मनुष्य में सबसे बड़ा गुण है-देने का भाव। इसी का नाम दान है। दान प्रसन्न मन से दिया जाता है। दान देने से किसी को तृप्त करने के संस्कार रूपी बीज दानी की सूक्ष्म देह में समाविष्ट हो जाते हैं। पदार्थ में जब परमार्थ का भाव जुड़ जाता है तो वह वस्तु देने योग्य हो जाती है। वस्तु सत्य, भाव सत्य में बदल जाता है। दान का यह भाव महापुरुषों का एक प्रमुख गुण है। दान में आत्मा का अंश रच बस जाने से यह मानव धर्म और कल्याण का स्वरूप पा जाता है। दान अपने सुख को व्यापक बनाने का एक साधन है। अपने अकेलेपन से जूझने के लिए यह ज्योति स्तंभ है। दान हमें बड़ा बनाता है। यह दूसरों की आंखों के आंसू पोंछकर सब कुछ पाकर सब कुछ छोड़ने का प्रयास है। दान पर दुख कातरता का भाव है। जनक देह से विदेह की ओर चलना सिखाते हैं। हरिश्चंद्र और रघु की दानशीलता विश्व प्रसिद्ध है। जो देता है वह देवता है। देने का भाव जाग्रत होने पर पुण्य उदित होता है। भामाशाह, कर्ण, दधीचि और राजा भोज को कौन नहीं जानता। दान कल्पवृक्ष है।
किसी फल की इच्छा से किया गया दान सकाम दान है। किसी कामना या फल के बगैर दिया गया निष्काम दान सात्विक और सर्वश्रेष्ठ होता है। दान देने से धन नष्ट नहीं होता, बल्कि जीवन शुद्ध और श्रेष्ठ होता है। स्नेह, प्रेम, सेवा और प्रिय वचन से दान किया जाता है। कहा गया है कि दानी को दान देने में अहं नहीं पालना चाहिए, बल्कि उसे अपना परम सौभाग्य मानना चाहिए कि हमारा दान स्वीकार करने वाला कोई सुपात्र मिला तो। दाएं हाथ द्वारा दिया गया दान बाएं हाथ को नहीं बताना चाहिए। विक्त्रमादित्य ने वह दिया जो किसी ने नहीं दिया। अपने कोषाध्यक्ष को उन्होंने यह आदेश दे रखा था कि जब कोई गुणी मेरे आगे हो तो उससे एक सहस्न, वार्तालाप करें और दस सहस्न मुद्राएं दान में दी जानी चाहिए। सभी धर्मो में गुप्त दान की महिमा वर्णित है। दान मानवता को बचाता है। यह जीवन में सिद्धि और प्रसिद्धि प्रदान करता है।