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करें पैसों से पर्स भरने वाले चमत्कारी उपाय

 
 
शास्त्रों के मुताबिक देव-दानव द्वारा किए समुद्र मंथन में घातक जहर से लेकर अनमोल और चमत्कारी निधियां बाहर निकली। इससे निकले हलाहल यानी विष को महादेव ने पीकर हाहाकार कर रहे जगत की रक्षा की और नीलकंठ के रूप में पूजनीय बने। वहीं इसी समुद्र मंथन से सुख और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी प्रकट हुई और उन्होंने भगवान विष्णु को अपना स्वामी चुना। 
 
धार्मिक मान्यता है कि समुद्र मंथन से निकले इस हलाहल को शिव ने श्रावण माह में ही पिया था। इसी तरह शास्त्रों में अमावस्या देवी उपासना का विशेष दिन है। खासतौर पर जगतजननी के तीन रूपों में एक माता महालक्ष्मी की पूजा वैभव व समृद्धि देने वाली मानी गई है। 
 
यही कारण है कि आज श्रावणी अमावस्या को आर्थिक तंगी या धन अभाव दूर करने, नौकरी या कारोबार में भरपूर कमाई की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान शिव व माता लक्ष्मी की पूजा का शास्त्रों में यहां बताए जा रहे 2 छोटे से मंत्र उपाय बहुत असरदार माने गए हैं। यह घर-परिवार को रोग और दरिद्रता से मुक्त करने के साथ धन लाभ देते हैं। 

यह उपाय है - अमावस्या की शाम शिव व महालक्ष्मी के सामने विशेष मंत्र से घी का दीप लगाना। महालक्ष्मी पूजा में दीप दु:ख व दरिद्रता नाश का उपाय माना जाता है। जानिए यह मंत्र और आसान पूजा उपाय कैसे करें -
 
- शाम को महालक्ष्मी की तस्वीर को लाल वस्त्र पर अक्षत यानी चावल की आठ पंखुडिय़ों वाला फूल बनाकर स्थापित करें। इसी तरह चांदी के छोटे शिवलिंग भी विराजित करें। 
 
- माता लक्ष्मी व शिव की पंचोपचार पूजा करें। लक्ष्मी पूजा में लाल पूजा सामग्री जैसे लाल चंदन, लाल गंध, फूल व शिव पूजा में सफेद पूजा सामग्री यानी सफेद चंदन, सफेद फूल, बिल्वपत्र अर्पित कर अगली स्लाइड में बताए मंत्रों के साथ घी का दीप जलाएं व लक्ष्मी-शिव का ध्यान करें-

दीप मंत्र - 
कार्पासवर्तिसंयुक्तं घृतयुक्तं मनोहरम्।
तमोनाशकरं दीपं गृहाण परमेश्वरि।। 
लक्ष्मी मंत्र - 
ऊँ आप: सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीतवस मे गृहे। 
निचदेवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले।। 
शिव मंत्र - 
ऊँ भगवते साम्बसदाशिवाय नम:।।
- बाद नैवेद्य अर्पित कर व आरती करें


 
 
देव या इष्ट सिद्धि के लिए मंत्र जप का विशेष महत्व है। मंत्र जप न केवल कामनापूर्ति का श्रेष्ठ साधन है, बल्कि यह देवीय व आध्यात्मिक शक्तियों द्वारा मन व शरीर को ऊर्जावान, एकाग्र व संयमशील भी बनाता है। इसका लाभ चरित्र, स्वभाव और व्यवहार में अनुशासन व अच्छे बदलावों के रूप में मिलता है। 
 
बहरहाल, मंत्र जप की सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के नजरिए से बात करें तो शास्त्रों में अलग-अलग आठ दिशाओं में मुख कर देव विशेष के मंत्र जप से विशेष फल मिलने के बारे में बताया गया है। इस कड़ी में सावन माह में शिव मंत्रों के जप भी शुभ माने गए हैं। इनमें अन्य कामनाओं के अलावा खासतौर पर धन कामना पूरी करने के लिए भी खास दिशा में मुंह कर मंत्र जप का महत्व बताया गया है। जानिए किस दिशा में मुंह करके जप करने से कौन-सा फल मिलता है
 
