Balaji Darbar: पितृ-दोष निवारण के उपाय
Balaji Darbar: पितृ-दोष निवारण के उपाय: www.balajidarbar.com ऊँ नमः शिवाय मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें। रूद्र सूक्त से अभिमंत्रित जल से स्नान करने से यह योग शिथिल ...
पितृ-दोष निवारण के उपाय
www.balajidarbar.com |
- ऊँ नमः शिवाय मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें।
- रूद्र सूक्त से अभिमंत्रित जल से स्नान करने से यह योग शिथिल हो जाता हैं।
- हर पुष्य नक्षत्र को महादेव पर जल एवं दुग्ध चढाएं तथा रूद्र का जप एवं अभिषेक करें।
- हर सोमवार को दही से महादेव का ‘‘ऊँ हर-हर महादेव‘‘ कहते हुए अभिषेक करें।
- शिवलिंग पर तांबे का सर्प अनुष्ठानपूर्वक चढ़ाऐ। पारद के शिवलिंग बनवाकर घर में प्राण प्रतिष्ठित करवाए।
- सर्प सूक्त‘‘ का पाठ भी कालसर्प योग में राहत देता हैं।
- नाग पंचमी का वृत करें, नाग प्रतिमा की अंगुठी पहनें।
- नाग योनी में पड़े पित्रों के उद्धार तथा अपने हित के लिए
- नागपंचमी के दिन चादी के नाग की पूजा करें।
- कालसर्प योग यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा करवाकर नित्य पूजन करें।
- घर एवं दुकान में मोर पंख लगाये।
- नारियल का फल बहते पानी में बहाना चाहिए। लाल मसुर की दाल और कुछ पैसे प्रातःकाल सफाई करने वाले को दान करे।
- पक्षियों को जौ के दाने खिलाने चाहिए।
- सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण के दिन सात अनाज से तुला दान करें।
- राहु-केतु की वस्तुओं का दान करें। राहु का रत्न गोमेद पहनें। चांदी का नाग बना कर उंगली में धारण करें।
- राहू केतु के जप, अनुष्ठान आदि योग्य विद्धान से करवाने चाहिए।
- राहु एवं केतु के नित्य 108 बार जप करने से भी यह योग शिथिल होता हैं। राहु माता सरस्वती एवं केतु श्री गणेश की पूजा से भी प्रसन्न होता हैं।
- कुलदेवता की पूजा अर्चना नित्य करनी चाहिए।
- शयन कक्ष में लाल रंग की चादर, तकिये का कवर, तथा खिड़की दरवाजो में लाल रंग के ही पर्दो का उपयोग करें।
- वैवाहिक जीवन में बाधा आ रही हो तो पत्नि के साथ सात शुक्रवार नियमित रूप से किसी देवी मंदिर में सात परिक्रमा लगाकर पान के पत्ते में मक्खन और मिश्री का प्रसाद रखें पति पत्नि एक-एक सफेद फूल अथवा सफेद फूलों की माला देवी माँ के चरणों में चढाए।
मंगल हैं पितृ दोष?
www.balajidarbar.com
पितृ-दोष पीढ़ी दर पीढ़ी
होते रहते हैं। हमें अपने पूर्व जन्मों के कर्मो के अनुसार ही वेश, जाति, परिवार एवं माता-पिता के
यहाँ ही जन्म लेना पड़ता हैं, जिनसे पूर्व जन्मों में
हमारे सम्बन्ध रहे हैं, एवं उनके साथ रहकर उनकी स्वीकृति अथवा सहयोग
से हमने पाप या पुण्य कर्म किये होते हैं। चूंकि मंगल का संबंध रक्त से होता हे जो
पितृदोष का कारक माना जाता हैं । रक्त कम हो जाना, पितृदोष में आया मंगल रक्त
की कमी करके संतान पैदा करने की शक्ति का हनन करता हैं।
भूतकाल से वर्तमान काल तक
आती हुई अनन्त भविष्य तक गतिशील पीढि़यों के स्वभाव तो होते ही हैं पेतृक भी होते
हैं। कुछ पैतृक चिन्ह व स्वभाव आश्र्चय जनक होते हैं।
जैसे – प्रायः व्यक्ति का चेहरा
स्पष्ट हो जाता हैं कि यह व्यक्ति अमुक का पुत्र या भाई हैं। इसी प्रकार कई बार
