक ना सुनी. इस सब हरकत को अंजाम देने कें बाद उन्होंने ब्रिजलाल की पत्नी सुष्मा व उसके बेटे को वहां से जाने की अनुमति दे दी लेकिन उन्हें एक चेतावनी दी कि अगर उन्होंने इस बारे में किसी से भी कुछ भी कहा तो अंजाम बहुत बुरा होगा.

नहीं बच पाया वो परिवार…

अपने पति की मौत और पूरे परिवार को खत्म सा होता देख सुष्मा रात भर पुलिस स्टेशन के चक्कर काटती रही. मां-बेटे ने पुलिस को एक-एक बात बताई कि किस तरह से उन चुड़ैलों ने बृजलाल को जिंदा भस्म कर डाला.

Witches Burned Victim Alive In Front Of Family

फिल्हाल चुड़ैलों के इस पूरे गुट को उनकी सरदार पार्वती समेत पुलिस द्वारा हिरासत में ले लिया गया है और कहा जा रहा है कि जल्द ही उन्हें सजा-ए-मौत सुनाई जा सकती है. कानून अब इस हादसे को किस तरह का मोड़ देता है यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन इस घटना ने एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या सच में दुनिया में काला जादू होता है और यदि होता है तो क्या इस वजह से हर रोज किसी निर्दोश को बलि पर चढ़ना होगा? सवाल तो अनेक हैं लेकिन शायद जवाब मिलना काफी मुश्किल है.



प्राचीन काल से लेकर अब तक भारतीय समाज तंत्र विद्या, काली शक्तियों और जादू-टोने जैसी विधाओं में बहुत विश्वास करता है. तर्क विज्ञान का समाज में अपनी पहुंच बना लेने के बावजूद आज भी कई ऐसे प्रश्न हैं जिनका जवाब ना तो विज्ञान के पास है और ना ही किसी तर्क-वितर्क के जरिए ऐसी घटनाओं की वजह समझी जा सकती है. जिस देश में हमेशा से ही तंत्र साधना का महत्व रहा हो वहां कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जो क्यों हुईं, कैसे हुईं, इनके पीछे वजह क्या है, यह सब सवाल मस्तिष्क में चोट तो करते हैं लेकिन इनका जवाब कभी कोई नहीं जान पाता. आज हम आपको ऐसे ही एक मंदिर के बारे में बताएंगे जहां तंत्र-साधना से जुड़े कई ऐसे रहस्य छिपे हैं जिनका जवाब आज तक कोई नहीं ढूंढ़ पाया है.

 

देश का पहला शून्य मंदिर जिसे गुरु मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, ऐसा ही एक स्थान है जहां कई वर्षों से तंत्र साधना की जाती रही है. आपको यकीन नहीं होगा लेकिन सच यही है कि इस मंदिर का निर्माण तक सिर्फ तंत्र साधना के ही उद्देश्य से करवाया गया था. तीन मंजिला इस मंदिर का हर दरवाजा, यहां तक कि इसकी आकृति भी अष्टकोणीय है. पुरातत्व वैज्ञानिक, इतिहासकार और यहां तक कि जादू-टोने में सिद्ध व्यक्ति भी यह जानने की कोशिश में हैं कि इस मंदिर में कौन-कौन सी तांत्रिक क्रियाएं होती थीं.

 

क्षेत्रीय जानकारों का कहना है कि इस मंदिर के हर तल पर अलग-अलग देवताओं के मंदिर हैं. प्रथम तल पर गुरु वरिष्ठ, दूसरे तल पर राधा और तीसरे तल पर किसी देवता की मूर्ति नहीं है इसीलिए इसे शून्य का प्रतीक माना जाता है.


इस मंदिर की खासियत यह है कि इसमें मौजूद आठ द्वारों में से मात्र एक गुरु का था और बाकी सात सप्तपुरियों (अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका और पुरी) के नाम पर रखे गए थे.


बंगाल के तत्कालीन महाराज जयनारायण घोषाल ने जब सन 1814 में इस मंदिर का निर्माण करवाया था तब यह चौरासी बीघा जमीन पर फैला था लेकिन अब इसका ढांचा टूटने लगा है. योग और तंत्र साधना करने के उद्देश्य से बनाए गए ऐसे मंदिर भारत में सिर्फ दो जगहों पर ही हैं. पहला यही मंदिर जो बंगाल के हतेश्वरी में स्थित है और दूसरा दक्षिण भारत के भदलपुर में है.

 

योग साधकों और तांत्रिकों का मानना है कि इस मंदिर के तीनों तलों पर स्थित मंदिरों में सबसे ज्यादा अहमियत शून्य मंदिर का है क्योंकि शून्य को प्राप्त कर लेना ही सबसे बड़ी तपस्या है. ब्रह्मांड शून्य है, पृथ्वी शून्य है. उनका कहना है कि शून्य की साधना अद्भुत है, इसका संबंध सीधे ईश्वर पर केन्द्रित है, इसीलिए शून्य को प्राप्त कर लेने वाला ही सबसे बड़ा साधक है. तंत्र साधना करने वालों का कहना है कि कोई भी साधना तभी पूरी मानी जाती है जब आपका कोई गुरु या मार्गदर्शक हो. पहले तल पर गुरु और तीसरे तल पर शून्य के होने का यही अर्थ है कि गुरु से होती हुई यह साधना शून्य पर जाकर खत्म होती है और शून्य को प्राप्त कर लेना साधना की चरम सीमा है. यह वो अवस्था है जब हर चीज अनंत होने लगती है. मंदिर के हर तल पर अष्टकोणीय सात ऐसे खाने बने हैं जहां बैठकर प्राचीन काल में लोग तांत्रिक क्रियाएं और योग साधनाएं किया करते थे. इस मंदिर के भीतर बंगला भाषा में गुरु के शब्द भी लिखे हैं और कुछ ऐसी आकृतियां भी बनी हुई हैं जिनके पीछे के रहस्य आज तक शोध का ही एक विषय बने हुए हैं. इनके पीछे छिपी हकीकत को समझा नहीं जा पा रहा है.

 






दोस्तों की भीड़ में दुश्मनों को पहचानना मुश्किल हो जाता है. आप नहीं समझ सकते कि कब कौन आपके पीठ पीछे वार कर आपको धोखा देकर चला जाए. दोस्ती और प्यार के नाम पर दगा देने वाले भी बहुत लोग होते हैं. आपकी कोई बात किसी को कितनी बुरी लग गई और इसका बदला लेने के लिए वो किस हद तक पहुंच जाएगा आप इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा सकते.

 


बगलामुखी, एक ऐसी तंत्र साधना है जिसके जरिए लोग वशीकरण, मारण, उच्चाटन आदि जैसी क्रियाओं को अंजाम देते हैं. अपने दुश्मन को हर तरह की हानि पहुंचाने के लिए लोग इस तंत्र साधना का प्रयोग करते हैं और तंत्र-मंत्र पर विश्वास करने वाले लोगों की मानें तो इससे बेहतर और कोई विकल्प हो भी नहीं सकता.

मरने के बाद वो उसकी लाश के साथ रहता था !!



तांत्रिक साधना करने वाले लोगों का कहना है कि मुकद्दमा जीतना हो या फिर किए गए टोने के असर को शिथिल करना हो तो बगलामुखी इसका रामबाण इलाज है. जानकारों की मानें तो बाहरी शत्रु इतना नुकसान नहीं पहुंचा सकते जितना आपके अपने साथी और संबंधी पहुंचा सकते हैं. अगर परिवार का कोई सदस्य अपने ही परिवार के सदस्य के साथ कुछ गलत कर रहा है तो भी बगलामुखी के द्वारा उस टोने के असर को पलटा जा सकता है.


