काशी विश्वनाथ मन्दिर


काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है


धारणा---

 हिन्दू धर्म में कहते हैं कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता। उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। यही नहीं, आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने का कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होने सारे की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी और इन्हीं की अर्चना से श्रीवशिष्ठजी तीनों लोकों में पुजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाये।

महिमा----

 सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है। भगवान भोलानाथ मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन से छुट जाता है, चाहे मृत-प्राण्ाी कोई भी क्यों न हो। मतस्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित एवंम दुखों परिपीड़ित जनों के लिये काशीपुरी ही एकमात्र गति है। विश्वेश्वर के आनंद-कानन में पांच मुख्य तीर्थ हैं:-

  • दशाश्वेमघ,
  • लोलार्ककुण्ड,
  • बिन्दुमाधव,
  • केशव और
  • मणिकर्णिका
और इनहीं से युक्त यह अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है

सात मंदिरों वाला तीर्थ स्थान


भारतीय संस्कृति के अनुसार हमारे समाज में अपने बड़े-बुजुर्गों,पूर्वजों, शहीदों और सतियों के जन्मदिन तथा यादगारें मनाने एवं पूजा आदि की प्रथा प्राचीनकाल से ही चली आ रही है क्योंकि यह हकीकत है कि जो लोग अपने पूर्वजों को भूल जाते हैं वे उन्नति की ओर नहीं, अवनति की ओर अग्रसर होते हैं।

इसी मान्यता के अंतर्गत कठुआ से लगभग 3 किलोमीटर दूर स्थित गांव चन्नग्रां में अखिल भारतीय महाजन मनाथ बिरादरी के कुलदेव स्थान माता सत्यावती मंदिर में हर वर्ष लगने वाला विशाल मेला इस वर्ष 28 नवम्बर को लग रहा है जिसमें देश के विभिन्न राज्यों से एक ही वंश के विभिन्न परिवारों के हजारों सदस्य यहां पहुंचते हैं। कुलदेव स्थान पर सिर निवाते हैं, पूजा-अर्चना करते हैं, सुख-शांति की कामना करते हैं तथा अपनी गलतियों के लिए क्षमा याचना करते हैं।

कुल की बेटियों के लिए यहां माथा टेकना वॢजत है जबकि विवाहित बेटे जब तक इस कुलदेव मंदिर के गिर्द वधू के साथ 4 फेरे नहीं ले लेते तब तक उनकी शादी पक्की नहीं मानी जाती। कई लोग अपने कुल के रीति-रिवाज जैसे कि पहली बार बेटे के बाल यहीं कटवाते हैं। यहां कुलदेव स्थान पर एक प्राचीन मंदिर है जहां माता सत्यावती के मोहरे पड़े हुए हैं। अब इस मंदिर को आधुनिक रूप दे दिया गया है तथा उन मोहरों के साथ ही माता सत्यावती की संगमरमर की मूर्तियां भी स्थापित करवा दी गई हैं।

इस कुल देवी स्थान के मंदिर  की बिरादरी में बड़ी मान्यता है। यहां मंदिर परिसर में माता सत्यावती के चरणों में एक बावली स्थित है जिसका पानी इतना पवित्र माना जाता है कि बिरादरी के लोग इसे बोतलों और कैनियों में भर कर अपने-अपने घरों को ले जाते हैं और वर्ष भर उसे चरणामृत की तरह प्रयोग करते हैं। यहां लोग मेले से एक दिन पूर्व ही पहुंच जाते हैं जिनके रहने,सोने और खाने का प्रबन्ध बिरादरी की मंदिर कमेटी करती है। अगले दिन भंडारे का आयोजन होता है जिसका प्रसाद सभी लोग ग्रहण करते हैं।

कुछ लोग इस प्रसाद को अपने घरों में भी परिवार के उन सदस्यों के लिए ले जाते हैं जो किसी कारणवश यहां नहीं आ पाते। इस बिरादरी की कमेटी ने यहां एक नि:शुल्क स्कूल खोल रखा है जिसमें अभी तक विद्यार्थियों से न तो दाखिला फीस ली जाती है और न ही मासिक फीस। यहां तक कि स्कूल बैग, यूनिफार्म, कापियां-किताबें, रबड़-ब्लेड और पैंसिल तक बिरादरी की ओर से स्कूल प्रबंधक कमेटी नि:शुल्क ही उपलब्ध करवाती है। स्टाफ का वेतन भी कमेटी ही देती है। पत्रकार मंगत राम महाजन इस स्कूल के चैयरमैन हैं।

अब बिरादरी के कुछ लोगों द्वारा अपने-अपने खर्चे पर वहां अनेक मंदिर बनाए गए हैं जिनमें माता सत्यावती मंदिर के अतिरिक्त श्री गणेश, दुर्गा माता और धर्मराज, बजरंग बली, राम दरबार, लक्ष्मी नारायण, सूर्यदेव, शिव भगवान, नाग देवता की मूर्तियां स्थापित की गई हैं। इस तरह से अब इस  कुलदेव स्थान में सात मंदिर हो गए हैं जिससे यह स्थान अब स्वत: ही एक तीर्थस्थान बन गया है।