पिता – पुत्र की वाणी बात करने के
लहजे में अद्भुत समानता देखने में आती हैं। जब व्यक्ति अपने कर्म फल लेकर मानव
योनि में उत्पन्न होता हैं तब परिवार वाले उसकी कुण्डली बनवाते हैं।
जातक की कुण्डली में
पितृ-दोष की सूचना देने में छाया ग्रह राहु– केतु की प्रमुख भुमिका
मानते है। राहू– केतु जहाँ पितृ-दोष के
प्रमुख घटक ग्र्रह हैं, तो वहीं यह दोनों ग्रह स्पष्टतया “काल सर्प योग’’ की भी धोषणा करते हैं, अर्थात राहु-केतु ही “पितृ-दोष’’ और “’काल सर्प ’’ योग के प्रमुख घटक हैं।
दोनों ही दोष जातक के पितरों व स्वंय के पूर्व जन्म व जन्मों में किये गये अशुभ
कर्मो का ही परिणाम होते हैं।
पितृ-दोष के कारण जातक का
मन पूजा पाठ में नहीं लगता और जातक को नास्तिक बनाता हैं। ईश्वर के प्रति उनकी
आस्था कम हो जाती हैं, स्वभाव चिड़चिड़ा, जिद्दी और क्रोधी हो जाता
हैं। धार्मिक कार्यो को ढकोसला मानते हैं। कुछ लोग किसी ग्रह के शुभ होने से पूजा
विधान कराना तो चाहते हैं किन्तु धन के अभाव में उन्हें टालते रहते हैं।
अकाल मृत्यु ही पितृदोष का
मुख्य कारक:- अकाल मृत्यु यानी समय से
पहले ही किसी दुर्घटना का शिकार हो जाना, ब्रह्मलीन हो जाना हैं। इस
अवस्था में मृत आत्मा तब तक तड़फती रहती हैं जब तक की उस की उम्र पूरी नहीं होती
हैं। उम्र पूरी होने के बाद भी कई मृत आत्माएँ भूत, प्रेत, नाग आदि बनकर पृथ्वी पर
विचरण करती रहती हैं और जो धार्मिक आत्माएँ रहती हैं वो किसी को भी परेशान नहीं
करती बल्कि सदैव दूसरों का भला करती हैं। लेकिन दुष्ट आत्माएँ हमेशा दूसरों को
दुःख, तकलीफ ही देती रहती हैं।
हमारे पूर्वज मृत अवस्था में जो रूप धारण करते है वह तड़पते रहते हैं। न उन्हें
पानी मिलता हैं और ना ही खाने के लिए कुछ मिलता हैं। वह आत्माएँ चाहती हैं कि उनका
लडका, पोता, पोती या पत्नी इनमें से कोई
भी उस आत्मा का उद्धार करे। पितृ-दोष परिवार में एक को
ही होता हैं। जो भी उस आत्मा के सबसे निकट होगा, जो उसे ज्यादा चाहता होगा
वही उसका मुख्य पात्र बनता हैं।
जब हम पण्डित को कुण्डली या हाथ दिखाते हैं तो वह
पितृ-दोष उसमें स्पष्ट आ जाता हैं। हाथ में पितृ-दोष, गुरू पर्वत और मस्तिष्क रेखा के बीच में से एक लाईन निकलकर जाती हैं जो
कि गुरू पर्वत को काटती हैं यह पितृ-दोष का मुख्य कारण बनती हैं। पितृ-दोष को ही
काल सर्प योग कहते हैं। काल सर्प योग पितृ-दोष का ही छोटा रूप माना जाता हैं।
पितृ-दोष को मंगल का कारक भी कहा गया हैं क्योंकि कुण्डली में मंगल को खुन के रिश्ते
से जोड़ा गया हैं। इसलिए पितृ-दोष मंगल दोष भी होता हैं जो कि शिव आराधना से दूर
होता हैं।
काल सर्प के बारे में :- एक कथा प्रचलित हैं कि जब समुद्र मंथन हुआ था तो
उसमें से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई, उसमें से
एक रत्न अमृत के रूप में भी निकला। जब अमृत निकला तो इसे ग्रहण करने के लिए
देवताओं और राक्षसों में युद्ध छिड़ने लगा तब भोलेनाथ ने समझा-बुझाकर दोनों को
पंक्ति में बैठने को कहा, विष्णु ने मोहिनी रूप धरकर अमृत का पात्र अपने पास
लेकर सभी को अमृत पान कराना आरम्भ किया। चालाक विष्णु ने पहले देवताओं वाली पंक्ति