'रुद्राक्ष' शिव भक्ति का अहम अंग है। यह भगवान शिव का साक्षात् स्वरूप भी माना जाता है। अलग-अलग तरह के रुद्राक्ष पहनना, रुद्राक्ष माला से शिव मंत्र का जप या किसी भी अन्य तरीके से रुद्राक्ष का उपयोग जीवन को कलहमुक्त, सफल, सुकूनभरा और खुशहाल बनाने वाला माना गया है। 
 
शास्त्रों के मुताबिक अलग-अलग रूप, आकार व रंग के रुद्राक्ष कामना विशेष को पूरा करने वाले होते हैं। इनको पहनने या उपयोग करने के धार्मिक उपाय, कर्मकांड व मंत्र नियत हैं। किंतु हर इंसान इन शास्त्रोक्त नियमों को नहीं जानता या वक्त की कमी से इनको अपना नहीं पाता। 
 
धर्म आस्था और सुविधा के नजरिए से यहां बताया जा रहा है, रुद्राक्ष धारण करने का एक सरल और असरदार उपाय। इसे कोई भी इंसान सावन माह या साल में किसी भी सोमवार को अपना कर मनचाहा रुद्राक्ष पहन मनोरथ सिद्धि व परेशानियों से छुटकारा पा सकता है। जानिए
गोस्वामी तुलसीदास
आज के समय में हनुमानजी की भक्ति सभी इच्छाओं को पूरी करने वाली है। हनुमानजी को मनाने के लिए हनुमान चालीसा का पाठ सबसे सरल उपाय है। हनुमान चालीसा की रचना गोस्वामी तुलसीदास ने सैकड़ों वर्ष पहले की थी और आज भी यह सबसे ज्यादा लोकप्रिय स्तुति है।
 
तुलसीदास और हनुमानजी से जुड़ी खास बातें, जो अधिकतर लोग जानते नहीं हैं गोस्वामी तुलसीदास ने बहुचर्चित और प्रसिद्ध श्रीरामचरितमानस की रचना की। श्रीरामचरितमानस की रचना सैकड़ों वर्ष पहले की गई थी और आज भी यह सबसे अधिक बिकने वाला ग्रंथ है। वेद व्यास द्वारा रचित रामायण का सरल रूप श्रीरामचरित मानस है। यह ग्रंथ सरल होने  के कारण ही आज भी सबसे अधिक प्रसिद्ध है। हनुमान चालीसा की रचना भी तुलसीदासजी ने ही की है।

उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले से कुछ दूरी पर राजापुर नाम का एक गांव है। इसी गांव में संवत् 1554 के आसपास गोस्वामी तुलसीदास का जन्म हुआ था। तुलसीदास के पिता आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास का जन्म श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन हुआ था।
 
ऐसी मान्यता है कि तुलसीदास जन्म के समय पूरे बारह माह तक माता के गर्भ में रहने की वजह से काफी तंदुरुस्त थे और उनके मुख में दांत भी दिखायी दे रहे थे।
 
सामान्यत: जन्म के बाद सभी शिशु रोया करते हैं किन्तु इस शिशु ने जो पहला शब्द बोला वह राम था। इसी वजह से तुलसीदास का प्रारंभिक नाम रामबोला पड गया।
 
माता हुलसी तुलसीदास को जन्म देने के बाद दूसरे दिन ही मृत्यु को प्राप्त हो गईं। तब पिता आत्माराम ने नवजात शिशु रामबोला को एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। जब रामबोला साढ़े पांच वर्ष का हुआ तो वह दासी भी जीवित न रही। अब रामबोला किसी अनाथ बच्चे की तरह गली-गली भटकने को विवश हो गया।
इसी प्रकार भटकते हुए एक दिन नरहरि बाबा से रामबोला भेंट हुई। नरहरि बाबा उस समय प्रसिद्ध संत थे। उन्होंने रामबोला का नया नाम तुलसीराम रखा।  इसके बाद वे तुलसीराम को अयोध्या, उत्तर प्रदेश ले आए और वहां उनका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया।
 