कर्ण पिशाचिनी भविष्य नहीं देख सकती



बगलामुखी साधना के दौरान बरती जाने वाली सावधानियां:
1. बगलामुखी साधना के दौरान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना अत्याधिक आवश्यक है.
2. इस क्रम में स्त्री का स्पर्श, उसके साथ किसी भी प्रकार की चर्चा या सपने में भी उसका आना पूर्णत: निषेध है. अगर आप ऐसा करते हैं तो आपकी साधना खण्डित हो जाती है.
3. किसी डरपोक व्यक्ति या बच्चे के साथ यह साधना नहीं करनी चाहिए. बगलामुखी साधना के दौरान साधक को डराती भी है. साधना के समय विचित्र आवाजें और खौफनाक आभास भी हो सकते हैं इसीलिए जिन्हें काले अंधेरों और पारलौकिक ताकतों से डर लगता है, उन्हें यह साधना नहीं करनी चाहिए.
4. साधना से पहले आपको अपने गुरू का ध्यान जरूर करना चाहिए.
5. मंत्रों का जाप शुक्ल पक्ष में ही करें. बगलामुखी साधना के लिए नवरात्रि सबसे उपयुक्त है.
6. उत्तर की ओर देखते हुए ही साधना आरंभ करें.
7. मंत्र जाप करते समय अगर आपकी आवाज अपने आप तेज हो जाए तो चिंता ना करें.
8. जब तक आप साधना कर रहे हैं तब तक इस बात की चर्चा किसी से भी ना करें.
9. साधना करते समय अपने आसपास घी और तेल के दिये जलाएं.
10. साधना करते समय आपके वस्त्र और आसन पीले रंग का होना चाहिए.


 

शिव जगत पिता हैं
तथा इस संसार की संरचना में उनकी इच्छा को मूर्त रूप देने के लिए उनकी शक्ति ही प्रकृति का रूप धारण करती है। यह शक्ति ईश्वर की प्रतिछाया बनकर महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में इस सृष्टि के संचालन में प्रभु का सहयोग करती है। प्रकृति ईश्वर की माया शक्ति, जीवन शक्ति एवं नैसर्गिक गुण है। जिस प्रकार सूर्य एवं उसकी रोशनी, आग एवं उसकी प्रज्जवलन क्षमता को अलग नहीं किया जा सकता ​है उसी प्रकार प्रकृति को भी उस चैतन्य प्रभु की छवि के रूप में देखा जा सकता है।

प्रकृति शब्द का यदि संधि विच्छेद किया जाए तो प्र+कृति बनता है। प्र का अर्थ है सर्वोच्च, असाधारण एवं सर्वोत्कृष्ट एवं कृति का अर्थ है रचना। इस प्रकार प्रकृति ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है। इसे और अधिक गहराई से देखें तो प्र का अर्थ है सत्व, कृ का अर्थ है राजस एवं ति का अर्थ है तमस। अर्थात ईश्वर की वह सर्वोच्च कृति जो कि तीनों गुणों की अधिष्ठात्री एवं संचालिका है। मनुष्य को इस संसार के कालचक्र से यही शक्ति मुक्ति दिला सकती है इस शक्ति को वेदों मे महाविद्या की संज्ञा दी गई है।मनुष्य के मष्तिष्क, शरीर एवं अन्तर्मन पर इसी शक्ति का आधिपत्य है। अपने नित्य स्वरूप में यह भक्तों को कर्म फल से मुक्ति दिलाती है। संसार चक्र में घोर कष्ट पा रही जीवात्मा इसी देवी की आराधना करके सांसरिक बंधनों से मुक्ति पाकर उस परमपिता परमेश्वर की ओर अग्रसर हो सकती है।


यह शक्ति मनुष्य के अन्तर्मन मे स्थापित होकर उसकी बुद्धि, मेधा, घृती, स्मृति, लक्ष्मी, शोभा, श्रद्धा, क्षमा आदि सभी गुणों को नियंत्रित करती है।

यही देवी मनुष्य की 72 हजार नाड़ियों की स्वामिनी है। यही आध्याशक्ति विश्व के ज्ञान की प्रवर्तक एवं संचालिका है। परम पिता परमेश्वर से लेकर विश्व के कण-कण फर इसी शक्ति का आधिपत्य है। आधुनिक विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकारता है क्योंकि विज्ञान के अनुसार भी शक्ति के अभाव में वस्तु का कोई महत्व नहीं है। शक्ति विन्यास ही स्वयं वस्तु का स्वरूप निर्धारित करता है।

तंत्र-शास्त्र
तंत्र-शास्त्र में इसी शक्ति की आराधना की जाती है। तंत्र-शास्त्र से तात्पर्य उन गूढ़ साधनाओं से है जिनके द्वारा इस संसार को संचालित करने वाली विभिन्न दैवीय शक्तियों का आव्हान किया जाता है। तंत्र-शास्त्र में विभिन्न पूजा विधियों का इस प्रकार से प्रयोग किया जाता है जिससे वह साधक के मन, मष्तिष्क एवं व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन ला सकें। जिससे उसमें सद्गुणों का विकास हो एवं वह जीवन के परम पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की क्रमिक प्राप्ति कर सके।

तंत्र साधना के समय उच्चारित मंत्र, विभिन्न मुद्रायें एवं क्रियाएं अत्यंत व्यस्थित, नियमित एवं नियंत्रित तरीके से होती हैं। इसमें जरा सी भी चूक होने से परिणाम अत्यंत नकारात्मक हो सकते हैं अत: इस प्रक्रिया के समय साधक को अत्यंत सजग एवं सचेत रहने की आवश्यकता होती है।

किसी भी साधक के लिए तंत्र साधना को यंत्रवत करना असंभव है। इस प्रकार तंत्र साधना के द्वारा साधक में जागरूकता, सजगता, चेतना एवं नियमबद्दता आदि गुणों का विकास किया जाता है।

आधुनिक युग में कुछ लोगों ने तंत्र साधना का दुरुपयोग करके तंत्र साधना की विश्वसनीयता के बारे में सवाल खड़े कर दिए हैं। परंतु शास्त्रों में वर्णित तंत्र साधनाएँ इस प्रकार की साधनाओं से पूर्णतः भिन्न हैं। तंत्र में श्मशान, उजाड़ स्थान आदि को इसलिए चुना जाता है जिससे कि साधक का जीवन के अंतिम सत्य से साक्षात्कार हो सके तथा उसे ईश्वर की सार्वभौमिकता एवं जीवन की निरर्थकता का आभास हो।

इस प्रकार सच्चा तांत्रिक एक सात्विक व्यक्ति होता है एक योगी होता है जो कि ईश्वर के दैवी रूप की साधना करता है। तथा इस तंत्र साधना का उद्देश्य साधक मे सद्गुणों का विकास करना, उसे सांसारिक मोह माया से दूर करना एवं अध्यात्म की ओर अग्रसर करना है।

तंत्र मे ईष्ट का अर्थ ज्योतिष मे प्रयुक्त ईष्ट से भिन्न है। ज्योतिष मे ईष्ट का अर्थ सुकर्मों में वृद्धि एवं आशीर्वाद प्राप्त करना है। जबकि तंत्र में ईष्ट का अर्थ बुराई एवं कष्ट का अंत है। तंत्र शास्त्र की मान्यता है कि बुराई एवं कष्ट अविद्या का परिमाण है। तथा इस अविद्या, बुराई एवं कष्टों से मुक्ति शक्ति की आराधना से ही मिल सकती है।

