वृंदा देवी मंदिर

दैत्य जलंधर का जन्म समुद्र मंथन के समय हुआ था, लेकिन श्रीमद देवि भागवत पुराण के अनुसार एक समय शिवजी ने अपने तेज को समुद्र में फैंक दिया जिससे महातेजस्वी बालक का जन्म हुआ, यही बालक जलंधर नाम का पराक्रमी दैत्य राजा बना। इसकी राजधानी का नाम जलंधर नगरी था। जो अब जालंधर शहर के नाम से विख्यात है। 

जलंधर महाराक्षस था, उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना करते हुए श्री हरि से युद्ध किया, परंतु समुद्र मंथन से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपना भाई माना। इस तरह जलंधर राक्षस मां लक्ष्मी को न पा सका। पराजित होकर वह देवी पार्वती को पाने की इच्छा रखते हुए कैलाश पर्वत जा पहुंचा, परंतु मां ने अपने योगबल से उसे तुरंत पहचान लिया तथा वहां से अंर्तध्यान हो गईं।

देवी पार्वती ने श्री हरी को सारी बात बताई, जालंधर का अतंक दिन ब दिन बढ़ रहा था। इस दौरान दैत्यराज कालनेमी की पुत्री वृंदा का विवाह जलंधर से हुआ। वे अत्यन्त पतिव्रता स्त्री थी। उसी के पतिव्रत धर्म की शक्ति से जलंधर न तो मारा जाता था और न ही पराजित होता था। इसीलिए जलंधर का नाश करने के लिए वृंदा के पतिव्रत धर्म को भंग करना बहुत ज़रूरी था। कोई अन्य मार्ग न जान श्री हरी ने वृंदा का सतीत्व भंग करने का निर्णय किया। वह ऋषि का वेष धारण कर वन में गये, जहां वृंदा अकेली भ्रमण कर रही थीं। श्री हरी अपने साथ दो मायावी राक्षस भी ले गये जिन्हें देखकर वृंदा डर गईं।

ऋषि ने वृंदा के सामने पल में दोनों को भस्म कर दिया। उनकी शक्ति देखकर वृंदा ने कैलाश पर्वत पर महादेव के साथ युद्ध कर रहे अपने पति जलंधर के बारे में पूछा। ऋषि ने अपने माया जाल से दो वानर प्रकट किए। एक वानर के हाथ में जालंधर का सिर था तथा दूसरे के हाथ में धड़। अपने पति की यह दशा देखकर वृंदा बेहोश हो कर गिर पड़ीं। होश में आने पर उन्होंने ऋषि रूपी भगवान से विनती की कि वह उसके पति को जीवित कर दें। भगवान ने उसकी विनती मान अपनी माया से पुन जलंधर का सिर धड़ से जोड़ दिया और स्वयं भी वह उसी शरीर में प्रवेश कर गए।

वृंदा को इस छल का पता न लगा। जलंधर बने भगवान के साथ वृंदा पति का व्यवहार करने लगी, जिससे उसका सतीत्व भंग हो गया। ऐसा होते ही वृंदा का पति जलंधर युद्ध में मारा गया। जब वृंदा को इस छल का पता चला तो उसने क्रुद्ध होकर भगवान विष्णु को शिला होने का श्राप दे दिया और स्वयं सति हो गईं। भगवान विष्णु ने वृंदा को वचन दिया कि तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी। जो प्राणी मेरे शालिगराम रूप के साथ तुलसी का विवाह करेगा उसे इस लोक और परलोक में यश प्राप्त होगा। जिस स्थान पर वह भस्म हुईं, वहां तुलसी का पौधा पैदा हुआ। मान्यता है कि सच्चे मन से 40 दिन तक सती वृंदा देवी के मंदिर में पूजा करने से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।

शास्त्रों के मतानुसार जालंधर में 12 तालाबों का उल्लेख है। जालंधर शहर में आने के लिए नाव का सहारा लेना पड़ता था। इस स्थान की चारदीवारी के बाहर एक पुराना तालाब था जो अन्नपूर्णा मंदिर को छूता था तथा एक तरफ ब्रह्मकुंड की सीमा में लगता था। आज भी यहां पुरानी छोटी ईटों की सीढ़ियां बनी हुई हैं। एक तरफ गोघाट था, जहां कभी महिलाएं स्नान करती थीं, यह वास्तव में ब्रह्मसरोवर ही था, जिसका पुराणों व इतिहास में वर्णन मिलता है। माता वृंदा देवी का मंदिर जालंधर में कोट किशन इलाके में स्थित है।