तुलसीराम ने संस्कार के समय बिना सिखाए ही गायत्री-मन्त्र का स्पष्ठ उच्चारण किया, जिसे देखकर सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। इसके बाद नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पांच संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया।
 
तुलसीराम की बुद्धि बहुत तेज थी। वह एक ही बार में गुरु-मुख से जो भी सुन लेता, उसे वह तुरंत याद हो जाता।

तुलसीराम का विवाह रत्नावली नाम की बहुत सुंदर कन्या से हुआ था। विवाह के समय तुलसीराम की आयु लगभग 29 वर्ष थी। विवाह के तुरंत बाद तुलसीराम बिना गौना किए काशी चले आए और अध्ययन में जुट गए। इसी प्रकार एक दिन उन्हें अपनी पत्नी रत्नावली की याद आई और वे उससे मिलने के लिए व्याकुल हो गए। तब वे अपने गुरुजी से आज्ञा लेकर पत्नी रत्नावली से मिलने जा पहुंचे।
 
रत्नावली मायके में थीं और जब तुलसीराम उनके घर पहुंचे तब यमुना नदी में भयंकर बाढ़ थी और वे नदी में तैर कर रत्नावली के घर पहुंचे थे। उस समय भयंकर अंधेरा था। जब तुलसीराम पत्नी के शयनकक्ष में पहुंचे तब रत्नावली उन्हें देखकर आश्चर्यचकित हो गई। लोक-लज्जा की चिंता से उन्होंने तुलसीराम को वापस लौटने को कहा।
जब तुलसीराम वापस लौटने के लिए तैयार न हुए तब रत्नावली ने उन्हें एक दोहा सुनाया, वह दोहा इस प्रकार है...
 
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति!
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत?
 
यह दोहा सुनते ही तुलसीराम उसी समय रत्नावली को पिता के घर छोड़कर वापस अपने गांव राजापुर लौट आए। जब वे राजापुर में अपने घर पहुंचे तब उन्हें पता चला कि उनके पिता भी नहीं रहे। तब किसी उन्होंने पिता का अंतिम संस्कार किया और उसी गांव में लोगों को श्रीराम कथा सुनाने लगे।
 
समय इसी प्रकार गुजरने लगा। कुछ समय राजापुर में रहने के बाद वे पुन: काशी लौट आए और वहां राम-कथा सुनाने लगे। इसी दौरान तुलसीराम को  एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमानजी का पता बताया। हनुमानजी से मिलकर तुलसीराम ने उनसे श्रीराम के दर्शन कराने की प्रार्थना की। तब हनुमानजी ने कहा उन्हें कहा कि चित्रकूट में रघुनाथजी दर्शन होंगें। इसके बाद तुलसीदासजी चित्रकूट की ओर चल पड़े।
चित्रकूट पहुंच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके कि वे ही श्रीराम और लक्ष्मण हैं।
 
इसके बाद हनुमानजी ने आकर बताया जब तुलसीदास को पश्चाताप हुआ। तब हनुमानजी ने उन्हें सांत्वना दी और कहा आप प्रात:काल फिर श्रीराम के दर्शन कर सकेंगे।
 
इसके बाद अगले दिन सुबह-सुबह पुन: श्रीराम प्रकट हुए। इस बार वे एक बालक रूप में तुलसीदास के समक्ष आए थे। श्रीराम ने बालक रूप में तुलसीदास से कहा कि उन्हें चंदन चाहिए। यह सब हनुमानजी देख रहे थे और उन्होंने सोचा कि तुलसीदास इस बार भी श्रीराम को पहचान नहीं पा रहे हैं। तब बजरंगबली ने एक दोहा कहा कि
 
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥
 
यह दोहा सुनकर तुलसीदास श्रीरामजी की अद्भुत दर्शन किए। श्रीराम के दर्शन की वजह से तुलसीदासजी सुध-बुध खो बैठे थे। तब भगवान राम ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर स्वयं के मस्तक पर  तथा तुलसीदासजी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गए।
 