शक्ति का शाब्दिक अर्थ है दैवीय शक्ति, उन्नति एवं बल। इस शक्ति को भगवती भी कहा जा सकता है जिसका अर्थ भी उन्नति, धन, बल एवं यश प्रदान करना है।
 शिवधनुष तोड़क राम के उपासक तुलसी ने शिव से लगवायी मानस पर मोहर : जो प्रेम में भी नकारा गया और भक्ति में भी दुत्‍कारा गया, उसकी बदतर हालत की कल्‍पना तो हर कोई कर सकता है। ऐसे लोगों को आम तौर पर तो लोग यह कह कर खारिज कर सकते हैं कि माया मिली ना राम। लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसा ही एक शख्‍स आखिरकार ऊंचाई के उस मुकाम तक पहुंच गया, जहां सोच पाने तक का साहस शायद कोई नहीं कर सकेगा। उसे राम का वह नाम मिल गया जहां उसके बिना कोई राम का नाम तक नहीं ले सकता है। चार शताब्‍दी बीत जाने के बावजूद उसका नाम राम के साथ ठीक वैसा ही जुड गया है, जैसा सीता या हनुमान का नाम। बिलकुल सही पहचाना आपने। हम शाहों के उस शाह का जिक्र कर रहे हैं जिसे आज पूरी दुनिया गोस्‍वामी तुलसीदास के नाम से जानती है।
विवाह के बाद पत्‍नी जब पहली बार अपने मायके गयी तो पत्‍नी-विरह से विह्वल तुलसीदास से रहा नहीं गया। वे अपने इसी प्रेम के चलते सांप की पूंछ पकड़ कर भले ही अपनी ससुराल पहुंच गये, लेकिन आखिरकार पत्‍नी ने ही उनकी इस हरकत पर दुत्‍कार लगा दी। झिड़कते हुए बोली कि मेरे बजाय अगर तुमने अपना ध्‍यान प्रभु राम पर लगाया होता तो जीवन ही सार्थक हो गया होता। चित्रकूट में तो चरित्र जाता दिखा, तो बेइज्‍जती और शर्म के मारे तुलसीदास सीधे भोलेनाथ की नगरी काशी पहुंच गये और राम की उपासना में लीन होना चाहा। लेकिन वहां शैव उपासकों ने उन्‍हें चैन से रहने ही नहीं दिया। जहां भी धूनी रमायी, उजाड़ दी गयी। ऐसा एक नहीं, अनेक बार हुआ। अब यह भले ही समझ से परे हो, लेकिन अयोध्‍या के बजाय तुलसीदास ने वाराणसी को क्‍यों चुना। शायद इसलिए कि वे इतने अपमान के बाद अपने जीवन का ध्‍येय अपमान मार्ग से ही हासिल करना चाहते रहे हों। बहरहाल, तुलसीदास पर इन अपमानों का आखिरकार कितना जबर्दस्‍त असर पड़ा होगा, यह उनकी इन लाइनों में देखा जा सकता है।
धूत कहो, अवधूत कहो,
राजपूत कहो, जुलहा कहो कोऊ।
काहू की बेटी से बेटा ना ब्‍याहब,
काहू की जात बिगार ना सोउ।
तनिक दिल पर हाथ रख कर सुनिये कि अपने बारे में तुलसीदास जी की एकमात्र यही उक्ति अब तक मिली है। कुछ भी हो, वेदों की नगरी काशी में तुलसी का हठ योग कुछ इस कदर हावी हुआ कि उन्‍होंने संस्‍कृत की बजाय रामचरित मानस को अवधी में लिखा। बस यहीं से उनके विरोध की नींव पड़ गयी। काशी में उनका जबर्दस्‍त विरोध हुआ। संस्‍कृत की नगरी काशी के पंडितों ने इसे बकवास करार दे दिया। उन विद्वानों ने ऐलानिया कहा कि इसे कोई भी स्‍वीकार नहीं करेगा। लेकिन इन चुनौतियों का सामना हर मोड़ पर तुलसी ने किया और अपने राम अभियान को और भी तेज लहकाते रहे। बनारस में ही इस असाधारण जीवट वाले साधु ने अपने लिये संकट मोचन तैयार किया और लंका भी। यानी अपनी सारी भक्तिगत सोच की जमीन वहीं अपने आसपास ही तैयार कर ली। ग्रंथ तो तैयार होने के पहले ही बकवास करार दिया जा चुका था। लेकिन तुलसी ने फिर अपने विरोध की अलख जगायी और यह साबित करने के लिए कि राम और शिव आदि भगवान एकात्‍म ही हैं, उन्‍होंने विश्‍वनाथ मंदिर में माथा टेका।
यह अजीब ही तो था कि रामचरित मानस में शिव-धनुष तोड़क राम की महिमा लिखने वाले तुलसी ने स्‍वयं के त्राण के लिए खुद शिव की चौखट पर न्‍याय की अर्जी बिलकुल निरपेक्ष भाव से लगायी और किंवदंतियों के अनुसार विश्‍वनाथ मंदिर की चौखट पर रामचरित मानस की प्रति रख दी। बताते हैं कि सुबह जब वे मंदिर पहुंचे तो देखा कि उनके ग्रंथ पर शिव की मोहर लग चुकी है। और अब यह कहने की जरूरत तो हर्गिज नहीं है कि भीषण अपमान और चरम उपेक्षा के दौर से शुरू हुए तुलसी के अपने अभियान की सफलता का अंदाजा आज घर-घर में पूरे सम्‍मान के साथ रखे जाने वाले रामचरित मानस के गुटका के तौर पर देखा जा सकता है। पिछले चार सौ बरसों से रामचरित मानस भारतीय जीवन का एक बड़ा जीवन-सिद्धांत ग्रंथ बन चुका है, जहां इंसान की हर समस्‍या का समाधान है, उसके लिए दिशा-निर्देश हैं और इतना ही नहीं, चमत्‍कारों पर यकीन रखने वालों के लिए जादुई वर्ग पहेली भी है।
दरअसल, सच तो यह है कि राम के प्रेम के साथ ही तुलसीदास जी ने भक्ति की एक ऐसी महान कहानी रच डाली जो इसके पहले कभी सोची ही नहीं गयी थी। उस कहानी का नाम है हनुमान चालीसा। हैरत की बात तो यह है कि एक ओर जहां रामचरित मानस मर्यादित जीवन जीने का एक सम्‍बल बन गया, वहीं हनुमान चालीसा ने भक्ति भाव की सारी सीमाएं ही तोड़ डालीं। इस चालीसा में वे भले ही राम की उपासना से अपनी बात शुरू करते हों, लेकिन दोहे की अगली पंक्ति में ही वे इस भक्ति का माध्‍यम पवनसुत यानी हनुमान की उपासना से कर बैठते हैं और फिर उसकी सारी लाइनें बजरंगबली को ही समर्पित हैं। कहने की जरूरत नहीं कि किसी भी साहित्‍य में यह अद़भुत संयोग लाख खोजने पर भी नहीं मिलेगा। हां, अब यह अलग बात है कि रामचरित मानस के गुटका को छापने का रिकार्ड बना चुके गीता प्रेस का भी दावा है कि रामचरित मानस अपने मूल में नहीं बचा है, उसमें अनेक दोहा और चौपाई बाद में भी जोड़ी गयी हैं।