राजा शिब

धर्म और संस्कृति की महानता को दर्शाने वाले राजा शिबि का दर्शन अद्वितीय और अतुलनीय है। एक पौराणिक कथा के अनुसार उशीनगर देश के राजा शिबि एक दिन अपनी राजसभा में बैठे थे। 

उसी समय एक कबूतर उड़ता हुआ आया और राजा की गोद में गिर कर उनके कपड़ों में छिपने लगा। कबूतर बहुत डरा जान पड़ता था। 

राजा ने उसके ऊपर प्रेम से हाथ फेरा और उसे पुचकारा। कबूतर से थोड़े पीछे ही एक बाज उड़ता आया और वह राजा के सामने बैठ गया। 

बाज बोला- मैं बहुत भूखा हूं। आप मेरा भोजन छीन कर मेरे प्राण क्यों लेते हैं? 

pigeon
राजा शिबि बोले- तुम्हारा काम तो किसी भी मांस से चल सकता है। तुम्हारे लिए यह कबूतर ही मारा जाए, इसकी क्या आवश्यकता है। तुम्हें कितना मांस चाहिए? 

बाज कहने लगा- महाराज! कबूतर मरे या दूसरा कोई प्राणी मरे, मांस तो किसी को मारने से ही मिलेगा। 

राजा ने विचार किया और बोले- मैं दूसरे किसी प्राणी को नहीं मारूंगा। अपना मांस ही मैं तुम्हें दूंगा। एक पलड़े में कबूतर को बैठाया गया और दूसरे पलड़े में महाराज अपने शरीर के एक-एक अंग रखते गए। आखिर में राजा खुद पलड़े में बैठ गए। 

बाज से बोले- तुम मेरी इस देह को खाकर अपनी भूख मिटा लो। 


महाराज जिस पलड़े पर थे, वह पलड़ा इस बार भारी होकर भूमि पर टिक गया था और कबूतर का पलड़ा ऊपर उठ गया था। लेकिन उसी समय सबने देखा कि बाज तो साक्षात देवराज इन्द्र के रूप में प्रकट हो गए है और कबूतर बने अग्नि देवता भी अपने मूल रूप में खड़े हैं। 

अग्नि देवता ने कहा- महाराज! आप इतने बड़े धर्मात्मा हैं कि आपकी बराबरी मैं तो क्या, विश्व में कोई भी नहीं कर सकता। 

इन्द्र ने महाराज का शरीर पहले के समान ठीक कर दिया और बोले- आपके धर्म की परीक्षा लेने के लिए हम लोगों ने यह बाज और कबूतर का रूप बनाया था। आपका यश सदा अमर रहेगा।

दोनों पक्षी बने देवता महाराज की प्रशंसा करके और उन्हें आशीर्वाद देकर अंतर्र्ध्यान हो गए। 

ऐसे कई सच्चे उदाहरण हमारे चारों ओर बिखरे पड़े हैं, जो हमारी संस्कृति और धर्म की महानता व व्यापकता दर्शाते हैं। हमारा दर्शन अद्वितीय और अतुलनीय है। स्वयं कष्ट उठा कर भी शरणागत और प्राणी मात्र की भलाई चाहने वाली संस्कृति और कहां मिलेगी। वहीं ऐसा राजा भी कहां मिलेगा, जो नाइंसाफी नहीं हो जाए, इसलिए स्वयं को ही भोजन हेतु समर्पित कर दें।

एक जिलहरी दो शिवलिंग


जबलपुर के रेवा के तट पर लम्हेरी ग्राम पंचायत में आने वाले एक ऐसे शिव मंदिर 'कुंभेश्वरनाथ' के रहस्य से आपको परिचित करा रहे है, जो समूचे विश्व में एकमात्र है। 

ऐसा शास्त्रों और पुराणों का भी मत है। एक जिलहरी में दो शिवलिंग होना अपने आप में बहुत अनोखा है। कुंभेश्वरनाथ में राम, लक्ष्मण से पहले हनुमान ने भगवान शिव की आराधना कर यहां पर प्रकृति का संवर्धन व संरक्षण किया था। 

नर्मदा-पुराण व शिव-पुराण के मतानुसार यह शिवलिंग स्वयं नर्मदा के अंदर से प्रकट हुआ था। 

नर्मदा पुराण के अनुसार कुंभेश्वरनाथ में पहले हनुमान ने तप किया था। मार्कन्डेय ऋषि ने पांडवों को कुंभेश्वरनाथ की कथा सुनाई थी। उन्होंने युधिष्ठिर को बताया था कि सीता माता के धरती में समा जाने के बाद राम अयोध्या में राज कर रहे थे। तब हनुमान को शिव दर्शन की लालसा जागृत हुई तो वे श्रीराम से कहकर कैलाश की ओर ‍चल दिए। 

कैलाश पहुंचने पर नंदीश्वर ने हनुमान को शिव दर्शन से रोक दिया, तब हनुमान ने पूछा कि - मेरा पाप क्या है, जो मैं शिव के दर्शन नहीं कर सकता। तब नंदीश्वर ने कहा कि तुमने रावण कुल का संहार किया है और रावण की अशोक वाटिका को भी उजाड़ा था। इससे तुम्हें प्रकृति को नष्ट करने का पाप लगा है।



