सच्चे गुरू  , सच्चा ज्ञान देते है , जो सच्चे होते है वे जगतगुरु नहीं होते है l वे केवल  भक्तोंका परम कल्याण करनेवाले निराभिमानी कल्याणदाता  गुरू ही होते है l 
          मुझे जो ज्ञान है ,या मेरे पास जो ज्ञान है दुनियामे किसी के पास भी  नहीं है , इस प्रकार का अहंकार का भूत उनके मस्तिष्क में नहीं होता  है  l सच्चे गुरू दूसरोंको नीचा दिखानेका घटिया काम नहीं करते है l शास्त्रकी बात भी वे  आदरभाव से बताते है  l    यह असली गुरू के लक्षण है l अभिमानी गुरू न जाने अपने आगे पीछे कितनी उपाधियाँ लगाएँगे इसका कोई पता नहीं  होता है l   नकली गुरू दंभ , अभिमान , अहंकार के दलदल में फँसे हुए होते है l       दूसरोंको नीचा दिखानेका  काम वे निरंतर करते रहते है l अधिक शास्त्र पढ़नेवाले सच्चे गुरू या संत नहीं होते है l  भीतरी स्वाद जिन्हे नहीं मिला है वे तथाकथित गुरू निरंतर  शास्त्रकी  ही बात बताकर अपना कोरापन सिद्ध करते है  ऐसे जगतगुरु को  " कोरा  गुरू  " कहना चाहिये  l  शास्त्र की बाते बतानी नहीं चाहिए ऐसा नहीं है लेकिन जो शास्त्रपर ही निर्भर है उनके लिए यह बात है l   यह बात है तथाकथित   जगतगुरुयोंके लिए  l जो शास्त्र की  अधूरी बाते  बताकर लोगोंको  गुमराह करते है l
                                 
            असली गुरू अपने हृदय कि बात बताते है ,अपने भीतर के अनंत  ज्ञान भंडार  से ज्ञान के मोती चुनकर अपने भक्तोंको देते है l असली गुरू या संत पोथी - पुरणोंपर निर्भर नहीं होते है  क्योंकि उनकेपास शाश्वत ज्ञान होता है l संत कबीर , गुरुनानकदेव , संत तुकाराम महाराज जैसे अनेक संत -गुरुने जो ज्ञान दिया वह  ज्ञान,  सच्चा ज्ञान था  , न कि  पोथी पुराणोंका था   l  इन महापुरुषोंने  पोथी -  पुराणकी  बाते भक्तोंको बताकर उन्हें गुमराह नहीं किया l जो ज्ञान  पोथी पुराणोंसे परे है वह                                    
शाश्वत ज्ञान उन्होंने सच्चे हृदय से लोगोंको  बाँटा l असली गुरू जो ज्ञान देते है ,  वह ज्ञान असली ज्ञान होता है l असली और नकली गुरु में फर्क क्या है ?

         महाराष्ट्र के महान संत तुकाराम का ही उदाहरण  लीजिये -  वे परमात्मा का ठिकाना बताते हुए कहते है -
                       " काया ही पंढरी , आत्मा पांडुरंग "      
        यह देह पंढरी है और उसमे आत्मारूप से भगवान पांडुरंग याने परमात्मा विराजमान है l  संत कबीर जी भी यही बात कहते है  l
         इसका तात्पर्य यह है कि -" परमात्मा कही आकाश - पाताल में , या सतलोक  या अन्य किसी लोक में  या किसी विशिष्ट जगह विराजमान नहीं है वे सर्वव्यापक है , वे कहींसे आते नहीं है हमारे भीतर ही है  l "
        जो तथाकथित जगतगुरू यह कहते है कि परमात्मा सतलोक से चलकर आते है , ऐसे गुरू को अज्ञानी , ठगीगुरू कहना चाहिए l क्योंकि उनका ज्ञान आत्मज्ञान नहीं है , पोथी - पुराणोंका ज्ञान है l जो गुरू पुरा जीवनभर  पोथी पुराण ही भक्तोंको समझाते है , पुराणोंका ही तर्क देते  है तो निश्चित रूपसे वे  गुरू नकली  गुरू समझना चाहिए l
        पुराणोंकी पुरी बात न बताकर अधूरी  बात बड़ी चतुराईसे बतानेवाले  स्वयंको जगतगुरु बताते है l ऐसे अधूरे गुरू पर भरोसा करके अपनी ह्त्या नहीं कर लेनी चाहिए l सच्चे गुरू जो ज्ञान देते है वह ज्ञान सच्चा होता है l और सच्चा गुरू वह होता है परमात्माको सर्वव्याप्त , सर्वमय बताते है l किसी लोक में परमात्माका ठिकाना नहीं बताते है l जैसे कि संत कबीर जी कहते है -
                                 " कीड़ी में तूं नान्यो लाग्यो , हाथीमे में तूं मोटो क्यों ?
                         बण महावत ने माथो बेटो , हाकलणेवाळो  तूं को तूं l
                         ऐसो खेल रचो मेरे दाता जहाँ देखूँ वहाँ तूं  को तूं l  "
       परमात्मा के सर्वव्यापकता का यह बख़ान है l यहाँ संत कबीर जी किसी लोक या सतलोक का बख़ान नहीं करते है l लेकिन संत कबीर जी के बहुतसारे ठेकेदार परमात्माके बारे में मनघडण कहानियाँ बताते है l इस उदाहरण से भी सच्चे गुरू और उनके सच्चे ज्ञान का का परिचय मिलता है l