संवत् 1628 में तुलसीदास हनुमानजी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। रास्ते में उस समय प्रयाग में माघ का मेला लगा हुआ था। तुलसीदास कुछ दिन के लिए वहीं रुक गए।
 
मेले में एक दिन तुलसीदास को किसी वटवृक्ष के नीचे भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहां वही कथा हो रही थी, जो उन्होंने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी।
 
मेला समाप्त होते ही तुलसीदास प्रयाग से पुन: काशी आ गए और वहां एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व शक्ति जागृत हुई। अब वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। तुलसीदास दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब भूल जाते। यह घटना रोज हो रही थी। तब एक दिन भगवान शंकर ने तुलसीदास जी को सपने आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो।
 
 
नींद से जागने पर तुलसीदास ने देखा कि उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान होगी।
 
जब संवत् 1631 का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रात:काल तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की।
दो वर्ष, सात महीने और छब्बीस दिन में इस अद्भुत ग्रन्थ की रचना हुई। संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हुए।
 
 

Asharam Bapu

 पूरी दुनिया में भारत की एक पहचान साधू-संतों को लेकर भी है। देश में धर्म की रक्षा के लिये और समाज को सात्विक ज्ञान देने के लिये आज भी कई संत-महात्मा लगातार प्रयासरत है लेकिन देश में कुछ ऐसे असामाजिक तत्व और इनका एक गैंग ऐसा भी है तो लगातार संतों को बदनाम करने की साजिश रचते रहता है जिसके शिकार साधू-संत हो रहे हैं। संत श्री आशाराम जी बापू के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ,  आसाराम जी बापू देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपने सत्संग और मधुर वाणी के जरिये लोगों में भारतीय धर्म और ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं। 


Hanuman ji se Maokamna ki Arji


भारतीय संस्कृति में माता पिता को देवता तुल्य माना जाता है। इसलिए शास्त्र वचन है कि पितरो के प्रसन्न होने पर सारे देव प्रसन्न हो जाते है। ब्रह्मपूराण के अनुसार श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाला मनुष्य अपने पितरो के अलावा ब्रह्म, इन्द्र, रूद्र, अश्विनी कुमार, सुर्य, अग्नि, वायु, विश्वेदेव, एवं मनुष्यगण को भी प्रसन्न कर देता है।  मृत्यु के पश्चात हमारा स्थूल शरीर तो यही रह जाता है। परंतु सूक्ष्म शरीर यानि आत्मा मनुष्य के शुभाशुभ कर्माे के अनुसार किसी लोक विशेष को जाती है। शुभकर्माे से युक्त आत्मा अपने प्रकाश के कारण ब्रह्मलोक, विष्णुलोक एवं स्वर्गलोक को जाती है। परंतु पापकर्म युक्त आत्मा पितृलोक की ओर जाती है। इस यात्रा में उन्हे भी शक्ति की आवश्यकता होती है जिनकी पूर्ति हम पिंड दान द्वारा करते है। - See more at: http://www.samacharagency.com/newsdetail.php?id=6_.2193#sthash.bmOkTlhp.dpuf



पित्र या पितृ या पिता का भाव - जन्म कुंडली का नवम भाव बेहद महत्वपूर्ण भाव होता है । यह भाव जहां पिता के सुख, आयु व समृध्दि का कारक है वहीं यह जातक के स्वयं के भाग्य, तरक्की, धर्म, संबधी रूझान को बताता है ।

सूर्य पिता का कारक होता है, वहीं सूर्य जातक को मिलने वाली तरक्की, उसके प्रभाव क्षेत्र का कारक होता है। ऐसे में सूर्य के साथ यदि राहु जैसा पाप ग्रह आ जाए तो यह ग्रहण योग बन जाता है अर्थात सूर्य की दीप्ति पर राहु की छाया पड़ जाती है । ऐसे में जातक के पिता को मृत्यु तुल्य कष्ट होता है, जातक के भी भाग्योदय में बाधा आती है, उसे कार्यक्षेत्र में विविध संकटों का सामना करना पड़ता है। जब सूर्य और राहु का योग नवम भाव में होता है तो इसे पितृ-दोष, पितृदोष, पित्रदोष या पित्री दोष कहा जाता है ।