रावण कुल ऋषि पुलत्स्य का कुल है और अत: तुम्हें ब्रह्म हत्या का पाप लगा है। अत: नर्मदा के कुंभेश्वर तीर्थ पर जाकर तप एवं प्रकृति का संवर्धन और संरक्षण कर अपने आपको पाप मुक्त करना होगा। तब हनुमान ने कुंभेश्वर तीर्थ में तप किया। 

जब ये सारी घटना उन्होंने प्रभु श्रीराम को बताई, तब उन्होंने कहा कि हम भी पाप के भागी है। अब हम भी कुंभेश्वर तीर्थ पर तप करेंगे। 

पूरे विश्व में एकमात्र शिवलिंग : वैसे तो सारे संसार में अनगिनत प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शिवलिंग स्थापित हैं, लेकिन कुंभेश्वरनाथ लम्हेटी तट रेवा खंड का एक ऐसा स्थान है, जो विश्व में एकमात्र है। ऐसा शास्त्रों का मत है। एक जिलहरी यानी जलाधारी में शिवलिंग का होना अपने आपमें अनोखा है। ये शिवलिंग रामेश्वरम्- लक्ष्मणेश्वरम् के नाम से जाना जाता है।

अदभुत धार्मिक स्थल - मेहंदीपुर के श्री बालाजी महाराज


गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा था जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब मेरी कोई शक्ति इस धरा धाम पर अवतार लेकर भक्तों के दु:ख दूर करती है और धर्म की स्थापना करती है। 
अंजनी कुमार श्री बाला जी घाटा मेहंदीपुरमें प्रादुर्भाव इसी उद्देश्य से हुआ है। घाटा मेहंदीपुरमें भगवान महावीर बजरंगबली का प्रादुर्भाव वास्तव में इस युग का चमत्कार है। राजस्थान राज्य के दो जिलों सवाईमाधोपुरव दौसामें विभक्त घाटा मेहंदीपुरस्थान बड़ी लाइन बांदी कुईस्टेशन से जो कि दिल्ली, जयपुर, अजमेर अहमदाबाद लाइन पर 24मील की दूरी पर स्थित है। अब तो हिण्डौनआगरा, कानपुर, मथुरा, वृंदावन,दिल्ली जयपुर, अजमेर अहमदाबाद लाइन पर 24मील की दूरी पर स्थित है। अब तो हिण्डौनआगरा, कानपुर, मथुरा, वृन्दावन, दिल्ली आदि से जयपुर जाने वाली सभी बसें बालाजीमोड़ पर रुकती है। यहां तीनों देवों की प्रधानताहै। श्री बालाजीमहाराज श्री प्रेतराजसरकार और श्री कोतवाल (भैरव) यह तीन देव यहां आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व प्रकट हुए थे। इनके प्रकट होने से लेकर अब तक बारह महंत इस स्थान पर सेवा पूजा कर चुके हैं जिनमें अब तक इस स्थान के दो महंत इस समय भी विद्यमान हैं। किसी शासक ने श्री बाला जी महाराज की मूर्ति को खोदने का प्रयत्‍‌न किया, सैकड़ों हाथ खोद देने के बाद भी जब मूर्ति के चरणों का अंत नहीं पाया तो वह हार मानकर चला गया। वास्तव में इस मूर्ति को अलग से किसी कलाकार ने गढ़कर नहीं बनाया है, अपितु यह तो पर्वत का ही अंग है।

यह समूचा पर्वत ही मानो उनका कनक मूधराकारशरीर है। इस मूर्ति के चरणों में एक छोटी सी कुडीथी जिसका जल कभी भी खत्म नहीं होता था, यह रहस्य है कि महाराज की बायीं छाती के नीचे एक बारीक जल धारा बहती रहती है, जो पर्याप्त चोला चढ़ जाने के बाद भी बन्द नहीं होती है। यहां की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि मूर्ति के अतिरिक्त किसी व्यक्ति विशेष का कोई चमत्कार नहीं है। यहां प्रमुख है सेवा और भक्ति।

जहां महदेव का जलाभिषेक करता है सागर

गुजरात में एक ऐसा मंदिर है, जहां समुद्र खुद महादेव का जलाभिषेक करने के लिए आता है.
गुजरात के भरुच जिले की सम्बूसर तहसील में एक गांव है कावी कम्बोई. समुद्र किनारे बसे इस गांव में स्तंभेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर है. भगवान शिव के इस मंदिर की खोज लगभग 150 साल पहले हुई. इस प्राचीन मंदिर की विशेषता इसका अरब सागर के मध्य कैम्बे तट पर स्थित होना है. 

मंदिर के शिव लिंग के दर्शन केवल 'लो टाइड' के दौरान ही होते हैं क्योंकि 'हाई टाइड' के वक्त यह समुद्र में विलीन हो जाता है. इस समुद्र तट पर दिन में दो बार ज्वार-भाटा आता है. जब भी ज्वार आता है तो समुद्र का पानी मंदिर के अंदर पहुंच जाता है. इस प्रकार दिन में दो बार शिवलिंग का जलाभिषेक कर वापस लौट जाता है.