शाहन के शाह : 
अपने पति के शव पर बिलखती नि:सन्‍तान रानी के वैधव्‍य से दुखी होकर गुरू को दया तो आ गयी लेकिन बाद में यही दया-भाव उस रानी के प्रति उनकी आसक्ति में बदल गया। जाहिर था कि गुरू ने गुरू-दायित्‍वों को गृहस्‍थ जीवन में तिरोहित कर दिया। गुरू को टोकने का साहस किसी में नहीं था, लेकिन वह चेला ही क्‍या, जो अनाचार को सहन कर जाए। भले ही वह अनाचार खुद उसके गुरू ही करने पर आमादा क्‍यों ना हों। बस फिर क्‍या था, चेले ने लगायी भभूत, उठाया त्रिशूल और लगा दिया हुंकारा :- उठ जाग मछन्‍दर गोरख आया। यह गाथा है उस सात्विकता की जिसकी रक्षा का संकल्‍प किया गोरक्षनाथ ने। बाद में गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध इस चेले ने अपने ही गुरू को उसके गुरूत्‍व का आभास कराने के लिए किसी भी सीमा तक जाने में तनिक भी संकोच नहीं किया। यही वजह रही कि गोरखनाथ संप्रदाय का एक बड़ा खेमा मुसलमानों का है जो पाकिस्‍तान के रावलपिण्‍डी में है।
मूल रूप से शिव के उपासक माने जाते हैं नाथ-सम्‍प्रदाय के लोग। मराठी संत ज्ञानेश्‍वर के अनुसार क्षीरसागर में पार्वती के कानों में शिव ने जो ज्ञान दिया, मछली के पेट में निवास कर रहे मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ के कानों तक पहुंच गया। और इसी के साथ ही मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ बाकायदा गुरू हो गये। अब रही चेले की बात। यह घटना अलग है। गोरखपीठ की मान्‍यता के अनुसार शिव ने ही एक बार धूनी रमाये औघड़ की शक्‍ल में एक नि:संतान महिला को भभूत देते हुए उसे मंगल का आशीष दिया। लेकिन दूसरी महिलाओं ने उस महिला को भरमा दिया कि इन औघड़ों के चक्‍कर में मत पड़ो। महिला ने उस भस्‍म को जमीन में गाड़ दिया। बात खुली तो जमीन खोदी गयी और निकल आये गोरक्षनाथ। इसके बाद से ही साथ हो गया मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ और गोरक्षनाथ का। इन दोनों ने काया, मन और आत्‍मा की सम्‍पूर्ण पवित्रता की जरूरत को समझा और अपने इस संकल्‍प को जन-जन तक पहुंचाने के लिए नगरों-गांवों की धूल छाननी शुरू कर दी। योग और ध्‍यान को इसके केंद्र में रखा गया।
गुरू-चेले का यह सम्‍बन्‍ध अविच्छिन्‍न रूप से चल ही रहा था कि अचानक एक राज्‍य की मैनाकिनी नाम की रानी का करूण रूदन मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ को विचलित कर गया। वह नि:संतान थी और अपने पति के शव पर विलाप कर रही थी। मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ को दया आ गयी। रानी की गोद भरने के लिए वे राजा के शव में प्रवेश कर गये। मैनाकिनी की गोद साल भर बाद लहलहा उठी। लेकिन कुछ ही दिनों बाद वे अपने कर्तव्‍यों को ही भूल गये। रास-लीलाओं ने उन्‍हें घेर लिया। राजमहल में पुरूषों का प्रवेश रोक दिया गया। केवल महिला कर्मचारी या नर्तकियां ही वहां जा सकती थीं। गोरक्षनाथ इस हालत से विचलित थे। गुरू को बचाना था और तरीका सूझ नहीं रहा था। बस एक दिन भभूत लगाया और त्रिशूल उठाकर संकल्‍प लिया गुरू को बचाने का। नर्तकियों के साथ उनके ही वेश में राजमहल में प्रवेश कर गये। रास-रंग और गायन-नर्तन शुरू हुआ।
स्‍त्री-वेश में अपनी अदायें दिखा रहे गोरखनाथ मृदंग भी बजा रहे थे। पूरा माहौल वाह-वाह से गूंज रहा था। कि अचानक राजा के शरीर में वास कर रहे मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ की आंखें फटी की फटी ही रह गयीं। गौर से सुना तो पाया कि एक नर्तकी के मृदंग से साफ आवाज आ रही थी कि जाग मछन्‍दर गोरख आया, चेत मछन्‍दर गोरख आया, चल मछन्‍दर गोरख आया। मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ बेहाल हो गये, सिर चकरा गया। गौर से देखा तो सामने चेला खड़ा है। गुरू शर्मसार हो गये। राजविलासिता छोड़कर चलने को तैयार तो हुए, लेकिन शर्त रखी कि मैनाकिनी के बेटे को नदी पर साफ कर आओ। गोरखनाथ को साफ लगा कि गुरू में मायामोह अभी छूटा नहीं है। उन्‍होंने राजकुमार को धोबी की तरह पाटा पर पीट-पीट कर छीपा और निचोडकर अलगनी पर टांग दिया। मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ नाराज हुए तो गोरखनाथ ने शर्त रख दी कि माया छोड़ों तो बेटे को जीवित कर दूं। मरता क्‍या ना करता। भोगविलास ने गुरू की ताकत खत्‍म कर दी थी। शर्त माननी ही पड़ी। यानी गुरू तो गुरू ही रहा मगर चेला शक्‍कर हो गया। बाद की सारी गाथाएं गोरखनाथ की शान में गढ़ी गयीं।
उधर आस्‍था से अलग तर्कशास्त्रियों के अनुसार ईसा की सातवीं से लेकर बारहवीं शताब्‍दी के बीच ही गोरखनाथ का आविर्भाव हुआ। चूंकि यह काल भारत के लिए काफी संक्रमण का था, इसलिए गोरखनाथ का योगदान देश को एकजुट करने के लिए याद किया जाता है। काया, मन और आत्‍मा की शुद्धि को समाजसेवा और फिर मोक्ष के लिए अनिवार्य साधन बताने का गोरखनाथ का तरीका जन सामान्‍य ने अपना लिया। गोरखनाथ का कहना था कि साधना के द्वारा ब्रहमरंध्र तक पहुंच जाने पर अनाहत नाद सुनाई देता है जो वास्‍तविक सार है। यहीं से ब्रह़मानुभूति होती है जिसे शब्‍दों से व्‍यक्‍त नहीं किया जा सकता। वे राम में रमने को एकमात्र मार्ग बताते हैं जिससे परमनिधान वा ब्रह्मपद प्राप्‍त होता है। गोरखनाथ ने असम से पेशावर, कश्‍मीर से नेपाल और महाराष्‍ट्र तक की यात्राएं कीं। उनकी बनायी गयीं 12 शाखाएं आज भी जीवित हैं जिनमें उडीसा में सत्‍यनाथ, कच्‍छ का धर्मनाथ, गंगासागर का कपिलानी, गोरखपुर का रामनाथ, अंबाला का ध्‍वजनाथ, झेलम का लक्ष्‍मणनाथ, पुष्‍कर का बैराग, जोधपुर का माननाथी, गुरूदासपुर का गंगानाथ, बोहर का पागलपंथ समुदाय के अलावा दिनाजपुर के आईपंथ की कमान विमलादेवी सम्‍भाले हैं, जबकि रावलपिंडी के रावल या नागनाथ पंथ में ज्‍यादातर मुसलमान योगी ही हैं।