सूर्य और राहु की युति जिस भाव में भी हो उस भाव के फलों को नष्ट ही करती है और जातक की उन्नति में सतत बाधा डटालती है । विशेषकर यदि चौथे, पांचवे, दसवें, पहले भाव में हो तो जातक का सारा जीवन संघर्षमय रहता है । सूर्य प्रगति, प्रसिध्दि का कारक है और राहु केतु की छाया प्रगति को रोक देती है । अत: यह युति किसी भी भाव में हो मुश्कलें ही पैदा करती है । 

निवारण - पितृ दोष के बारे में मनीषियों का मत है कि पूर्व जन्म के पापों के कारण या पितरो के शाप के कारण यह दोष कुंडली में प्रकट होता है । अत: पित्र का निवारण पितृ पक्ष में शास्त्रोक्त विधि से किया जाता है ।
अन्य उपाय -

(1) प्रत्येक अमावस्या को एक ब्राह्मण को भोजन कराने व दक्षिणा वस्त्र भेंट करने से पितृ दोष कम होता है ।
(2) प्रत्येक अमावस्या को कंडे की धूनी लगाकर उसमें खीर का भोग लगाकर दक्षिण दिशा में पितरों का आव्हान करने व उनसे अपने कर्मों के लिये क्षमायाचना करने से भी लाभ मिलता है ।
(3) पिता का आदर करने, उनके चरण स्पर्श करने, पितातुल्य सभी मनुष्यों को आदर देने से सूर्य मजबूत होता है ।
(4) सूर्योदय के समय किसी आसन पर खड़े होकर सूर्य को निहारने, उससे शक्ति देने की प्रार्थना करने और गायत्री मंत्र का जाप करने से भी सूर्य मजबूत होता है ।
(5) सूर्य को मजबूत करने के लिए माणिक भी पहना जाता है, मगर यह कूंडली में सूर्य की स्थिति पर निर्भर करता है ।
यह तय है कि पितृदोष होने से जातक को श्रम अधिक करना पड़ता है, फल कम व देर से मिलता है । अत: इस हेतु मानसिक तैयरी करना व परिश्रम की आदत डालना श्रेयस्कर रहता है ।

पितृदोष निवारण




पित्र या पितृ या पिता का भाव - जन्म कुंडली का नवम भाव बेहद महत्वपूर्ण भाव होता है । यह भाव जहां पिता के सुख, आयु व समृध्दि का कारक है वहीं यह जातक के स्वयं के भाग्य, तरक्की, धर्म, संबधी रूझान को बताता है ।

सूर्य पिता का कारक होता है, वहीं सूर्य जातक को मिलने वाली तरक्की, उसके प्रभाव क्षेत्र का कारक होता है। ऐसे में सूर्य के साथ यदि राहु जैसा पाप ग्रह आ जाए तो यह ग्रहण योग बन जाता है अर्थात सूर्य की दीप्ति पर राहु की छाया पड़ जाती है । ऐसे में जातक के पिता को मृत्यु तुल्य कष्ट होता है, जातक के भी भाग्योदय में बाधा आती है, उसे कार्यक्षेत्र में विविध संकटों का सामना करना पड़ता है। जब सूर्य और राहु का योग नवम भाव में होता है तो इसे पितृ-दोष, पितृदोष, पित्रदोष या पित्री दोष कहा जाता है ।

सूर्य और राहु की युति जिस भाव में भी हो उस भाव के फलों को नष्ट ही करती है और जातक की उन्नति में सतत बाधा डटालती है । विशेषकर यदि चौथे, पांचवे, दसवें, पहले भाव में हो तो जातक का सारा जीवन संघर्षमय रहता है । सूर्य प्रगति, प्रसिध्दि का कारक है और राहु केतु की छाया प्रगति को रोक देती है । अत: यह युति किसी भी भाव में हो मुश्कलें ही पैदा करती है । 