  लोकमान्यता --
लोकमान्यता के अनुसार स्तंभेश्वर महादेव मंदिर में स्वयं शिवशंभु विराजते हैं इसलिए समुद्र देवता स्वयं उनका जलाभिषेक करते हैं.

ज्वार के समय शिवलिंग पूरी तरह से जलमग्न हो जाता है और यह परंपरा सदियों से सतत चली आ रही है. यहां स्थित शिवलिंग का आकार 4 फुट ऊंचा और दो फुट के घेरे वाला है. इस प्राचीन मंदिर के पीछे अरब सागर का सुंदर नजारा नजर आता है. 

यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए खासतौर से परचे बांटे जाते हैं जिसमें ज्वार-भाटा आने का समय लिखा होता है. ऐसा इसलिए किया जाता है जिससे यहां आने वाले श्रद्धालुओं को किसी भी प्रकार समस्या का सामना न करना पड़े.

मान्यता-- 

स्कंदपुराण के अनुसार शिव के पुत्र कार्तिकेय छह दिन की आयु में ही देवसेना के सेनापति नियुक्त कर दिये गये थे. इस समय ताड़कासुर नामक दानव ने देवताओं को अत्यंत आतंकित कर रखा था. देवता, ऋषि-मुनि और आमजन सभी उसके अत्याचार से परेशान थे. ऐसे में भगवान कार्तिकेय ने अपने बाहुबल से ताड़कासुर का वध कर दिया. उसके वध के बाद कार्तिकेय को पता चला कि ताड़कासुर भगवान शंकर का परम भक्त था. यह जानने के बाद कार्तिकेय काफी व्यथित हुए. फिर भगवान विष्णु ने कार्तिकेय से कहा कि वे वधस्थल पर शिवालय बनवाएं. इससे उनका मन शांत होगा. भगवान कार्तिकेय ने ऐसा ही किया. फिर सभी देवताओं ने मिलकर महिसागर संगम तीर्थ पर विश्वनंदक स्तंभ की स्थापना की. 

शिव के 12 ज्योतिर्लिंग

पुराणों के अनुसार शिवजी की आराधना से मनुष्य की सारी मनोकामना पूरी होती है। शिवलिंग पर मात्र जल चढ़ाने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। 12 ज्योतिर्लिंगों का दर्शन करने वाला प्राणी सबसे खुशनसीब है। 

शिवपुराण कथा में बारह ज्योतिर्लिंग के वर्णन की महिमा बताई गई है। ये 12 ज्योतिर्लमल्लिकार्जुनम्वैद्यनाथम्केदारनाथम्सोमनाथम्भीमशंकरम्नागेश्वरम्विश्वेश्वरम्त्र्यंम्बकेश्वर,रामेश्वरघृष्णेश्वरम्ममलेश्वर व महाकालेश्वरम है। इन सभी का दर्शन हर कोई नहीं कर सकता। सिर्फ किस्मत वाले लोग ही देश भर में स्थित इन ज्योतिर्लिंगों का दर्शन कर पाते हैं।

सोमनाथ 
यह शिवलिंग गुजरात के काठियावाड़ में स्थापित है। 

2. श्री शैल मल्लिकार्जुन 
मद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थातिप है श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग। 

3. महाकाल 
उज्जैन के अवंति नगर में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंगजहां शिवजी ने दैत्यों का नाश किया था। 

4. ओंकारेश्वर ममलेश्वर 
मध्यप्रदेश के धार्मिक स्थल ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर पर्वतराज विंध्य की कठोर तपस्या से खुश होकर वरदाने देने हुए यहां प्रकट हुए थे शिवजी। जहां ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित हो गया। 

5. नागेश्वर 
गुजरात के द्वारकाधाम के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग। 

6. बैजनाथ 
बिहार के बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग। 

7. भीमशंकर 
महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग। 

8. त्र्यंम्बकेश्वर 
नासिक (महाराष्ट्र) से 25 किलोमीटर दूर त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिंग। 

9. घुमेश्वर 
महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गांव में स्थापित घुमेश्वर ज्योतिर्लिंग। 

10. केदारनाथ 
हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग। हरिद्वार से 150 पर मिल दूरी पर स्थित है। 

11. विश्वनाथ 
बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग। 

12. रामेश्वरम्‌ 
त्रिचनापल्ली (मद्रास) समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग।

पंच प्रयाग

उत्तराखंड के पंच प्रयाग हैं विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग और देवप्रयाग । उत्तराखंड के प्रसिद्ध पंच प्रयाग देवप्रयाग रुद्रप्रयाग कर्णप्रयाग नन्दप्रयाग तथा विष्णुप्रयाग मुख्य नदियों के संगम पर स्थित हैं । नदियों का संगम भारत में बहुत ही पवित्र माना जाता है विशेषत: इसलिए कि नदियां देवी का रूप मानी जाती हैं। इलाहाबाद में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम के बाद गढ़वाल-हिमालय के क्षेत्र के संगमों को सबसे पवित्र माना जाता है, क्योंकि गंगा, यमुना और उनकी सहायक नदियों का यही उद्गम स्थल है। जिन जगहों पर इनका संगम होता है उन्हें प्रमुख तीर्थ माना जाता है। यहीं पर श्राद्ध के संस्कार होते हैं।

