ग़ैर-हिन्दुओं के पास ऊंची हिन्दु पदवियां - उस धर्म में जो अपनाने से नहीं जन्म से मिलता है
पिछले कुछ समय से मैं कुंभ मेले के ऊपर लिख रहा था, स्पष्ट है कि इस दौरान मैंने हिन्दुओं पर, भारतीयों पर, यहां के तीर्थस्थानों पर और शायद बाहरी देशों में मौजूद तीर्थस्थानों पर भी बहुत लिखा। हालांकि इस दौरान मैंने उन गैर-भारतीय साधुओं और गुरुओं के बारे में नहीं लिखा जो ज़ाहिर है, कुंभ-मेले में तीर्थयात्री या पर्यटक बनकर नहीं आए हैं, बल्कि नुमाइश के इस खेल का हिस्सा हैं।
मैंने पहले भी इसकी व्याख्या की थी कि हिन्दुत्व धर्म-परिवर्तन करके हिन्दु बनने की इजाज़त नहीं देता। आप इस्लाम अपना सकते हैं, ईसाई बन सकते हैं, लेकिन हिन्दुत्व धारण करने का कोई उपाय या विकल्प नहीं है। आप केवल जन्म से ही हिन्दु हो सकते हैं। यही वो कारण है कि बनारस के विश्वनाथ मंदिर, उड़ीसा में पूरी के जगन्नाथ मंदिर और दक्षिण भारत के अधिकतर हिंदु मंदिरों में आज भी गैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है। और यह संदेश मंदिर के बाहर लगे साइनबोर्ड पर साफ़-साफ़ लिखा होता है जिसके कारण कोई भी विदेशी मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता। मैंने एक बार इस तरह के धार्मिक नस्लवाद की व्याख्या की थी, लेकिन यह भी एक प्रकार से धर्म-परिवर्तन करके हिन्दु बनने की अवधारणा को खारिज करता है।
हास्यास्पद बात तो यह है कि हिन्दुत्व के व्यापारी यानी धार्मिक नेताओं और गुरूओं ने नफ़ा-नुक़्सान के चक्कर में अपने धर्म की राह ख़ुद ही छोड़ दी है। अख़बारों में रोज़ इलाहाबाद के कुंभ मेले में अपनी छटा बिखेर रहे अमेरिका, रूस, स्वीडन और अन्य देशों के साधुओं के क़िस्से छप रहे हैं। वो किसी भारतीय गुरू के भक्त नहीं हैं, न कोई सामान्य साधु हैं, वो ख़ुद ही गुरू हैं जिनके बड़े-बड़े पंडाल लगे हैं और वो अपने आस-पास मौजूद भारतीय गुरुओं द्वारा पूरी तरह स्वीकार्य और मान्य हैं, क्योंकि उन्हें उस पद तक लाने में हिन्दुत्व के एक बहुत पुराने धार्मिक संगठन का योगदान है, जिसके पास एक व्यक्ति को महामंडलेश्वर (अनुयायियों के एक समूह का प्रधान) की उपाधि देने का अधिकार है। और उस संगठन ने ऐसी पदवियां विदेशियों को भी दी! हालांकि अब सबको मालूम है कि ऐसी उपाधियां ख़रीदी जा सकती हैं, बस आपके पास पर्याप्त पैसे होने चाहिए।
हिन्दु धर्म तो इस बात तक की अनुमति नहीं देता कि कोई विदेशी मंदिर में प्रवेश करे, तो फिर यह कैसे मुमकिन है कि इसी धर्म का एक प्राचीन संगठन उन्हीं विदेशियों को अपने साथ जोड़ता है और यहां तक कि उन्हें ऊंचे पदों पर बैठाता है? अब वो खुद गुरू हैं और उनके अनेक अनुयायी हैं, कुंभ मेले में उनके तंबू गड़े हैं, बड़े-बड़े पंडाल सजे हैं, उनकी पूजा दुनिया के हर हिस्से में की जाती है- ज़ाहिर है तकनीकी रूप से ग़ैर-हिन्दु गुरुओं के चरणों में आस्थावान भारतीय हिन्दु भी बिछे हैं जो शायद अपने ही धर्म ग्रंथों से अनभिज्ञ हैं।
बात और बदतर तब हो जाती है जब आप इन सबको एकसाथ मिलकर इस त्योहार में अपनी दुकानें चलाते हुए देखते हैं। पश्चिमी गुरुओं और साधुओं की ठाठ भारतीयों से रत्ती भर भी कम नहीं है, वो अपनी रईसी की नुमाइश में और महिला अनुयायियों का आनंद लेने में भारतीयों की तरह ही कोई कसर नहीं छोड़ रहे। हालांकि इन उपाधियों पर विराजमान संन्यासियों के लिए क़ायदे से एक महिला से बात तक करना उचित नहीं है! एक पश्चिमी गुरू एक चुटकी राख 1100 रुपये में बेचने के लिए विख्यात है - लगभग 20 अमेरिकन डॉलर! इस कुंभ के मेले में वो ख़ूब पैसा बना रहे हैं, जबकि इस दौरान क़ायदे की बात करें तो उन्हें भौतिकवाद से खुद को अलग रखना चाहिए था।
यही कारण है कि मैं धर्म को विशुद्ध व्यवसाय मानता हूं। सब धर्म को अपनी सुविधा के हिसाब से संशोधित करते हैं, अपने हिसाब से उसका मतलब निकालते हैं, अपनी ख़ुद की परंपरा का निर्माण कर लेते हैं और फिर धर्म और भगवान को बेचने वाली दुकान खोलकर बैठ जाते हैं।
मुझे मालूम है कि वो विदेशी जो खुद को हिन्दु बताते हैं, मेरी बातों से सहमत नहीं होंगे, बल्कि उनमें से कोई भी गुरू मेरी बातों से सहमत नहीं होगा जिनकी दुकान धर्म से चलती है। आख़िरी बार जब मैंने इस विषय पर लिखा था तो उनलोगों द्वारा बहुत सी रोषपूर्ण प्रतिक्रियाएं मिली जिन्हें लगा कि मैं सच को बाहर ले आया हूं। मैं यह भी जानता हूं कि धार्मिक लोग, अनुयायीगण नियमित तौर पर मुझे मेरी बातों के लिए खरी-खोटी सुनाते रहेंगे, लेकिन वो उन गुरुओं के सामने सिर और पैर एक करके बिछे रहेंगे, भले ही वो उनसे पैसे ऐंठकर रईसी की नुमाइश करे और धर्म के मूल सिद्धांतों की ऐसी-तैसी करता रहे। घूम-फिरकर मैं दुबारा इसी निष्कर्ष पर पहुंचता हूं कि यह या तो दुखद है या हास्यास्पद - मैं तो हंसना पसंद करूंगा।