महत्व

ये संस्कार भगवान् की अन्तरंग सेवा में मनुष्य के अधिकार एवं योग्यता सिद्ध करने के कारण बनते हैं। इसमें दूसरा कारण यह भी है कि तापादि पञ्चसंस्कार वेदविहित परमवैदिक संस्कार हैं और धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण तथा पाञ्चरात्रागमपद्धति से पूर्ण समर्थित है। जिस प्रकार अन्य सोलह संस्कार किसी भी कर्म के लिए हमें अधिकारी बनाते हैं, उसी प्रकार ये पञ्च संस्कार भी हमें भगवदाराधना में योग्यता प्रदान करते हैं। ये पञ्चसंस्कार भगवदाराधनाविरोधी पापों का नाश करके हमें पूर्णत: शुद्ध करके ऐकान्तिक भगवत्कैंकर्य में निष्ठा एवं अधिकार प्राप्त कराते है। ताप के द्वारा हमारे शरीर की शुद्धि और समस्त संचित कर्मों नाश होता है। तिलक से हमारे बुद्धि- मस्तिष्क की शुद्धि होती है, मन्त्र से हमारे अन्त:करण, आत्मा की शुद्धि तथा भगवन्नाम से हमें भागवत होने का अधिकार प्राप्त होने के पश्चात् हम यागरूपी भगवत्समाराधना के अधिकारी बन जाते हैं। ये पञ्चसंस्कार हमारी प्रपन्नता के परिचायक हैं और प्रतिफल हमें शरणागतिमार्ग से भटकने से बचाये रहते हैं क्योंकि यह भी विशेष ज्ञातव्य है कि यदि शरणागतिमार्ग में एक बार भी शरणागति का भाव हटा दो शरणागति भंग हो जाती है, अत: आचार्य द्वारा प्राप्त इन चिह्नों को हमेशा धारण करना चाहिए, जिससे कि हमारी शरणागति भंग न हो।
इस प्रकार प्रपत्ति स्वरूप का प्रकाशक है। जिसका चिन्ह धारण करता है, उसी का वस्तु वह माना जाता । जिस प्रकार सेना, पुलिस को राजचिन्ह, राजपोशाक धारण करने के पश्चात् राजकार्य करने का अधिकार प्राप्त होता है। उसी प्रकार यह संस्कार भी भगवद्धर्म अनुष्ठान करने के लिए अनिवार्य रूप से धारण करने के लिए शास्त्र आज्ञा प्रदान करते हैं।
लोक में भी पतिव्रता स्त्रियों के पातिव्रत्य धर्म के लिए चूड़ी, मंगलसूत्र, सिंदूररेखा आदि धारण करना आवश्यक होता है तो मन का भाव भी पति के लिए अव्यभिचारी, अनुकूल तथा शुद्ध होना चाहिए। उसी प्रकार परमेश्वर के विषय में बाह्मचिन्ह शंख चक्रादि धारण हैं। आन्तरिक चिन्ह विषय में वैराग्य के साथ भगवत्प्रेम है।
अन्तरंग संस्कारों में स्वीकृत पञ्च संस्कार ही श्रेष्ठ हैं। वैष्णवत्वसिद्धि में सर्वप्रथम कारण शंख-चक्र धारण, द्वितीय श्रीचूर्ण के साथ भगवान के चरण चिह्न ऊध्र्वपुण्ड्र का धारण, तृतीय भगवत्सम्बन्धी दासान्त नाम, चतुर्थ भगवत्स्वरूप एवं गुणों के प्रकाशक व्यापक मन्त्र का ग्रहण, पाँचवां है भगवत्समाराधन रूप याग संस्कार। ये संस्कार भगवान के अन्तरंग सेवा में मनुष्य का अधिकार एवं योग्यता सिद्ध करने के कारण बनते हैं। यह शास्त्र की आज्ञा हैं।
श्रीरामानुज सम्प्रदाय के श्रीवैष्णवों में पञ्चसंस्कार का महत्व सर्वविदित है क्योंकि सभी भक्त पञ्चसंस्कार संस्कृत रहते हैं। इसमें दूसरा कारण यह भी है कि तापादि पञ्चसंस्कार वेदविहित परमवैदिक संस्कार हैं और धर्मशास्त्र इतिहास, पुराण, तथा पाञ्चरात्रागम से पूर्ण समर्थित है।
सामान्य संस्कार के समान विशेष पञ्चसंस्कार भी संस्कार होने के कारण अन्य कार्य में योग्यता के साधक होते हैं। पञ्चसंस्कार भगवत् आराधना में योग्यता के साधक होते हैं। पञ्चसंस्कार भगवत् आराधना में योग्यता के विरोधी पापों को नाश करके ऐकान्तिक भगवत्कैंकर्य में निष्ठा एवं अधिकार प्राप्त कराते हैं। साथ ही देह और आत्मा के भी संस्कार होने से शरीर और आत्मा दोनों को पवित्र करते हैं। शरीर से वैदिक विधि से भगवान के शंख और चक्र आदि का धारण करने से यमराज का भी भय नहीं रहता। क्योंकि यमराज श्रीवैष्णवों के शासक नहीं हैं।

गुरु का महत्व

गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है –
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।
भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं –
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।
अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।
किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या है?  अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं। भौतिकवाद में भी गुरू  की आवश्यकता होती है।
सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।
तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।
मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त  क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेनाअज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं।
किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि
यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान,
शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।
गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।
गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।
सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।
आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन  को यही संदेश दिया था –
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच: ।। (गीता 18/66)
अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है। ऐसे परम गुरु को ही गुरु बनाना चाहिए। हमारे बैकुंठवासी श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी सुदर्शनाचार्य जी महाराज में परम गुरु के सभी  गुण मौजूद थे और वर्तमान पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुचार्य स्वामी पुरूषोत्तमाचार्य जी महाराज में भी वे सभी गुण प्रत्यत्क्ष दिखाई देते हैं।
नारायण                                                नारायण                                                            नारायण

तत्वदर्शी कौन ?



सत -असत को जो अपने अनुभव एवं आत्मबोध के स्तर पर यथार्थरूपसे जानता हो l वही वास्तव में तत्वदर्शी होता है l पोथी -पुरणोंको पढ़- पढ़ कर जिसने अपने  मस्तिष्क को बोझीला बना दिया हो , पोथी -पुराणोंकी जानकारी से अपना मस्तिष्क भर कर स्वयं को तत्वदर्शी घोषित करता हो तो निश्चित रूपसे जानना चाहिए वह व्यक्ति तत्वदर्शी नहीं है l 

  जो महापुरुष सत्य -असत्य का भेद अपने अनुभव के आधारपर बतावे वही अस्सल में तत्वदर्शी होते है l किस पुराण में क्या लिखा है ,इसकी चर्चा सच्चे तत्वदर्शी जादा करते ही नहीं है l पुरणोंका कचरा अपने मस्तिष्क में भरकर सत्य का दर्शन नहीं कराया जाता है l सत्य का बोध पुरणोंके , ग्रंथोंके आधारपर नहीं कराया जाता है ,वह तो आत्मज्ञानी गुरुओंकी करुणा कृपा से ही होता है l 
  हजारों पोथी -पुराण ,ग्रन्थ पढनेसे कोई तत्वदर्शी , तत्वज्ञानी नहीं होता है l पोथी -पुराण , ग्रन्थकी जानकारी अपने मस्तिष्कमें  भरनेवाला जादा से जादा पंडित बन सकता है , लेकिन वह कभी भी तत्वदर्शी बन नहीं सकता है l जरा सोचिये , कोई सच्चा संत पुराणोंकी अधूरी बात लोगोंको बताकर स्वयं को असली दूसरोंको नकली साबित करने में अपना जीवन बर्बाद करता है क्या ?
       नकली संत की पहचान केवल एक ही उदाहरण से समझे l 
अगर किसी  पुराण या ग्रन्थ में ऐसा लिखा हो कि अमुक - अमुक ने इतने दिन में सृष्टि बनाई l इस बात को सत्य मानकर स्वयं को तत्वदर्शी माननेवाला पुराण की जैसी की तैसी बात बताता हो तो वह निच्छित रूपसे अज्ञानी तथा नकली संत है ऐसा मानना चाहिए l क्योंकि असली संत यह सवाल खड़ा करता है कि -
  * जिस किसीने सृष्टि बनाई उसे देखा किसने ?
  * सृष्टि बनानेवालेने कहाँ बैठकर सृष्टि बनाई ?
  * सृष्टि बनानेवालेको देखा किसने ?
  * जिस किसीने सृष्टि बनानेवालेको देखा ,वह देखनेवाला 
          किस जगह  याने किस स्थान पर  बैठकर देखा ?
*   सृष्टि बनानेवाला  बड़ा  या सृष्टि को बनाते हुए देखनेवाला बड़ा  ?
*   वह कौन था जो सुष्टि के बनने के पहलेसे ही मौजूद था ?
       ग्रन्थ तथा पुराण की बात पढ़कर उपर्युक्त सवाल जिसके मन में उठते नहीं है  वह कैसा तत्वदर्शी है ? यही असली और नकली संत की पहचान है l 


