रक्षाबंधन की पौराणिक कहानी!

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रक्षाबंधन का त्योहार श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण कर बलि राजा के अभिमान को इसी दिन चकानाचूर किया था। इसलिए यह त्योहार 'बलेव' नाम से भी प्रसिद्ध है। इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं।


रक्षाबंधन के संबंध में एक अन्य पौराणिक कथा भी प्रसिद्ध है। देवों और दानवों के युद्ध में जब देवता हारने लगे, तब वे देवराज इंद्र के पास गए। देवताओं को भयभीत देखकर इंद्राणी ने उनके हाथों में रक्षासूत्र बाँध दिया। इससे देवताओं का आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने दानवों पर विजय प्राप्त की। तभी से राखी बाँधने की प्रथा शुरू हुई। दूसरी मान्यता के अनुसार ऋषि-मुनियों के उपदेश की पूर्णाहुति इसी दिन होती थी। वे राजाओं के हाथों में रक्षासूत्र बाँधते थे। इसलिए आज भी इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को राखी बाँधते हैं।


बहना ने भाई की कलाई से प्यार बाँधा है, प्यार के दो तार से संसार बाँधा है...भले ही ये गाना बहुत पुराना न हो पर भाई की कलाई पर राखी बाँधने का सिलसिला बेहद प्राचीन है। रक्षाबंधन का इतिहास सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ा हुआ है। वह भी तब जब आर्य समाज में सभ्यता की रचना की शुरुआत मात्र हुई थी।


रक्षाबंधन पर्व पर जहाँ बहनों को भाइयों की कलाई में रक्षा का धागा बाँधने का बेसब्री से इंतजार है, वहीं दूर-दराज बसे भाइयों को भी इस बात का इंतजार है कि उनकी बहना उन्हें राखी भेजे। उन भाइयों को निराश होने की जरूरत नहीं है, जिनकी अपनी सगी बहन नहीं है, क्योंकि मुँहबोली बहनों से राखी बंधवाने की परंपरा भी काफी पुरानी है।


असल में रक्षाबंधन की परंपरा ही उन बहनों ने डाली थी जो सगी नहीं थीं। भले ही उन बहनों ने अपने संरक्षण के लिए ही इस पर्व की शुरुआत क्यों न की हो लेकिन उसी बदौलत आज भी इस त्योहार की मान्यता बरकरार है। इतिहास के पन्नों को देखें तो इस त्योहार की शुरुआत की उत्पत्ति लगभग 6 हजार साल पहले बताई गई है। इसके कई साक्ष्य भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं।

 

भगवान श्रीकृष्ण और दौपदी

इतिहास में भाई-बहन के रिश्ते को सार्थक करता है भगवान श्री कृष्ण और द्रौपदी का रिश्ता। कृष्ण भगवान ने दुष्ट राजा शिशुपाल को मारा था। युद्ध के दौरान कृष्ण के बाएँ हाथ की अँगुली से खून बह रहा था। इसे देखकर द्रोपदी बेहद दुखी हुईं और उन्होंने अपनी साड़ी का टुकड़ा चीरकर कृष्ण की अँगुली में बाँधा जिससे उनका खून बहना बंद हो गया। तभी से कृष्ण ने द्रोपदी को अपनी बहन स्वीकार कर लिया था। वर्षों बाद जब पांडव द्रोपदी को जुए में हार गए थे और भरी सभा में उनका चीरहरण हो रहा था तब कृष्ण ने द्रोपदी की लाज बचाई थी।

 

देवराज इन्द्र और शची की कथा

रक्षा बंधन की एक कथा के अनुसार, एक समय, देवताओं का राजा इन्द्र, अपने शत्रु वृत्रासुर से हार गया. तब वह देवों के गुरु बृहस्पतिजी के पास गया. तब देवगुरु बृहस्पतिजी की सलाह से विजय प्राप्ति के लिये इन्द्र की पत्नी देवी शची ने इन्द्र को राखी बाँधी. और तब इन्द्र वज्र के निर्माण के लिये ऋषि दधिची की अस्थियां लेने के लिये गए. इन्द्र ने उनसे उनकी अस्थियां प्राप्त करके वज्र नामक शस्त्र बनाया. फिर वृत्रासुर पर आक्रमण करके उसे हराया और अपना स्वर्ग का राज्य पुनः प्राप्त किया. इस प्रकार रक्षा बंधन का महत्व बताया गया है.