शंकराचार्य मंदिर


शंकराचार्य मंदिर जम्मू और कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर में डल झील के पास शंकराचार्य पर्वत पर स्थित है। शंकराचार्य मंदिर, श्रीनगर में शहर की सतह पर समुद्र स्‍तर से 1100 फुट की ऊंचाई पर स्थित है जिसे तख्‍त - ए - सुलेमान के नाम से भी जाना जाता है जो एक हिल पर स्थित है। यह मंदिर, हिंदू धर्म के देवता भगवान शिव को समर्पित है।
इस मंदिर को 371 ई. पूर्व राजा गोपादत्‍य ने बनवाया था, जिसके बाद मंदिर का नाम राजा के नाम पर ही रखा गया था। यह कश्‍मीर की घाटी में स्थित सबसे पुराना मंदिर है। बाद में मंदिर का नाम बदलकर गोपादारी से शंकराचार्य कर दिया गया था क्‍योकि आदि शंकराचार्य, इस स्‍थान पर कश्‍मीर यात्रा के दौरान ठहरे थे। कुछ समय पश्‍चात, डोगरा शासक महाराजा गुलाब सिंह ने श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए मंदिर में पत्थर की सीढ़ियों का निर्माण करवा दिया था। इस मंदिर का विद्युतीकरण 1925 में कर दिया गया था। हिंदुओं का एक धार्मिक स्‍थल होने के अलावा यह मंदिर महान पुरातात्विक महत्‍व भी रखता है।

लेकिन ऊँचाई पर होने के कारण यहाँ से श्रीनगर और डल झील का बेहद ख़ूबसूरत नज़ारा दिखाई देता है।

प्रेम मंदिर'!वृंदावन।

जाति, वर्ण और देश का भेद मिटाकर पूरे विश्व में प्रेम की सर्वोच्च सत्ता कायम करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण व राधा रानी की दिव्य प्रेम लीलाओं की साक्षी वृंदावन नगरी में प्रेम मंदिर का निर्माण करवाया गया है। 

यह भव्य युगल विहारालय-प्रेम मंदिर 11 साल के श्रम के बाद बनकर तैयार हुआ। इसे सफेद इटालियन संगमरमर से तराशा गया है। चटिकारा मार्ग पर स्थित श्रीवृंदावन धाम का यह अद्वितीय युगलावास प्राचीन भारतीय शिल्पकला की झलक भी दिखाता है।

वृंदावन में 54 एकड़ में निर्मित यह प्रेम मंदिर 125 फुट ऊंचा, 122 फुट लम्बा और 115 फुट चौड़ा है। इसमें खूबसूरत उद्यानों के बीच फव्वारे, श्रीराधा कृष्ण की मनोहर झझंकियां, श्रीगोवर्धन धारण लीला, कालिया नाग दमन लीला, झूलन लीलाएं सुसज्जित की गई हैं।

प्रेम मंदिर वास्तुकला के माध्यम से दिव्य प्रेम को साकार करता है। दिव्य प्रेम का संदेश देने वाले इस मंदिर के द्वार सभी दिशाओं में खुलते हैं। मुख्य प्रवेश द्वारों पर अष्ट मयूरों के नक्काशीदार तोरण बनाए गए हैं। पूरे मंदिर की बाहरी दीवारों पर श्रीराधा-कृष्ण की लीलाओं को शिल्पकारों ने मूर्त रूप दिया गया है।

पूरे मंदिर में 94 कलामंडित स्तम्भ हैं, जिसमें किंकिरी व मंजरी सखियों के विग्रह दर्शाए गए हैं। गर्भगृह के अंदर व बाहर प्राचीन भारतीय वास्तुशिल्प का उत्कृष्ट प्रदर्शन करती हुई नक्काशी व पच्चीकारी सभी को मोहित करती है। यहां संगमरमर की चिकनी स्लेटों पर 'राधा गोविंद गीत' के सरल व सारगर्भित दोहे प्रस्तुत किए गए हैं, जो भक्तियोग से भगवद् प्राप्ति के सरल व वेदसम्मत मार्ग प्रतिपादित करते हैं।

इस मंदिर का निर्माण कृपालु जी महाराज ने करवाया है। 14 जनवरी, 2001 को उन्होंने लाखों श्रद्धालुओं की उपस्थिति में प्रेम मंदिर का शिलान्यास किया था। उसी दिन से राजस्थान और उत्तर प्रदेश के करीब एक हजार शिल्पकार अपने हजारों श्रमिकों के साथ प्रेम मंदिर को गढ़ने में जुटे थे और 11 साल बाद यह साकार होकर सामने आया।

गुरु गोरखनाथ

गोरखनाथ' या गोरक्षनाथ जी महाराज ११वी से १२वी शताब्दी के नाथ योगी थे। गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर मे स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पडा है।

गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यही दिखे थें। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मुर्ती भी है। यहाँ हर साल वैशाख पुर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे रोट महोत्सव कहते है और यहाँ मेला भी लगता है।