में अमृत पान कराना आरम्भ किया, उसी समय एक दैत्य देवताओं की इस युक्ति को समझ गया
और देवता का रूप बनाकर देवता वाली पंक्ति में बैठकर अमृत पान कर लिया, जब सूर्य और चन्द्र को पता लगा तो उन्होनें विष्णु से इस बात की शिकायत
की, विष्णु जी को क्रोध आया और उन्होनें सुदर्शन चक्र
छोड़ दिया। सुदर्शन चक्र ने उस राक्षस के सर को धड़ से अलग कर दिया, क्योंकि वह अमृत पान कर चुका था इसलिए वह मरा नहीं ओर दो हिस्सों में
बंट गया। सर राहु और धड़ केतु बन गया लेकिन जब उसका सर कटकर पृथ्वी पर गिरा तब
भरणी नक्षत्र था और उसका योग काल होता हैं, जब धड़
पृथ्वी पर गिरा तब अश्लेशा नक्षत्र था जिसका योग सर्प होता हैं। इन दोनों योग के
जुड़ने से ही काल सर्प योग की उत्पत्ति हुई।
इसके कारण पारिवारिक कलह, व्यवसाय में व्यवधान, पढ़ाई में मन न लगना, सपने आना, सपनों में नाग दिखना, पहाड़ दिखना, पूरे हुए
कार्य का बीच में बिगड़ जाना, आकाश में विचरण करना, हमेशा
अनादर पाना, मन में अशान्ति रहना, शान्ति
में व्यवधान, कौआ बैठना, कौओं का
शोरगुल हमेशा अपने घर के आस-पास होना पितृ-दोष (कालसर्प योग) की निशानी होता हैं।
उपाय किसी पण्डित से ब्रह्म सरोवर सिद्ध वट पर पूजा अर्चना कर पितृ शान्ति करवानी
चाहिए।
|
पित्र दोष निवारण / पूजा
www.balajidarbar.com |
कुंडली में उपस्थित भिन्न प्रकार के दोषों के निवारण के लिए की जाने वाली पूजाओं को लेकर बहुत सी भ्रांतियां तथा अनिश्चितताएं बनीं हुईं हैं तथा एक आम जातक के लिए यह निर्णय लेना बहुत कठिन हो जाता है कि किसी दोष विशेष के लिए की जाने वाली पूजा की विधि क्या होनी चाहिए।
पित्र दोष के निवारण के लिए की जाने वाली पूजा को लेकर बहुत अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है जिसके कारण जातक को दुविधा का सामना करना पड़ता है। पित्र दोष के निवारण के लिए धार्मिक स्थानों पर की जाने वाली पूजा के महत्व के बारे में पितृ दोष के निवारण के लिए की जाने वाली पूजा है क्या।
पित्र दोष का कारण है:- जातक ने अपने पूर्वजों के मृत्योपरांत किये जाने वाले संस्कार तथा श्राद्ध आदि उचित प्रकार से नहीं किये होते जिसके चलते जातक के पूर्वज उसे शाप देते हैं जो पित्र दोष बनकर जातक की कुंडली में उपस्थित हो जाता है, उसके जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समस्याएं उत्पन्न करता है। ऐसे पित्र दोष के निवारण के लिए पित्रों के श्राद्ध कर्म आदि करने, पिंड दान करने तथा नारायण पूजा आदि का सुझाव देते हैं इन उपायों को करने वाले जातकों को पित्र दोष से कोई विशेष राहत नहीं मिलती क्योंकि पित्र दोष वास्तविकता में पित्रों के शाप से नहीं बनता अपितु पित्रों के द्वारा किये गए बुरे कर्मों के परिणामस्वरूप बनता है जिसका फल जातक को भुगतना पड़ता है, निवारण के लिए जातक को नवग्रहों में से किसी ग्रह विशेष के कार्य क्षेत्र में आने वाले शुभ कर्मों को करना पड़ता है जिनमें से उस ग्रह के वेद मंत्र के साथ की जाने वाली पूजा भी एक उपाय है जिसे पित्र दोष निवारण पूजा भी कहा जाता है।
