शाहन के शाह : 
अपने पति के शव पर बिलखती नि:सन्‍तान रानी के वैधव्‍य से दुखी होकर गुरू को दया तो आ गयी लेकिन बाद में यही दया-भाव उस रानी के प्रति उनकी आसक्ति में बदल गया। जाहिर था कि गुरू ने गुरू-दायित्‍वों को गृहस्‍थ जीवन में तिरोहित कर दिया। गुरू को टोकने का साहस किसी में नहीं था, लेकिन वह चेला ही क्‍या, जो अनाचार को सहन कर जाए। भले ही वह अनाचार खुद उसके गुरू ही करने पर आमादा क्‍यों ना हों। बस फिर क्‍या था, चेले ने लगायी भभूत, उठाया त्रिशूल और लगा दिया हुंकारा :- उठ जाग मछन्‍दर गोरख आया। यह गाथा है उस सात्विकता की जिसकी रक्षा का संकल्‍प किया गोरक्षनाथ ने। बाद में गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध इस चेले ने अपने ही गुरू को उसके गुरूत्‍व का आभास कराने के लिए किसी भी सीमा तक जाने में तनिक भी संकोच नहीं किया। यही वजह रही कि गोरखनाथ संप्रदाय का एक बड़ा खेमा मुसलमानों का है जो पाकिस्‍तान के रावलपिण्‍डी में है।
मूल रूप से शिव के उपासक माने जाते हैं नाथ-सम्‍प्रदाय के लोग। मराठी संत ज्ञानेश्‍वर के अनुसार क्षीरसागर में पार्वती के कानों में शिव ने जो ज्ञान दिया, मछली के पेट में निवास कर रहे मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ के कानों तक पहुंच गया। और इसी के साथ ही मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ बाकायदा गुरू हो गये। अब रही चेले की बात। यह घटना अलग है। गोरखपीठ की मान्‍यता के अनुसार शिव ने ही एक बार धूनी रमाये औघड़ की शक्‍ल में एक नि:संतान महिला को भभूत देते हुए उसे मंगल का आशीष दिया। लेकिन दूसरी महिलाओं ने उस महिला को भरमा दिया कि इन औघड़ों के चक्‍कर में मत पड़ो। महिला ने उस भस्‍म को जमीन में गाड़ दिया। बात खुली तो जमीन खोदी गयी और निकल आये गोरक्षनाथ। इसके बाद से ही साथ हो गया मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ और गोरक्षनाथ का। इन दोनों ने काया, मन और आत्‍मा की सम्‍पूर्ण पवित्रता की जरूरत को समझा और अपने इस संकल्‍प को जन-जन तक पहुंचाने के लिए नगरों-गांवों की धूल छाननी शुरू कर दी। योग और ध्‍यान को इसके केंद्र में रखा गया।
गुरू-चेले का यह सम्‍बन्‍ध अविच्छिन्‍न रूप से चल ही रहा था कि अचानक एक राज्‍य की मैनाकिनी नाम की रानी का करूण रूदन मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ को विचलित कर गया। वह नि:संतान थी और अपने पति के शव पर विलाप कर रही थी। मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ को दया आ गयी। रानी की गोद भरने के लिए वे राजा के शव में प्रवेश कर गये। मैनाकिनी की गोद साल भर बाद लहलहा उठी। लेकिन कुछ ही दिनों बाद वे अपने कर्तव्‍यों को ही भूल गये। रास-लीलाओं ने उन्‍हें घेर लिया। राजमहल में पुरूषों का प्रवेश रोक दिया गया। केवल महिला कर्मचारी या नर्तकियां ही वहां जा सकती थीं। गोरक्षनाथ इस हालत से विचलित थे। गुरू को बचाना था और तरीका सूझ नहीं रहा था। बस एक दिन भभूत लगाया और त्रिशूल उठाकर संकल्‍प लिया गुरू को बचाने का। नर्तकियों के साथ उनके ही वेश में राजमहल में प्रवेश कर गये। रास-रंग और गायन-नर्तन शुरू हुआ।
स्‍त्री-वेश में अपनी अदायें दिखा रहे गोरखनाथ मृदंग भी बजा रहे थे। पूरा माहौल वाह-वाह से गूंज रहा था। कि अचानक राजा के शरीर में वास कर रहे मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ की आंखें फटी की फटी ही रह गयीं। गौर से सुना तो पाया कि एक नर्तकी के मृदंग से साफ आवाज आ रही थी कि जाग मछन्‍दर गोरख आया, चेत मछन्‍दर गोरख आया, चल मछन्‍दर गोरख आया। मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ बेहाल हो गये, सिर चकरा गया। गौर से देखा तो सामने चेला खड़ा है। गुरू शर्मसार हो गये। राजविलासिता छोड़कर चलने को तैयार तो हुए, लेकिन शर्त रखी कि मैनाकिनी के बेटे को नदी पर साफ कर आओ। गोरखनाथ को साफ लगा कि गुरू में मायामोह अभी छूटा नहीं है। उन्‍होंने राजकुमार को धोबी की तरह पाटा पर पीट-पीट कर छीपा और निचोडकर अलगनी पर टांग दिया। मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ नाराज हुए तो गोरखनाथ ने शर्त रख दी कि माया छोड़ों तो बेटे को जीवित कर दूं। मरता क्‍या ना करता। भोगविलास ने गुरू की ताकत खत्‍म कर दी थी। शर्त माननी ही पड़ी। यानी गुरू तो गुरू ही रहा मगर चेला शक्‍कर हो गया। बाद की सारी गाथाएं गोरखनाथ की शान में गढ़ी गयीं।
उधर आस्‍था से अलग तर्कशास्त्रियों के अनुसार ईसा की सातवीं से लेकर बारहवीं शताब्‍दी के बीच ही गोरखनाथ का आविर्भाव हुआ। चूंकि यह काल भारत के लिए काफी संक्रमण का था, इसलिए गोरखनाथ का योगदान देश को एकजुट करने के लिए याद किया जाता है। काया, मन और आत्‍मा की शुद्धि को समाजसेवा और फिर मोक्ष के लिए अनिवार्य साधन बताने का गोरखनाथ का तरीका जन सामान्‍य ने अपना लिया। गोरखनाथ का कहना था कि साधना के द्वारा ब्रहमरंध्र तक पहुंच जाने पर अनाहत नाद सुनाई देता है जो वास्‍तविक सार है। यहीं से ब्रह़मानुभूति होती है जिसे शब्‍दों से व्‍यक्‍त नहीं किया जा सकता। वे राम में रमने को एकमात्र मार्ग बताते हैं जिससे परमनिधान वा ब्रह्मपद प्राप्‍त होता है। गोरखनाथ ने असम से पेशावर, कश्‍मीर से नेपाल और महाराष्‍ट्र तक की यात्राएं कीं। उनकी बनायी गयीं 12 शाखाएं आज भी जीवित हैं जिनमें उडीसा में सत्‍यनाथ, कच्‍छ का धर्मनाथ, गंगासागर का कपिलानी, गोरखपुर का रामनाथ, अंबाला का ध्‍वजनाथ, झेलम का लक्ष्‍मणनाथ, पुष्‍कर का बैराग, जोधपुर का माननाथी, गुरूदासपुर का गंगानाथ, बोहर का पागलपंथ समुदाय के अलावा दिनाजपुर के आईपंथ की कमान विमलादेवी सम्‍भाले हैं, जबकि रावलपिंडी के रावल या नागनाथ पंथ में ज्‍यादातर मुसलमान योगी ही हैं।