निवारण - पितृ दोष के बारे में मनीषियों का मत है कि पूर्व जन्म के पापों के कारण या पितरो के शाप के कारण यह दोष कुंडली में प्रकट होता है । अत: पित्र का निवारण पितृ पक्ष में शास्त्रोक्त विधि से किया जाता है ।
अन्य उपाय -

(1) प्रत्येक अमावस्या को एक ब्राह्मण को भोजन कराने व दक्षिणा वस्त्र भेंट करने से पितृ दोष कम होता है ।
(2) प्रत्येक अमावस्या को कंडे की धूनी लगाकर उसमें खीर का भोग लगाकर दक्षिण दिशा में पितरों का आव्हान करने व उनसे अपने कर्मों के लिये क्षमायाचना करने से भी लाभ मिलता है ।
(3) पिता का आदर करने, उनके चरण स्पर्श करने, पितातुल्य सभी मनुष्यों को आदर देने से सूर्य मजबूत होता है ।
(4) सूर्योदय के समय किसी आसन पर खड़े होकर सूर्य को निहारने, उससे शक्ति देने की प्रार्थना करने और गायत्री मंत्र का जाप करने से भी सूर्य मजबूत होता है ।
(5) सूर्य को मजबूत करने के लिए माणिक भी पहना जाता है, मगर यह कूंडली में सूर्य की स्थिति पर निर्भर करता है ।
यह तय है कि पितृदोष होने से जातक को श्रम अधिक करना पड़ता है, फल कम व देर से मिलता है । अत: इस हेतु मानसिक तैयरी करना व परिश्रम की आदत डालना श्रेयस्कर रहता है ।

पित्र पक्ष

 
पित्र पक्ष आते ही अपने पितरों के प्रति एक श्रधा भाव मन में जागता है । उन पितरों के प्रति जिनको हम जानते भी है और नहीं भी जांए है लेकिन उनकी वजह से हमारा वजूद इस धरती पर है । यह पितृ पक्ष उन्ही दिवंगत आत्माओं को समर्पित है ।

पितृ पक्ष में दो चीजों का बहुत ही महत्व होता है , एक तर्पण का दूसरा पिंड दान का । तर्पण कोई भी अपने पितृ के प्रति करवा सकता है लेकिन पिंड दान का अधिकार पुत्र या पोता को ही है । पिंड दान के लिए गया जी , पुष्कर, कुरुक्षेत्र का बहुत ही महत्व है । पिंड दान से दिवंगत आत्मा को शान्ति तो मिलती ही है , उसके इलावा हमारा पित्र दोष भी शांत होता है । दिवंगत के लिए उनकी तिथि पर पिंड दान या तर्पण तो महतवपूर्ण तो है ही लेकिन एक और महत्व पूर्ण चीज है पित्र्पक्ष के अमावास को दान देना , क्यों की अमावास को दान सर्वपित्र के लिए दिया जाता है । जो की सब लोगो को देना चाहिए । चाहे छोटा बच्चा हो या बुजुर्ग व्यक्ति । क्यों की इस दान से पितृ दोष नहीं लगता है , जीवन में व्यक्ति निरंतर सफलता प्राप्त करता है । इस दान से अकाल मृत्यु का भय नहीं होता है । वंश वृद्धि होती है , क्यों की ये दान हम जिन पितरों को जानते है या नहीं जानते है उन सब को समर्पित होता है । दान में जों , काला तिल , कुछ सफ़ेद मिठाए, चावल , चीनी , घी, दूध , और खीर बना कर दान दिया जाता है । इस दिन ब्रह्मण को भोजन आवस्य करवाए तथा वस्त्र दान दे। सर्व पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है । इस दान को सबसे उत्तम मन गया है ।

पितृपक्ष : पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का महापर्व


 
पितृपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने, उनका स्मरण करने और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्ति करने का महापर्व है। इस अवधि में पितृगण अपने परिजनों के समीप विविध रूपों में मंडराते हैं और अपने मोक्ष की कामना करते हैं। परिजनों से संतुष्ट होने पर पूर्वज आशीर्वाद देकर हमें अनिष्ट घटनाओं से बचाते हैं।