दोष के निवारण के लिए की जाने वाली पूजा को विधिवत करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है दोष के निवारण के लिए निश्चित किये गए मंत्र होती है। पूजा के आरंभ वाले दिन पांच या सात पंडित पूजा करवाने वाले यजमान अर्थात जातक के साथ भगवान शिव के शिवलिंग के समक्ष बैठते हैं तथा शिव परिवार की विधिवत पूजा करने के पश्चात मुख्य पंडित यह संकल्प लेता है कि वह और उसके सहायक पंडित उपस्थित यजमान के लिए पित्र दोष के निवारण मंत्र जाप एक निश्चित अवधि में करेंगे तथा इस जाप के पूरा हो जाने पर पूजन, हवन तथा कुछ विशेष प्रकार के दान आदि करेंगे।
संकल्प के समय मंत्र का जाप करने वाली सभी पंडितों का नाम तथा उनका गोत्र बोला जाता है तथा इसी के साथ पूजा करवाने वाले यजमान का नाम, उसके पिता का नाम तथा उसका गोत्र भी बोला जाता है पितृ दोष के निवारण मंत्र के इस जाप से पित्र दोष का निवारण होता है।
भगवान शिव, मां पार्वती, भगवान गणेश तथा शिव परिवार के अन्य सदस्यों की पूजा फल, फूल, दूध, दहीं, घी, शहद, शक्कर, धूप, दीप, मिठाई, हलवे के प्रसाद तथा अन्य कई वस्तुओं के साथ की जाती है तथा इसके पश्चात मुख्य पंडित के द्वारा पितृ दोष के निवारण मंत्र का जाप पूरा हो जाने का संकल्प किया जाता है जिसमे यह कहा जाता है कि मुख्य पंडित ने अपने सहायक अमुक अमुक पंडितों की सहायता से इस मंत्र का जाप निर्धारित विधि में सभी नियमों का पालन करते हुए किया है जिसने जाप के शुरू होने से लेकर अब तक पूर्ण निष्ठा से पूजा के प्रत्येक नियम की पालना की है तथा इसलिए अब इस पूजा से विधिवत प्राप्त होने वाला सारा शुभ फल उनके यजमान को प्राप्त होना चाहिए।
समापन पूजा के चलते नवग्रहों से कुछ विशेष ग्रहों से संबंधित विशेष वस्तुओं का दान किया जाता है जो जातकों के लिए भिन्न हो सकता है तथा इन वस्तुओं में चावल, गुड़, चीनी, नमक, गेहूं, दाल, तेल, सफेद तिल, काले तिल, जौं तथा कंबल का दान किया जाता है। हवन की प्रक्रिया शुरू की जाती है जो जातक तथा पूजा का फल प्रदान करने वाले देवी देवताओं अथवा ग्रहों के मध्य एक सीधा तथा शक्तिशाली संबंध स्थापित करती है। विधियों के साथ हवन अग्नि प्रज्जवल्लित करने के पश्चात तथा हवन शुरू करने के पश्चात पित्र दोष के निवारण मंत्र का जाप पुन: प्रारंभ किया जाता है, इस मंत्र का जाप पूरा होने पर स्वाहा: का स्वर उच्चारण किया जाता है जिसके साथ ही हवन कुंड की अग्नि में एक विशेष विधि से हवन सामग्री डाली जाती है।
पितृदोष निवारण |
अंत में सूखे नारियल को उपर से काटकर उसके अंदर कुछ विशेष सामग्री भरी जाती है तथा नारियल को विशेष मंत्रों के उच्चारण के साथ हवन कुंड की अग्नि में पूर्ण आहुति के रूप में अर्पित किया जाता है तथा इसके साथ ही इस पूजा के इच्छित फल एक बार फिर मांगे जाते हैं।
पूजा की शांति पितृ दोष निवारण पूजा में भी उपरोक्त विधियां पूरी की जातीं हैं इन्हें ठीक प्रकार से न करने पर जातक को इस पूजा से प्राप्त होने वाले फल में कमी आ सकती है तथा जितनी कम विधियों का पूर्णतया पालन किया गया होगा, उतना ही इस पूजा का फल कम होता जाएगा।
इसलिए धार्मिक स्थानों पर किसी भी प्रकार की पूजा का आयोजन करवाते रहने की आवश्यकता है जिससे आपके दवारा करवाई जाने वाली पूजा का शुभ फल आपको पूर्णरूप से प्राप्त हो सके।
Subscribe to:
Posts (Atom)