शिव भक्तों से तो काल भी डरता है

जब मार्कन्डेय जी को उनके पिता ने बताया कि पुत्र तुम्हारा जीवन काल कम है और यदि तुम शिव जी के शरणागत हो जाओ तो तुम्हारी प्राण रक्षा हो जाएगी। इस पर मार्कन्डेय जी ने शिव जी की घोर उपासना करी और जब मृत्यु का समय निकट आया तो यमराज मार्कन्डेय जी को लेने आ गए। 

यमराज को आया देख मार्कन्डेय जी ने उनसे कहा, "कृपया करके आप मुझे शिव पूजन के लिए थोड़ा सा समय दें।"

यम नाराज होकर बोले," काल किसी का इंतजार नहीं करता और अपना पाश मार्कन्डेय जी पर फेंक दिया।" 

जैसे ही मार्कन्डेय जी पर पाश गिरा जिस शिवलिंग का वह पूजन कर रहे थे तत्काल उसमें से स्वंय शिव जी प्रगट हो गये और अपने भक्त की प्राण रक्षा के लिए यमराज को त्रिशूल लेकर मारने के लिए दौड़ पड़े। यम शिव जी के प्रकोप से भयभीत हो क्षमा याचना करने लगा। तब शिव जी शांत हुए। ऐसे हैं काल के भी काल प्रभु महाकाल शिव

व्यर्थ का घमंड स्वयं के विनाश का कारण

एक जंगल में एक नाग रहता था। वह रोज चिडिय़ों के अंडों, छिपकलियों, चूहों, मेंढकों, खरगोश और अन्य छोटे जानवरों को खाता था। वह कुछ दिनों में ही काफी मोटा भी हो गया। सभी छोटे जीव उससे डरते थे। यह देख कर उसे काफी घमंड हो गया। एक दिन उसने अभिमानवश सोचा- मैं इस जंगल में सबसे अधिक शक्तिशाली हूं। अत: मैं यहां का राजा हूं। अब मुझे अपनी प्रतिष्ठा और आकार के अनुकूल किसी बड़े स्थान पर रहना चाहिए।


अगले ही दिन उसने अपने रहने के लिए एक विशाल पेड़ का चुनाव किया। पेड़ के पास चींटियों का एक बिल था। वहां ढेर सारे मिट्टी के छोटे-छोटे कण जमा थे। नाग ने सोचा कि यह गंदगी यहां नहीं रहनी चाहिए। वह गुस्से में बिल के पास गया और चींटियों से बोला, ‘‘मैं नागराज हूं, जंगल का राजा। मैं आदेश देता हूं कि जल्द से जल्द इस कूड़े को यहां से हटाओ और चलती बनो।

नाग को देख कर अन्य जानवर डर से कांपने लगे किंतु चींटियों पर कोई असर नहीं हुआ। अब तो नाग और अधिक क्रोधित हुआ। उसने अपनी पूंछ से बिल पर कोड़े की तरह जोरदार प्रहार करना शुरू कर दिया। इससे चींटियां बिल से निकल कर बाहर आ गईं और नाग पर हमला कर दिया। कुछ देर तक वह उनसे मुक्ति पाने का प्रयत्न करता रहा किंतु अंतत: असंख्य चींटियों के काटने से उत्पन्न अत्यधिक वेदना से उसके प्राण निकल गए।’’


हितोपदेश की इस कथा का सार यह है कि कभी किसी को छोटा समझ कर उसे दबाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। ऐसा व्यर्थ का घमंड स्वयं के ही विनाश का कारण बनता है।

भगवान किसके दास होते हैं?

वृंदावन में एक भक्त को बिहारी जी के दर्शन नहीं हुए। लोग कहते हैं ‘‘अरे! बिहारी जी सामने ही तो खड़े हैं। पर वह कहता है कि भाई। मेरे को तो नहीं दिख रहे।’’इस तरह तीन दिन बीत गए पर दर्शन नहीं हुए। उस भक्त ने ऐसा विचार किया कि सबको दर्शन होते हैं और मुझे नहीं होते, तो मैं बड़ा पापी हूं कि ठाकुर जी दर्शन नहीं देते। अत: यमुना जी में डूब जाना चाहिए। ऐसा विचार करके रात्रि के समय वह यमुना जी की तरफ चला।  वहां यमुना जी के पास एक कुष्ठ रोगी सोया हुआ था।

उसको भगवान ने स्वप्न में कहा कि अभी यहां पर जो आदमी आएगा उसके तुम पैर पकड़ लेना। उसकी कृपा से तुम्हारा कुष्ठ दूर हो जाएगा। वह कुष्ठ रोगी उठ कर बैठ गया। जैसे ही वह भक्त वहां आया, कुष्ठ रोगी ने उसके पैर पकड़ लिए और कहा कि ‘‘मेरा कुष्ठ दूर करो।’’ भक्त बोला, ‘‘अरे! मैं तो बड़ा पापी हूं, ठाकुर जी मुझे दर्शन भी नहीं देते। बहुत प्रयास किया,’’ परन्तु कुष्ठ रोगी ने उसको छोड़ा नहीं। अंत में कुष्ठ रोगी ने कहा कि अच्छा तुम इतना कह दो कि तुम्हारा कुष्ठ दूर हो जाए। वह बोला कि इतनी हमारे में योग्यता ही नहीं।


