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पितृ-दोष पीढ़ी दर पीढ़ी
होते रहते हैं। हमें अपने पूर्व जन्मों के कर्मो के अनुसार ही वेश, जाति, परिवार एवं माता-पिता के
यहाँ ही जन्म लेना पड़ता हैं, जिनसे पूर्व जन्मों में
हमारे सम्बन्ध रहे हैं, एवं उनके साथ रहकर उनकी स्वीकृति अथवा सहयोग
से हमने पाप या पुण्य कर्म किये होते हैं। चूंकि मंगल का संबंध रक्त से होता हे जो
पितृदोष का कारक माना जाता हैं । रक्त कम हो जाना, पितृदोष में आया मंगल रक्त
की कमी करके संतान पैदा करने की शक्ति का हनन करता हैं।
भूतकाल से वर्तमान काल तक
आती हुई अनन्त भविष्य तक गतिशील पीढि़यों के स्वभाव तो होते ही हैं पेतृक भी होते
हैं। कुछ पैतृक चिन्ह व स्वभाव आश्र्चय जनक होते हैं।
जैसे – प्रायः व्यक्ति का चेहरा
स्पष्ट हो जाता हैं कि यह व्यक्ति अमुक का पुत्र या भाई हैं। इसी प्रकार कई बार
पिता – पुत्र की वाणी बात करने के
लहजे में अद्भुत समानता देखने में आती हैं। जब व्यक्ति अपने कर्म फल लेकर मानव
योनि में उत्पन्न होता हैं तब परिवार वाले उसकी कुण्डली बनवाते हैं।
जातक की कुण्डली में
पितृ-दोष की सूचना देने में छाया ग्रह राहु– केतु की प्रमुख भुमिका
मानते है। राहू– केतु जहाँ पितृ-दोष के
प्रमुख घटक ग्र्रह हैं, तो वहीं यह दोनों ग्रह स्पष्टतया “काल सर्प योग’’ की भी धोषणा करते हैं, अर्थात राहु-केतु ही “पितृ-दोष’’ और “’काल सर्प ’’ योग के प्रमुख घटक हैं।
दोनों ही दोष जातक के पितरों व स्वंय के पूर्व जन्म व जन्मों में किये गये अशुभ
कर्मो का ही परिणाम होते हैं।
पितृ-दोष के कारण जातक का
मन पूजा पाठ में नहीं लगता और जातक को नास्तिक बनाता हैं। ईश्वर के प्रति उनकी
आस्था कम हो जाती हैं, स्वभाव चिड़चिड़ा, जिद्दी और क्रोधी हो जाता
हैं। धार्मिक कार्यो को ढकोसला मानते हैं। कुछ लोग किसी ग्रह के शुभ होने से पूजा
विधान कराना तो चाहते हैं किन्तु धन के अभाव में उन्हें टालते रहते हैं।
अकाल मृत्यु ही पितृदोष का
मुख्य कारक:- अकाल मृत्यु यानी समय से
पहले ही किसी दुर्घटना का शिकार हो जाना, ब्रह्मलीन हो जाना हैं। इस
अवस्था में मृत आत्मा तब तक तड़फती रहती हैं जब तक की उस की उम्र पूरी नहीं होती
हैं। उम्र पूरी होने के बाद भी कई मृत आत्माएँ भूत, प्रेत, नाग आदि बनकर पृथ्वी पर
विचरण करती रहती हैं और जो धार्मिक आत्माएँ रहती हैं वो किसी को भी परेशान नहीं
करती बल्कि सदैव दूसरों का भला करती हैं। लेकिन दुष्ट आत्माएँ हमेशा दूसरों को
दुःख, तकलीफ ही देती रहती हैं।
हमारे पूर्वज मृत अवस्था में जो रूप धारण करते है वह तड़पते रहते हैं। न उन्हें
पानी मिलता हैं और ना ही खाने के लिए कुछ मिलता हैं। वह आत्माएँ चाहती हैं कि उनका
लडका, पोता, पोती या पत्नी इनमें से कोई
भी उस आत्मा का उद्धार करे। पितृ-दोष परिवार में एक को
ही होता हैं। जो भी उस आत्मा के सबसे निकट होगा, जो उसे ज्यादा चाहता होगा
वही उसका मुख्य पात्र बनता हैं।
जब हम पण्डित को कुण्डली या हाथ दिखाते हैं तो वह
पितृ-दोष उसमें स्पष्ट आ जाता हैं। हाथ में पितृ-दोष, गुरू पर्वत और मस्तिष्क रेखा के बीच में से एक लाईन निकलकर जाती हैं जो
कि गुरू पर्वत को काटती हैं यह पितृ-दोष का मुख्य कारण बनती हैं। पितृ-दोष को ही
काल सर्प योग कहते हैं। काल सर्प योग पितृ-दोष का ही छोटा रूप माना जाता हैं।
पितृ-दोष को मंगल का कारक भी कहा गया हैं क्योंकि कुण्डली में मंगल को खुन के रिश्ते
से जोड़ा गया हैं। इसलिए पितृ-दोष मंगल दोष भी होता हैं जो कि शिव आराधना से दूर
होता हैं।
काल सर्प के बारे में :- एक कथा प्रचलित हैं कि जब समुद्र मंथन हुआ था तो
उसमें से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई, उसमें से
एक रत्न अमृत के रूप में भी निकला। जब अमृत निकला तो इसे ग्रहण करने के लिए
देवताओं और राक्षसों में युद्ध छिड़ने लगा तब भोलेनाथ ने समझा-बुझाकर दोनों को
पंक्ति में बैठने को कहा, विष्णु ने मोहिनी रूप धरकर अमृत का पात्र अपने पास
लेकर सभी को अमृत पान कराना आरम्भ किया। चालाक विष्णु ने पहले देवताओं वाली पंक्ति
में अमृत पान कराना आरम्भ किया, उसी समय एक दैत्य देवताओं की इस युक्ति को समझ गया
और देवता का रूप बनाकर देवता वाली पंक्ति में बैठकर अमृत पान कर लिया, जब सूर्य और चन्द्र को पता लगा तो उन्होनें विष्णु से इस बात की शिकायत
की, विष्णु जी को क्रोध आया और उन्होनें सुदर्शन चक्र
छोड़ दिया। सुदर्शन चक्र ने उस राक्षस के सर को धड़ से अलग कर दिया, क्योंकि वह अमृत पान कर चुका था इसलिए वह मरा नहीं ओर दो हिस्सों में
बंट गया। सर राहु और धड़ केतु बन गया लेकिन जब उसका सर कटकर पृथ्वी पर गिरा तब
भरणी नक्षत्र था और उसका योग काल होता हैं, जब धड़
पृथ्वी पर गिरा तब अश्लेशा नक्षत्र था जिसका योग सर्प होता हैं। इन दोनों योग के
जुड़ने से ही काल सर्प योग की उत्पत्ति हुई।
इसके कारण पारिवारिक कलह, व्यवसाय में व्यवधान, पढ़ाई में मन न लगना, सपने आना, सपनों में नाग दिखना, पहाड़ दिखना, पूरे हुए
कार्य का बीच में बिगड़ जाना, आकाश में विचरण करना, हमेशा
अनादर पाना, मन में अशान्ति रहना, शान्ति
में व्यवधान, कौआ बैठना, कौओं का
शोरगुल हमेशा अपने घर के आस-पास होना पितृ-दोष (कालसर्प योग) की निशानी होता हैं।
उपाय किसी पण्डित से ब्रह्म सरोवर सिद्ध वट पर पूजा अर्चना कर पितृ शान्ति करवानी
चाहिए।
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