वास्तुविद डॉ. दीपक शर्मा ने बताया कि जिस तिथि में माता-पिता का देहांत हुआ है, उस तिथि में श्राद्ध करना चाहिए। पिता के जीवित रहते हुए यदि माता की मृत्यु हो गई हो तो उनका श्राद्ध मृत्यु तिथि को न कर नवमीं तिथि को करना चाहिए।
ज्योतिष मान्यताओं के आधार पर सूर्यदेव जब कन्या राशि में गोचर करते हैं तब हमारे पितर अपने पुत्र-पौत्रों के यहां विचरण करते हैं। विशेष रूप से वे तर्पण की कामना करते हैं। श्राद्ध से पितृगण प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध करने वालों को सुख-समृद्धि, सफलता, आरोग्य और संतानरूपी फल देते हैं।

पितृपक्ष में क्या करें :-
* पशु-पक्षियों को भोजन कराएं।
* गरीबों और ब्राह्मणों को अपने सामर्थ्यनुसार दान करें।
* शुभ और कोई नए कार्य की शुरुआत न करें।
* पितृस्त्रोत का पाठ करें।

श्राद्ध पक्ष में करें



 पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है। पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं :-
एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध
नाग बलि कर्म
नारायण बलि कर्म
त्रिपिण्डी श्राद्ध
महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म
इसके अलावा प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु 'नांदी-श्राद्ध' कर्म किया जाता है। दैनंदिनी जीवन, देव-ऋषि-पित्र तर्पण किया जाता है।
उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए।
कैसे करें श्राद्ध कर्म
महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए। यह जिज्ञासा सहजतावश अनेक व्यक्तियों में रहती है।
यदि हम किसी भी तीर्थ स्थान, किसी भी पवित्र नदी, किसी भी पवित्र संगम पर नहीं जा पा रहे हैं तो निम्नांकित सरल एवं संक्षिप्त कर्म घर पर ही अवश्य कर लें :-
प्रतिदिन खीर (अर्थात्‌ दूध में पकाए हुए चावल में शकर एवं सुगंधित द्रव्य जैसे इलायची केशर मिलाकर तैयार की गई सामग्री को खीर कहते हैं) बनाकर तैयार कर लें।
गाय के गोबर के कंडे को जलाकर पूर्ण प्रज्वलित कर लें।
उक्त प्रज्वलित कंडे को शुद्ध स्थान में किसी बर्तन में रखकर, खीर से तीन आहुति दे दें।
इसके नजदीक (पास में ही) जल का भरा हुआ एक गिलास रख दें अथवा लोटा रख दें।
इस द्रव्य को अगले दिन किसी वृक्ष की जड़ में डाल दें।
भोजन में से सर्वप्रथम गाय, काले कुत्ते और कौए के लिए ग्रास अलग से निकालकर उन्हें खिला दें।
इसके पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराएँ फिर स्वयं भोजन ग्रहण करें।
पश्चात ब्राह्मणों को यथायोग्य दक्षिणा दें।
गाय
काला कुत्ता
कौआ
श्राद्ध कब और कौन करे
माता-पिता की मरणतिथि के मध्याह्न काल में पुत्र को श्राद्ध करना चाहिए।
जिस स्त्री के कोई पुत्र न हो, वह स्वयं ही अपने पति का श्राद्ध कर सकती है।

अगर आप ऐसे सोते हैं तो होंगे भाग्यशाली





जिस तरह हर व्यक्ति का चेहरा, आंख, नाक एक दूसरे से अलग होता है उसी प्रकार सोने का तरीका भी अलग होता है। कोई व्यक्ति पैर पर पैर चढ़ाकर सोता है तो कोई पेट के बल लेटकर सोता है। कुछ लोगों की आंखें सोते समय अधखुली रहती है इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि वह सोने का बहाना करके लेटा है।
 