गुरू एक किसान




पूर्व के सिद्ध संतोंने गुरू को भगवानसे भी बड़ा माना है , क्योंकि उस जमानेके गुरू होते थे ही ऐसे l उन गुरुओंके तुलनामें आज कल के गुरू कही भी बैठते नहीं है फिर भी स्वयं को भगवान जैसा पुजवाते है l जैसा एक किसान अपने खेत में बीज बोता है तो उसकी पूरी निगरानी रखता है ,ऐसा ही गुरुका काम होता है , जिस साधक के ह्रदय में दीक्षा के माध्यम से मंत्र रूपी बीज बोया है , उस बीज को साधक ठीक ढंग से सिंचाई कर रहा है या नहीं इसकी ओर बार बार देखने का काम गुरू का होता है , उसे अपनेसे से भी ऊँचा उठानेका काम गुरुका होता है लेकिन आज कल के गुरू साधक को जीवनभर अज्ञानी रखकर अपनी तिजोरी भरते रहते है l  दूसरी बात यह है कि आज के ज़माने के गुरू को डर यह होता है , मेरा चेला मेरी दुकान तो बंद नहीं कर देगा ,इसकारण आज के ज़माने के गुरू अपने गुरुत्व के प्रति उतने ईमानदार नहीं होते है , जहाँ - तहाँ  धोकाही ही धोका है l अत: सावधान होकर गुरुका चुनाव करना चाहिए l  

भगवान शिव को  जो लोग आकृतिमे देखते है ,वे शिव की अनंत कृपासे वंचित रह जाते है L भगवान शिव जैसा समतासे परिपूर्ण दूसरा कोई नहीं है L भगवान शिवजी का परिवार देखो , कितनी  अदभूत समता है , उनके परिवारमें L माँ पार्वती जी का वाहन शेर है ,शिवजी का वाहन वृषभ है , कार्तिके का वाहन मोर है  और गणेशजी का वाहन चूहा है L सब एक दूसरेसे  विपरित है , लेकिन समताका अजोड मिसाल है L समाज में फैली विषमता को दूर करना हो तो भगवान शिव जी के परिवार को देखना चाहिये L भगवान शिव जी का बाहरी स्वरुप विचित्रसा लगता है , लेकिन वे विरक्त और त्याग की मूर्ति है L श्मशान उनका निवास स्थान है , भस्म उनका अङ्गराग है ,  पिशाच उनके सहचर है , वे  मुण्डमालाको  धारण करनेवाले है L भगवान शिव जी का  यह उपरी स्वरुप विषयभोग त्याग की शिक्षा देनेवाला है L इतनाही नहीं वैराग्य क्या होता है इसके यह लक्षण है L ऐसे त्यागमूर्ति भगवान की उपासना वैराग्यवान ही कर सकता है L भगवान शिव जी का उपरी रंगरूप देखकर जो शिव जी को तमोगुणी कहते है उन्हें सच्चे शिव का पता ही नहीं है L 

        भगवान शिव जी के बारेमे कहा जाता है कि -
 शिव जी के त्रिनेत्र - त्रिकाल माने , भूत  ,भविष्य , वर्तमान के ज्ञान अर्थात              सर्वज्ञताके  प्रतिपादक है l
 शिव जी का त्रिशूल - आधिदैविक , आधिभौतिक , आध्यात्मिक तिन प्रकारके शूलोंसे बचानेवाला है l 
शिव जी का मुण्डमालाका धारण करना - मृत्यु को स्मरण करनेवाला है , जिससे संसारमे आसक्ति नहीं रहती l 
शिव जी का विषपान - विषयभोग ही वास्तव में विष है l जिन लोगोंका लक्ष्य विषय भोग ही है ,ऐसे विषयभोगीयोंको  त्याग और वैराग्यकी शिक्षा  देकर उन्हें विषयभोग रूपी विषसे छुड़ानेवाले है l  
   भगवान शिव जी समताध्यक्ष है l उनके मस्तिष्क पर गंगाजी और चन्द्रमा है ,जो शितलताका प्रतिक है l जिसका मस्तिष्क शितल हो , ठंडा हो , जिसके मस्तिष्क में अद्भुत शांति हो , वह सारे संसारको शितलता और शांति प्रदान करनेवाला होता है l शिवजी ने अपने  गलेमे जो नागराज को धारण किया है ,वह अहंकाररुपी नाग को अपने काबू में रखनेकी सीख देता है l शिव जी का उपरी आचरण हमें बहुत कुछ सीखता है l 
   शिव एक परम तत्व है , यह तत्व सर्वव्यापी है l भगवान शिव अनंत है , शिव केवल किसी शिवालयमे या कैलास पर ही नहीं रहते है वे हर एक के हृदय में नित्य विराजमान है l प्राचिन कालसे शिवजी की आराधना , उपासना शिवलिंग के माध्यमसे कि जाती है l शिवलिंगपर दूध , बिल्बपत्र  आदि चढ़ाये जाते है, यह सब तो ठीक है , लेकिन असली शिव आराधना विधि यह है कि अपने आन्तरात्माको को ही शिवस्वरूप मानकर नित्य आत्मशिव की आराधना करनी चाहिये ,यही असली शिव आराधना है l यह आराधना तुरंत फल देनेवाली है l  शिव परम कल्याणकारी है l धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष प्रदान करनेवाले है l 