 

संतोषी माता और भगवान गणेश

माता संतोषी के अवतार की कथा में यह कहा जाता है कि एक समय की बात है. राखी के त्यौंहार पर भगवान गणेश की बहिन ने भगवान गणेश को राखी बाँधी. परंतु भगवान गणेश के दोनों पुत्रों शुभ और लाभ को कोई राखी बाँधने वाला नहीं था क्योंकि उनकी कोई बहिन नहीं थी. इस बात से शुभ और लाभ बहुत मायूस हुए. तब दोनों ने भगवान गणेश और माता रिद्धि व सिद्धि से एक बहिन के लिए बहुत प्रार्थना की. भगवान गणेश ने दोनों पुत्रों शुभ और लाभ की प्रार्थना स्वीकार की और तब माता रिद्धि-सिद्धि द्वारा दैवीय ज्योति से संतोषी माता का अवतार हुआ. तब संतोषी माता ने शुभ और लाभ को राखी बाँधी.

 

राजा बलि और माता लक्ष्मी

एक पौराणिक कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि दैत्यों का राजा बलि भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था. भगवान विष्णु इस राजा बलि से इतने प्रसन्न थे कि एक बार वे वैकुण्ठ धाम छोड़ कर राजा बलि के साम्राज्य की रक्षा के कार्य में लग गए. माता लक्ष्मी वैकुण्ठ धाम में अकेली रह गईं.


जब भगवान विष्णु बहुत समय तक वापिस वैकुण्ठ धाम को नहीं लौटे, तब माता लक्ष्मी ने एक साधारण स्त्री का रूप धारण किया और राजा बलि के यहाँ पहुँच गयीं.  वहाँ माता लक्ष्मी ने अपने आपको एक निराश्रित महिला बताया जो अपने पति से बिछुड़ गयी है और पति के मिलने तक राजा बलि की शरण में रहना चाहती है. इस प्रकार माता लक्ष्मी ने बलि के यहाँ आश्रय पा लिया.


तत्पश्चात् सावन मास की पूर्णमासी को माता लक्ष्मी ने राजा बलि की कलाई पर रक्षा सूत्र बाँधा और राजा बलि से अपनी रक्षा का वचन लिया. तब बलि ने माता लक्ष्मी से सब सच जानना चाहा तो माता लक्ष्मी ने सब बात राजा बलि को सच सच बतला दी.


राजा बलि ने माता लक्ष्मी की सब बात सुन कर उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट किया और भगवान विष्णु से माता लक्ष्मी के साथ वैकुण्ठ धाम लौटने की प्रार्थना की.

ऐसा कहा जाता है कि तब ही से रक्षा बंधन के दिन राखी बंधवाने के लिए बहिन को भाई द्वारा अपने घर आमंत्रित करने की प्रथा चल पड़ी.

 

राजा हुमायूँ और रानी कर्णवती

राखी से सम्बंधित राजस्थान अंचल की यह बहुत ही मार्मिक और प्रसिद्ध कहानी है. ऐसा कहा जाता है कि जब बहादुर शाह ने राजस्थान के चित्तौड़ प्रांत पर आक्रमण किया तो विधवा रानी कर्णवती ने पाया कि वह स्वयं को तथा अपने राज्य को बहादुर शाह से बचा पाने में सक्षम नहीं है. तब रानी कर्णवती ने हुमायूँ को राखी भेजी और अपनी रक्षा की प्रार्थना की. हुमायूँ ने कर्णवती की राखी को पूरा सम्मान दिया और प्रण किया कि वह राखी की लाज अवश्य रखेगा.