कुष्ठ रोगी ने जब बहुत आग्रह किया तब उसने कह दिया कि ‘तुम्हारा कुष्ठ दूर हो जाए।’ ऐसा कहते ही क्षणमात्र में उसका कुष्ठ दूर हो गया। तब उसने स्वप्न की बात भक्त को सुना दी कि भगवान ने ही स्वप्न में मुझे ऐसा करने के लिए कहा था। यह सुनकर भक्त ने सोचा कि आज नहीं मरूंगा और लौटकर पीछे आया तो ठाकुर जी के दर्शन हो गए। उसने ठाकुर जी ने पूछा, ‘‘महाराज!  पहले आपने दर्शन क्यों नहीं दिए?’’ ठाकुर जी ने कहा कि तुमने उम्र भर मेरे सामने कोई मांग नहीं रखी, मुझ से कुछ चाहा नहीं, अत: मैं तुम्हें मुंह दिखाने लायक नहीं रहा।



अब तुमने कह दिया कि इसका कुष्ठ दूर कर दो तो अब मैं मुंह दिखाने लायक हो गया। इसका क्या अर्थ हुआ? यही कि जो कुछ भी नहीं चाहता, भगवान उसके दास हो जाते हैं। हनुमान जी ने भगवान का कार्य किया तो भगवान उनके दास हो गए। सेवा करने वाला बड़ा हो जाता है और सेवा कराने वाला छोटा हो जाता है परन्तु भगवान और उनके प्यारे भक्तों को छोटे होने में शर्म नहीं आती। वे जान करके छोटे होते हैं, छोटे बनने पर भी वास्तव में वे छोटे होते ही नहीं और उनमें बड़प्पन का अभिमान होता ही नहीं।

एक अनोखा मंदिर जो खुलता है साल में एक बार

जयपुर में दो ऐसे मंदिर हैं जिसके पट केवल शिवरात्रि के दिन ही खुलते हैं। चांदनी चौक स्थित चौथा मंदिर राजेश्वरजी का और मोती डूंगरी पर शिव मंदिर है। ये दोनों मंदिर जयपुर के पूर्व राज-परिवार के निजी मंदिर हैं तथा केवल शिवरात्रि के दिन ही आम जनता के लिए खोले जाते हैं। 

जयपुर के फेमस मोती डूंगरी और बिरला मंदिर के पीछे सीना ताने खड़े शिव मंदिर का गेट खुलने का भक्त एक साल तक इंतजार करते हैं। मोती डूंगरी किले के भीतर एकलिंगेश्वर महादेव मंदिर है, जो की जयपुर राज परिवार का निजी मंदिर है। इस मंदिर को आम भक्तों के लिए साल में एक ही बार खोल जाता है। इस मंदिर में खुद जयपुर के महाराजा और महारानियां शीश झुकाती थीं। खुद जयपुर की राजमाता गायत्री देवी तक कई बार यहाँ महादेव की पूजा करने पहुँचती थीं।  

जयपुर को मंदिरों की नगरी भी कहा जाता है। यहां कोई मोहल्ला, कोई सड़क चौराहा, कोई चौक अथवा चौपड़ ऐसी नहीं है जहां एक या दो मंदिर स्थापित न हों। इतिहासकार बताते हैं कि जयपुर की स्थापना अश्वमेघ यज्ञ के साथ हुई और भगवान वरदराज की मूर्ति के सान्निध्य में यज्ञ संपादित किया गया। 
 
वरदराज का मंदिर आज भी आमेर रोड पर बलदेवजी परसराम द्वारा के पीछे की टेकरी पर स्थित है। यहां यज्ञ की बावडिय़ां भी हैं। गौड़ीय संप्रदाय के मंदिर गोविंददेवजी, गोपीनाथजी और मदनमोहनजी की स्थापना भी जयपुर बनने के साथ हुई। मोती डूंगरी के गणेशजी, गलता की लाल डूंगरी पर विराजमान गणेशजी और गढग़णेश के मंदिर भी प्राचीन हैं। शिव मंदिरों में ताड़केश्वरजी का मंदिर और झारखंड महादेव तथा मां दुर्गा के रूप में आमेर की शिला देवी मंदिर का इतिहास भी जयपुर की स्थापना के साथ-साथ चलता है।

गुप्त काशी में पांडव अपने पापों से मुक्त हुए थे


केदारनाथ में एक जगह गुप्त काशी है। उस जगह का नाम गुप्तकाशी इसलिए पड़ा कि पांडवों को देखकर भगवान शिव वहीं छुप गए थे। गुप्तकाशी से भगवान शिव की तलाश करते हुए पांडव गौरीकुंड तक जाते हैं। लेकिन इसी जगह एक बड़ी विचित्र बात होती है। पांडवों में से नकूल और सहदेव को दूर एक सांड दिखाई देता है।

भीम अपनी गदा से उस सांड को मारने दौड़ते हैं। लेकिन वह सांड उनकी पकड़ में नहीं आता है। भीम उसके पीछे दौड़ते हैं और एक जगह सांड बर्फ में अपने सिर को घुसा देता है। भीम पूंछ पकड़कर खिंचते हैं। लेकिन सांड अपने सिर का विस्तार करता है। सिर का विस्तार इतना बड़ा होता है कि वह नेपाल के पशुपति नाथ तक पहुंचता है।