     भगवान शिव  सच्छिदानन्दघन स्वरुप है l भगवान शिव किसी धर्म , सम्प्रदाय या जातिसे  बंधे हुए नहीं l  जो अज्ञानी मूढ़मतिके है ,वे ही लोग शिव जी को जन्म - मृत्यु को प्राप्त होनेवाले है ,  किसी धर्म विशेष  मानते है l भगवान शिव का किसी धर्म , सम्प्रदाय , जाती  से कोई लेना देना नहीं है, शिव  तत्व का जिन्हें अभ्यास नहीं है उन अज्ञानी को भगवान शिव  एक ही धर्म के लगते है  l शिव ही ब्रह्मा ,विष्णु है l  शिव इस सृष्टि के कणकण में व्याप्त है l शिव अनंत है , शिव कृपा अनंत है l उन्हें अपना परम इष्ट , परमगुरु के रूप में अराध्य l भगवान शिव तत्काल प्रसन्न होनेवाले है l भगवान शिव जी को सर्वशक्तिमान , सर्वसमर्थ , सर्वज्ञ , सर्वान्तरात्मा , सबके रक्षक-पोषक ,परम हितैषी , परम दयालु , परम कृपालु ,  परम  सुहृद जानकर उनकी आत्मभावसे आराधना करनेवालोंपर  वे शीघ्र कृपा करते है l आखिर भाव ही देव है l जिस भाव से उस परमपिता को हम ध्यायेंगे वैसी ही हमपर कृपा  करेंगे l  भगवान शिव  को जो श्रेष्ठ भावसे ध्याते है , शिव जी  श्रेष्ठ ही प्रदान करते है  l सदगुण ,सदाचार ,सत्कर्म ,सद्भावना , सबके लिये मंगल कामना इस पंचामृतसे  आत्मशिवका नित्य अभिषेक करना चाहिये और विश्व को शिव रूप में देखना ही असली बिल्बपत्र अर्पण करना है l   आओ महाशिवरात्रि के पावन पर्वपर आत्मशिव को प्रसन्न करनेका शिवसंकल्प करे l और अपना जीवन धन्य करे l 

                                ll   ॐ नम: शिवाय ll 

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  सच्चे गुरू  , सच्चा ज्ञान देते है , जो सच्चे होते है वे जगतगुरु नहीं होते है l वे केवल  भक्तोंका परम कल्याण करनेवाले निराभिमानी कल्याणदाता  गुरू ही होते है l 
          मुझे जो ज्ञान है ,या मेरे पास जो ज्ञान है दुनियामे किसी के पास भी  नहीं है , इस प्रकार का अहंकार का भूत उनके मस्तिष्क में नहीं होता  है  l सच्चे गुरू दूसरोंको नीचा दिखानेका घटिया काम नहीं करते है l शास्त्रकी बात भी वे  आदरभाव से बताते है  l    यह असली गुरू के लक्षण है l अभिमानी गुरू न जाने अपने आगे पीछे कितनी उपाधियाँ लगाएँगे इसका कोई पता नहीं  होता है l   नकली गुरू दंभ , अभिमान , अहंकार के दलदल में फँसे हुए होते है l       दूसरोंको नीचा दिखानेका  काम वे निरंतर करते रहते है l अधिक शास्त्र पढ़नेवाले सच्चे गुरू या संत नहीं होते है l  भीतरी स्वाद जिन्हे नहीं मिला है वे तथाकथित गुरू निरंतर  शास्त्रकी  ही बात बताकर अपना कोरापन सिद्ध करते है  ऐसे जगतगुरु को  " कोरा  गुरू  " कहना चाहिये  l  शास्त्र की बाते बतानी नहीं चाहिए ऐसा नहीं है लेकिन जो शास्त्रपर ही निर्भर है उनके लिए यह बात है l   यह बात है तथाकथित   जगतगुरुयोंके लिए  l जो शास्त्र की  अधूरी बाते  बताकर लोगोंको  गुमराह करते है l
                                 
            असली गुरू अपने हृदय कि बात बताते है ,अपने भीतर के अनंत  ज्ञान भंडार  से ज्ञान के मोती चुनकर अपने भक्तोंको देते है l असली गुरू या संत पोथी - पुरणोंपर निर्भर नहीं होते है  क्योंकि उनकेपास शाश्वत ज्ञान होता है l संत कबीर , गुरुनानकदेव , संत तुकाराम महाराज जैसे अनेक संत -गुरुने जो ज्ञान दिया वह  ज्ञान,  सच्चा ज्ञान था  , न कि  पोथी पुराणोंका था   l  इन महापुरुषोंने  पोथी -  पुराणकी  बाते भक्तोंको बताकर उन्हें गुमराह नहीं किया l जो ज्ञान  पोथी पुराणोंसे परे है वह                                    
शाश्वत ज्ञान उन्होंने सच्चे हृदय से लोगोंको  बाँटा l असली गुरू जो ज्ञान देते है ,  वह ज्ञान असली ज्ञान होता है l असली और नकली गुरु में फर्क क्या है ?

         महाराष्ट्र के महान संत तुकाराम का ही उदाहरण  लीजिये -  वे परमात्मा का ठिकाना बताते हुए कहते है -
                       " काया ही पंढरी , आत्मा पांडुरंग "      
        यह देह पंढरी है और उसमे आत्मारूप से भगवान पांडुरंग याने परमात्मा विराजमान है l  संत कबीर जी भी यही बात कहते है  l
         इसका तात्पर्य यह है कि -" परमात्मा कही आकाश - पाताल में , या सतलोक  या अन्य किसी लोक में  या किसी विशिष्ट जगह विराजमान नहीं है वे सर्वव्यापक है , वे कहींसे आते नहीं है हमारे भीतर ही है  l "
        जो तथाकथित जगतगुरू यह कहते है कि परमात्मा सतलोक से चलकर आते है , ऐसे गुरू को अज्ञानी , ठगीगुरू कहना चाहिए l क्योंकि उनका ज्ञान आत्मज्ञान नहीं है , पोथी - पुराणोंका ज्ञान है l जो गुरू पुरा जीवनभर  पोथी पुराण ही भक्तोंको समझाते है , पुराणोंका ही तर्क देते  है तो निश्चित रूपसे वे  गुरू नकली  गुरू समझना चाहिए l
        पुराणोंकी पुरी बात न बताकर अधूरी  बात बड़ी चतुराईसे बतानेवाले  स्वयंको जगतगुरु बताते है l ऐसे अधूरे गुरू पर भरोसा करके अपनी ह्त्या नहीं कर लेनी चाहिए l सच्चे गुरू जो ज्ञान देते है वह ज्ञान सच्चा होता है l और सच्चा गुरू वह होता है परमात्माको सर्वव्याप्त , सर्वमय बताते है l किसी लोक में परमात्माका ठिकाना नहीं बताते है l जैसे कि संत कबीर जी कहते है -
                                 " कीड़ी में तूं नान्यो लाग्यो , हाथीमे में तूं मोटो क्यों ?
                         बण महावत ने माथो बेटो , हाकलणेवाळो  तूं को तूं l
                         ऐसो खेल रचो मेरे दाता जहाँ देखूँ वहाँ तूं  को तूं l  "
       परमात्मा के सर्वव्यापकता का यह बख़ान है l यहाँ संत कबीर जी किसी लोक या सतलोक का बख़ान नहीं करते है l लेकिन संत कबीर जी के बहुतसारे ठेकेदार परमात्माके बारे में मनघडण कहानियाँ बताते है l इस उदाहरण से भी सच्चे गुरू और उनके सच्चे ज्ञान का का परिचय मिलता है l 