अपने प्रण को निभाने के लिए हुमायूँ एक विशाल सेना साथ ले कर तुरंत चित्तौड़ के लिए निकल पड़ा. परंतु जब तक हुमायूँ चित्तौड़ पहुंचा तब तक बहुत देर हो चुकी थी. बहादुर शाह चित्तौड़ पर कब्ज़ा कर चुका था.  ८ मार्च १५३५ का वह दिन राजस्थान के इतिहास में हमेशा एक घाव के रूप में रिसता है कि उस दिन रानी कर्णवती ने बहुत सी महिलाओं सहित जौहर किया. तब राखी की लाज रखते हुए हुमायूँ ने बहादुर शाह से युद्ध किया और विजय प्राप्त की. हुमायूं ने चित्तौड़ का राज रानी कर्णवती के पुत्र विक्रमजीत सिंह को सौंप दिया.


रानी कर्णवती और हुमायूं की इस राखी की पवित्रता को राजस्थान की मिट्टी कभी नहीं भुला सकेगी, क्योंकि रानी कर्णवती और हुमायूँ के इस पवित्र रिश्ते और राखी के महत्व को राजस्थानी भाषा के अनेक कथाकारों और कवियों ने अपनी वाणी दे कर हमेशा हमेशा के लिए अमर कर दिया.


अलेक्जेंडर और पुरू 

अलेक्जेंडर व पुरू के बीच भी रक्षा सूत्र का बहुत पुराना नाता था। हमेशा विजयी रहने वाला अलेक्जेंडर भारतीय राजा पुरू की प्रखरता से काफी विचलित हुआ। इससे अलेक्जेंडर की पत्नी काफी तनाव में आ गईं थीं। उसने रक्षाबंधन के त्योहार के बारे में सुना था। सो, उन्होंने भारतीय राजा पुरू को राखी भेजी। तब जाकर युद्ध की स्थिति समाप्त हुई थी। क्योंकि भारतीय राजा पुरू ने अलेक्जेंडर की पत्नी को बहन मान लिया था।




रक्षा का बंधन:- भाई के लिए किस रंग की राखी

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रक्षा बंधन का त्योहार 20 अगस्त, को है। बाजार में अभी से इस पर्व की रौनक देखी जा सकती है। भाई अपनी बहनों के लिए तोहफे ले रहे हैं वहीं बहनें अपने भाइयों की कलाई पर बांधने के लिए सुंदर राखियां पसंद कर रही हैं।

रक्षा बंधन पर ध्यान रखें
भाई-बहन के रिश्ते को और भी बेहतर बनाया जा सकता है। रक्षा सूत्र बांधने से पूर्व अपने इष्ट देव का स्मरण अवश्य करें।
कच्चा धागा बहन अपने भाई की कलाई पर बांधती है और यही कच्चा धागा जीवनभर के संबंध को पक्का कर देता है। बहन जन्मतिथि के अनुसार राखी का चयन करें और भाई के लिए सौभाग्य लाता है।
हमारे देश में पर्वों के वर्ण भी तय किए गए हैं। वर्ण व्यवस्था के संदर्भ में न होकर त्योहारों की प्रकृति से जुड़ा है। रक्षाबंधन के संदर्भ में इसका संकेत यह है कि इसी दिन ब्राह्मण अपने जनेऊ बदलते हैं और तीर्थ स्थानों पर जाकर श्रावणी कर्मकांड करते हैं। इस तरह रक्षाबंधन का त्योहार वेद की आराधना, वैदिक कर्मकांड से भी जुड़ा हुआ है। श्रावण में वर्षा से चारों ओर हरियाली, प्रकृति सौंदर्य के चरम पर होती है। रक्षाबंधन का महापर्व ज्ञान, परंपरा, प्रकृति और प्रेम का पर्व बनकर अपने संदेशों से समाज में प्रसार करता है।

यदि राखी के रंग का चयन जन्मतिथि के अनुसार किया जाए तो जातक के जीवन में अधिक खुशी और श्रेष्ठता लाती है। रक्षाबंधन की पौराणिक मान्यता भी है। पहला रक्षा सूत्र इंद्राणी ने अपने पति इंद्र को बांधा था। तभी से रक्षासूत्र के माध्यम से मंगल की कामना का पर्व प्रारंभ हुआ। आगे चलकर भाई-बहनों के रिश्ते के संदर्भ में प्रचलित हो गया।