पुराण के अनुसार पशुपतिनाथ भी बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। देखते ही देखते वह सांड एक ज्योतिर्लिंग में तब्दील हो जाता है। फिर उससे भगवान शिव प्रकट होते हैं। भगवान शिव का साक्षात दर्शन करने के बाद पांडव अपने पापों से मुक्त होते हैं।

श्री धाम बरसाना

रसाना मथुरा से 42 कि॰मी॰,कोसी से 21 कि॰मी॰, छाता तहसील का एक छोटा-सा गाँव है। बरसाना राधा के पिता वृषभानु का निवास स्थान है। यहाँ की अधिकांश पुरानी इमारतें 300 वर्ष पुरानी है। यह शहर पर्वत के ढ़लाऊ हिस्से में बसा हुआ है। इस पर्वत को ब्रह्मा पर्वत के नाम से जाना जाता है।

बरसाना में राधा-कृष्ण भक्तों का साल भर तांता लगा रहता है। बरसाना जिसका मूल नाम ब्रह्मशरण है एक टिले पर बसा हुआ शहर है। जिसके बीचों-बीच एक पहाड़ी है जो कि बरसाने के मस्तिष्क पर आभूषण के समान है। यहाँ लाड़ली जी का बहुत बड़ा मंदिर है। राधा रानी को लोग यहाँ प्यार से 'लाड़लीजी' कहते हैं। 

राधा रानी का मंदिर बहुत ही सुन्दर और मनमोहक है। मंदिर तक पहुंचने के लिए सीढिय़ों से होकर जाना होता है। बरसाना गांव के पास दो पहाडिय़ां मिलती है। उनकी घाटी बहुत ही कम चौड़ी है। मान्यता है कि गोपियां इसी मार्ग से दही-मक्खन बेचने जाया करती थी। यहीं पर कभी-कभी कृष्ण उनकी मटकी छीन लिया करते थे। 

राधा रानी श्री कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति एवं निकुच्जेश्वरी मानी जाती है। इसलिए राधा किशोरी के उपासकों का यह अतिप्रिय तीर्थ है। बरसाने की पुण्यस्थली बड़ी हरी-भरी तथा रमणीक है। इसकी पहाडिय़ों के पत्थर श्याम तथा गौरवर्ण के हैं जिन्हें यहाँ के निवासी कृष्णा तथा राधा रानी के अमर प्रेम का प्रतीक मानते हैं। बरसाने से 4 मील पर नन्दगांव है, जहां श्रीकृष्ण के पिता नंद जी का घर था। बरसाना-नंदगांव मार्ग पर संकेत नामक स्थान है। 

जहां किंवदंती के अनुसार कृष्ण और राधा रानी का प्रथम मिलन हुआ था। (संकेत का शब्दार्थ है पूर्वनिर्दिष्ट मिलने का स्थान) यहाँ भाद्र शुक्ल अष्टमी (राधाष्टमी) से चतुर्दशी तक बहुत सुन्दर मेला लगता हैं। इसी प्रकार फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, नवमी एवं दशमी को आकर्षक लीला होती है।

बसंत पंचमी से बरसाना होली के रंग में सरोबार हो जाता है। यहां के घर-घर में होली का उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। टेसू (पलाश) के फूल तोड़कर और उन्हें सुखा कर रंग और गुलाल तैयार किया जाता है। गोस्वामी समाज के लोग गाते हुए कहते हैं- "नन्दगाँव को पांडे बरसाने आयो रे।" 

शाम को 7 बजे चौपाई निकाली जाती है जो लाड़ली मन्दिर होते हुए सुदामा चौक रंगीली गली होते हुए वापस मन्दिर आ जाती है। सुबह 7 बजे बाहर से आने वाले कीर्तन मंडल कीर्तन करते हुए गहवर वन की परिक्रमा करते हैं। बारहसिंघा की खाल से बनी ढ़ाल को लिए पीली पोखर पहुंचते हैं। बरसानावासी उन्हें रुपये और नारियल भेंट करते हैं, फिर नन्दगाँव के हुरियारे भांग-ठंडाई छानकर मद-मस्त होकर पहुंचते हैं। राधा-कृष्ण की झांकी के सामने समाज गायन करते हैं। बरसाना अपनी लठमार होली के लिए काफी प्रसिद्ध है।

लाड़ली जी के मंदिर में राधाष्टमी का त्यौहार बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। यह त्यौहार भद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। राधाष्टमी के उत्सव में राधाजी को लड्डूओं का भोग लगाया जाता है और उस भोग को मोर को खिला दिया जाता है। जिन्हें राधा कृष्ण का स्वरूप माना जाता है। राधाष्टमी के उत्सव के लिए राधाजी के महल को काफी दिन पहले से सजाया जाता है। बरसाने में काफी सारे मनमोहक सरोवर है। जिनमें प्रमुख हैं प्रेम सरोवर,जल महल और बनोकर तालाब जो अपने अन्दर प्राकृतिक सौन्दर्य को समाहित किये हुए है।