कम खाने से दिमाग करता है तेज काम

एक नए अध्ययन से यह पता चला है कि कम खाने से दिमाग तेज होता है। इस शोध में स्मरण शक्ति और सीखने की प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण सीआरईबी-1 नाम के प्रोटीन पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया गया था। वैज्ञानिको ने चूहे पर प्रयोग करते वक्त यह पाया कि कैलोरी की मात्रा कम करने से सीखने की प्रक्रिया में तेजी आती है।
अगर तेज दिमाग के साथ याद्दाश्त भी अच्छी हो तो फिर क्या कहना! आप अपनी स्मरण शक्ति को मजबूत बनाना चाहते हैं तो रोजाना विटमिन बी लें। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में यह पाया है कि रोजाना विटमिन बी की खुराक इंसान को बुढ़ापे मे डिमेंशिया और अल्जाइमर से बचाती है। इस अध्ययन में 250 से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। इनमें 70 और उससे भी ज्यादा उम्र के वे लोग थे, जो कमजोर स्मरण शक्ति की समस्या से जूझ रहे थे। इन लोगों के भोजन में लगातार दो वर्षो तक अंकुरित अनाज, केला, बीन्स और रेड मीट आदि को प्रमुखता से शामिल किया गया।
विटमिन बी से भरपूर इन चीजों का सेवन करने वाले लोगों की याद्दाश्त में बहुत तेजी से सुधार हुआ। शोधकर्ताओं के अनुसार सप्लीमेंट की तुलना में विटमिन बी युक्त चीजों का सेवन ज्यादा फायदेमंद साबित होता है। इसलिए इन्हें भोजन में जरूर शामिल करना चाहिए।
दान सबसे बड़ा धर्म
हिन्दू धर्म के अनुसार दान धर्म से बड़ा ना तो कोई पूण्य है ना ही कोई धर्म। दान, भीख. जो भी बदले में कुछ भी पाने की आशा के बिना किसी ब्राह्मण, भिखारी, जरूरतमंद, गरीब लोगों को दिया जाता है उसे दान कहा जाता है. “दान-धर्मत परो धर्मो भत्नम नेहा विद्धते”।

दान के प्रकार
सात्विक दान – किसी भी देश में जिस समय पर जिन चीज़ो की कमी हैं उसे बिना किसी भी उम्मीद के जरूरतमंद लोगों को देना ही सात्विक दान है।

पद्म पुराण में, विष्णु फलक से कहते हैं - "दान के लिए तीन समय होते हैं - नित्या (दैनिक) किया गया दान, नैमित्तिक दान कुछ प्रयोजन के लिए किया गया दान, और काम्या दान किसा इच्छा के पूरी होने के लिए किया गया दान। इसके अलावा चौथी बार दान प्रायिक दान होता है जो मृत्यु से संबंधित है।“
(1) नित्य दान – जो प्राणी नित्य सुबह उठ कर अपने नित्या कर्म में देवता के ही एक स्वरूप उगते सूरज को जल भी अर्पित कर दे उसे ढेर सारा पुण्य मिलता है। उस समय जो स्नान करता है , देवता और पितर की पूजा करता है, अपनी क्षमता के अनुसार अन्न, पानी, फल, फूल, कपड़े, पान, आभूषण, सोने का दान करता है, उसके फल असीम है। जो भी दोपहर में भोजन कि वस्तु दान करता है, वह भी बहुत से पुण्य इकट्ठा कर लेता है। इसलिए एक दिन के तीनों समय कुछ दान ज़रूर करना चाहिए। कोई भी दिन दान से मुक्त नही होना चाहिए। अगर कोई भी एक पखवाड़े या एक महीने के लिए कुछ भी भोजन दान नहीं करता है, तो मैं भी उसे उतने ही समय के लिए भूखा रखता हूँ। मैं उसे एक ऐसी बीमारी में डाल देता हूँ जिसमें कि वह कुछ भी आनंद नहीं ले सकते है। जो कुछ भी नहीं दान नही कर पाता है, उसे कई व्रत रखने चाहिए।
 (2) नैमित्तिक दान - नैमित्तिक दान के लिए कुछ विशेष  नैमित्तिक अवसर और समय होते हैं। अमावस्या, पूर्णिमा, एकादशी, संक्रांति, माघ, अषाढ़, वैशाख और कार्तिक पूर्णिमा, सोमवती अमावस्या, युग तिथि, गजच्छाया, अश्विन कृष्ण त्रयोदशी ; व्यतीपात और वैध्रिती नामक योग ,पिता की मृत्यु तिथि आदि को नैमित्तिक समय दान के लिए कहा जाता है। जो भी देवता के नाम से कुछ भी दान करता है उसे सारे सुख मिलते हैं।
(3) काम्या दान - जब एक दान व्रत और देवता के नाम पर कुछ इच्छा की पूर्ति के लिए किया जाता है, उसे दान के लिए काम्या समय कहा जाता है ।
अभ्युदायिक दान क्या है - अभ्युदायिक दान का समय सभी शुभ अवसरों, शादी के समय, एक नवजात शिशु के मंदिर में अभिषेक संस्कार के समय, अच्छी तरह से अपनी क्षमता के अनुसार दान किया जाता है उसे दान के लिए अभ्युदायिक समय कहा जाता है। इस दान को करने वाला सभी प्रकार की सिद्धि को प्राप्त करता है।मनुष्य को मरते समय शरीर को नश्वर जानकर दान करना चाहिए। इस दान से यम लोक रास्ते में आप सभी प्रकार की आराम को प्राप्त करते हैं।

जहां ब्राह्मण उपलब्ध नहीं हैं, वहां मूर्तियों में रहने वाले देवता को दान करना चाहिए।  मूर्तियों में रहने वाले देवता से दान का फल बहुत देर से मिलता है, तो मनुष्य को ब्राह्मण, जरूरतमंद, गरीब को दान करना चाहिए जिसका फल तुरन्त ही अवश्य मिलता है।
 
 
 

मनुष्य में सबसे बड़ा गुण है-देने का भाव। इसी का नाम दान है। दान प्रसन्न मन से दिया जाता है। दान देने से किसी को तृप्त करने के संस्कार रूपी बीज दानी की सूक्ष्म देह में समाविष्ट हो जाते हैं। पदार्थ में जब परमार्थ का भाव जुड़ जाता है तो वह वस्तु देने योग्य हो जाती है। वस्तु सत्य, भाव सत्य में बदल जाता है। दान का यह भाव महापुरुषों का एक प्रमुख गुण है। दान में आत्मा का अंश रच बस जाने से यह मानव धर्म और कल्याण का स्वरूप पा जाता है। दान अपने सुख को व्यापक बनाने का एक साधन है। अपने अकेलेपन से जूझने के लिए यह ज्योति स्तंभ है। दान हमें बड़ा बनाता है। यह दूसरों की आंखों के आंसू पोंछकर सब कुछ पाकर सब कुछ छोड़ने का प्रयास है। दान पर दुख कातरता का भाव है। जनक देह से विदेह की ओर चलना सिखाते हैं। हरिश्चंद्र और रघु की दानशीलता विश्व प्रसिद्ध है। जो देता है वह देवता है। देने का भाव जाग्रत होने पर पुण्य उदित होता है। भामाशाह, कर्ण, दधीचि और राजा भोज को कौन नहीं जानता। दान कल्पवृक्ष है।
किसी फल की इच्छा से किया गया दान सकाम दान है। किसी कामना या फल के बगैर दिया गया निष्काम दान सात्विक और सर्वश्रेष्ठ होता है। दान देने से धन नष्ट नहीं होता, बल्कि जीवन शुद्ध और श्रेष्ठ होता है। स्नेह, प्रेम, सेवा और प्रिय वचन से दान किया जाता है। कहा गया है कि दानी को दान देने में अहं नहीं पालना चाहिए, बल्कि उसे अपना परम सौभाग्य मानना चाहिए कि हमारा दान स्वीकार करने वाला कोई सुपात्र मिला तो। दाएं हाथ द्वारा दिया गया दान बाएं हाथ को नहीं बताना चाहिए। विक्त्रमादित्य ने वह दिया जो किसी ने नहीं दिया। अपने कोषाध्यक्ष को उन्होंने यह आदेश दे रखा था कि जब कोई गुणी मेरे आगे हो तो उससे एक सहस्न, वार्तालाप करें और दस सहस्न मुद्राएं दान में दी जानी चाहिए। सभी धर्मो में गुप्त दान की महिमा वर्णित है। दान मानवता को बचाता है। यह जीवन में सिद्धि और प्रसिद्धि प्रदान करता है।