समुद्रशास्त्र में बताया गया है कि सोने के इन तरीकों से व्यक्ति के स्वभाव और व्यक्तित्व के गुणों को भी जाना जा सकता है। यहां तक की सोने के तरीके से यह भी जान सकते हैं कि आप कितने भाग्यशाली हैं।

माना जाता है कि जिनकी आंखें सोते समय अधखुली होती है वह बड़े ही भाग्यशाली होते हैं इन्हें कम परिश्रम में ही जीवन का हर सुख प्राप्त हो जाता है। इसका कारण यह भी है कि जिनकी आंखें सोते समय अधखुली होती है वह अपने मतलब की बातों पर पैनी नज़र रखते हैं। और मौके का लाभ उठाने के लिए तत्पर रहते हैं।

जो लोग पीठ के बल सोते हैं वह उर्जावान और सक्रिय होते हैं। यह जीवन में आने वाली हर चुनौतियों का सामना धैर्य पूर्वक करते हैं और परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। ऐसे लोग काफी जिम्मेदार होते हैं। परिवार के साथ ही साथ कार्यक्षेत्र की जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभाने की कोशिश करते हैं।

पेट के बल लेटकर सोने वाले व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों से घबराते हैं। ऐसे व्यक्ति अपनी खामियों को छुपाने की कोशिश करते हैं यही कराण है कि इन्हें जीवन में काफी संघर्ष करना पड़ता है। इसी प्रकार जिन लोगों को शरीर को ढ़ककर सोने की आदत होती है उन्हें भी काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

भाग्यशाली लोगों की तर्जनी उंगली

अंगूठे और मध्यमा उंगली के बीच जो उंगली होती है उसे तर्जनी उंगली कहते हैं। इस उंगली के नीचे गुरू पर्वत यानी गुरू का स्थान होता है। इसलिए इस उंगली को धर्म और धन का स्थान भी कहा जाता है। अपनी इस उंगली को गौर से देखिए। उंगली की लंबाई कितनी है और इसका झुकाव किस ओर है। हस्तरेखा विज्ञान कहता है कि तर्जनी उंगली की लंबाई अगर मध्यमा से अधिक है तो व्यक्ति भाग्यशाली होता है।

ऐसा व्यक्ति स्वभाव से गंभीर होता है और उच्च पद को प्राप्त करता है। लेकिन इन्हें अपनी योग्यता और पद का अभिमान भी रहता है। इनमें दूसरों पर प्रभाव जताने की प्रवृति होती है। ऐसे लोगों में बदले की भावना तीव्र होती है। जिस व्यक्ति की तर्जनी उंगली अनामिका उंगली के बराबर होती है वह निष्ठावान होते हैं। इनमें दूसरों की मदद करने की स्वभाविक प्रवृति होती है। यह जिन कार्यों से जुड़े होते हैं उसमें कार्यकुशलता हासिल करते हैं।

अपनी इस प्रवृति के कारण जीवन में सफल होते हैं। लेकिन इनमें असत्य बोलने की प्रवृति हो सकती है। तर्जनी उंगली का अनामिका से छोटी होना अच्छा नहीं माना जाता है। ऐसे लोग जल्दी निराश हो जाते हैं। इनके अंदर ईर्ष्या की भावना रहती है और यह किसी भी प्रकार से अपने लक्ष्य को पाने की कोशिश करते हैं। मध्यमा उंगली से यह उंगली दूर होने पर व्यक्ति बहुत अधिक झूठ बोलने वाला होता है। हस्त रेखा विज्ञान के अनुसार तर्जनी की लंबाई मध्यमा के बराबर होने पर व्यक्ति असामान्य मानसिकता वाला होता है।

तर्जनी उंगली का झुकाव अंगूठे की ओर होना दर्शाता है कि व्यक्ति बहुत अधिक महत्वाकांक्षी और दृढ़ इच्छा वाला है। इसके विपरीत यह उंगली मध्यमा की ओर मुड़ी हुई हो तो यह दर्शाता है कि व्यक्ति निराशावादी होगा। इनमें निर्णय क्षमता की कमी हो सकती है। छोटी सी असफलता से यह घबरा जाते हैं।