तुम्हें कैसे पता चलता है कि कोई सचमुच तुम्हें प्रेम करता है?
आदमी के व्यक्तित्व के तीन तल हैं: उसका शरीर विज्ञान, उसका शरीर, उसका मनोविज्ञान, उसका मन और उसका अंतरतम या शाश्वत आत्मा। प्रेम इन तीनों तलों पर हो सकता है लेकिन उसकी गुणवत्ताएं अलग होंगी। शरीर के तल पर वह मात्र कामुकता होती है। तुम भले ही उसे प्रेम कहो क्योंकि शब्द प्रेम काव्यात्म लगता है, सुंदर लगता है। लेकिन निन्यानबे प्रतिशत लोग उनके सैक्स को प्रेम कहते हैं। सैक्स जैविक है, शारीरिक है। तुम्हारी केमिस्ट्री, तुम्हारे हार्मोन, सभी भौतिक तत्व उसमें संलग्न हैं।  तुम एक स्त्री या एक पुरुष के प्रेम में पड़ते हो, क्या तुम सही-सही बता सकते हो कि इस स्त्री ने तुम्हें क्यों आकर्षित किया? निश्चय ही तुम उसकी आत्मा नहीं देख सकते, तुमने अभी तक अपनी आत्मा को ही नहीं देखा है। तुम उसका मनोविज्ञान भी नहीं देख सकते क्योंकि किसी का मन पढ़ना आसान काम नहीं है। तो तुमने इस स्त्री में क्या देखा? तुम्हारे शरीर विज्ञान में, तुम्हारे हार्मोन में कुछ ऐसा है जो इस स्त्री के शरीर विज्ञान की ओर, उसके हार्मोन की ओर, उसकी केमिस्ट्री की ओर आकर्षित हुआ है। यह प्रेम प्रसंग नहीं है, यह रासायनिक प्रसंग है।जरा सोचो, जिस स्त्री के प्रेम में तुम हो वह यदि डाक्टर के पास जाकर अपना सैक्स बदलवा ले  और मूछें और दाढ़ी ऊगाने लगे तो क्या तब भी तुम इससे प्रेम करोगे? कुछ भी नहीं बदला, सिर्फ केमिस्ट्री, सिर्फ हार्मोन। फिर तुम्हारा प्रेम कहां गया?

सिर्फ एक प्रतिशत लोग थोड़ी गहरी समझ रखते हैं। कवि, चित्रकार, संगीतकार, नर्तक या गायक के पास एक संवेदनशीलता होती है जो शरीर के पार देख सकती है। वे मन की, हृदय की सुंदरताओं को महसूस कर सकते हैं क्योंकि वे खुद उस तल पर जीते हैं।

इसे एक बुनियादी नियम की तरह याद रखो: तुम जहां भी रहते हो उसके पार नहीं देख सकते। यदि तुम अपने शरीर में जीते हो, स्वयं को सिर्फ शरीर मानते हो तो तुम सिर्फ किसी के शरीर की ओर आकर्षित होओगे। यह प्रेम का शारीरिक तल है। लेकिन संगीतज्ञ , चित्रकार, कवि एक अलग तल पर जीता है। वह सोचता नहीं, वह महसूस करता है। और चूंकि वह हृदय में जीता है वह दूसरे व्यक्ति का हृदय महसूस कर सकता है। सामान्यतया इसे ही प्रेम कहते हैं। यह विरल है। मैं कह रहा हूं शायद केवल एक प्रतिशत, कभी-कभार।

दूसरे तल पर बहुत लोग क्यों नहीं पहुंच पा रहे हैं जबकि वह अत्यंत सुंदर है? लेकिन एक समस्या है: जो बहुत सुंदर है वह बहुत नाजुक भी है। वह हार्डवेयर नहीं है, वह अति नाजुक शीशे से बना है। और एक बार शीशा गिरा और टूटा तो इसे वापिस जोड़ने का कोई उपाय नहीं होता। लोग इतने गहरे जुड़ना नहीं चाहते कि वे प्रेम की नाजुक पर्तों तक पहुंचें, क्योंकि उस तल पर प्रेम अपरिसीम सुंदर होता है लेकिन उतना ही तेजी से बदलता भी है।

भावनाएं पत्थर नहीं होतीं, वे गुलाब के फूलों की भांति होती हैं। इससे तो प्लास्टिक का फूल लाना बेहतर है क्योंकि वह हमेशा रहेगा, और रोज तुम उसे नहला सकते हो और वह ताजा रहेगा। तुम उस पर जरा सी फ्रेंच सुगंध छिड़क सकते हो। यदि उसका रंग उड़ जाए तो तुम उसे पुन: रंग सकते हो। प्लास्टिक दुनिया की सबसे अविनाशी चीजों में एक है। वह स्थिर है, स्थायी है; इसीलिए लोग शारीरिक तल पर रुक जाते हैं। वह सतही है लेकिन स्थिर है।

कवि, कलाकार लगभग हर दिन प्रेम में पड़ते रहते हैं। उनका प्रेम गुलाब के फूल की तरह होता है। जब तक होता है तब तक इतना सुगंधित होता है, इतना जीवंत, हवाओं में, बारिश में सूरज की रोशनी में नाचता हुआ, अपने सौंदर्य की घोषणा करता हुआ, लेकिन शाम होते-होते वह मुरझा जाएगा, और उसे रोकने के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते। हृदय का गहरा प्रेम हवा की तरह होता है जो तुम्हारे कमरे में आती है; वह अपनी ताज़गी, अपनी शीतलता लाती है, और बाद में विदा हो जाती है। तुम उसे अपनी मुट्ठी में बांध नहीं सकते।

बहुत कम लोग इतने साहसिक होते हैं कि क्षण-क्षण जीएं, जीवन को बदलते रहें। इसलिए उन्होंने ऐसा प्रेम करने का सोचा है जिस पर वे निर्भर रह सकते हैं। मैं नहीं जानता तुम किस प्रकार का प्रेम जानते हो, शायद पहले किस्म का, शायद दूसरे किस्म का। और तुम भयभीत हो कि अगर तुम अपने अंतरतम में पहुंचो तो तुम्हारे प्रेम का क्या होगा? निश्चय ही वह खो जाएगा लेकिन तुम कुछ नहीं खोओगे। एक नए किस्म का प्रेम उभरेगा जो कि लाखों में एकाध व्यक्ति के भीतर उभरता है। उस प्रेम को केवल प्रेमपूर्णता कहा जा सकता है।

पहले प्रकार के प्रेम को सैक्स कहना चाहिए। दूसरे प्रेम को प्रेम कहना चाहिए, तीसरे प्रेम को प्रेमपूर्णता कहना चाहिए: एक गुणावत्ता, असंबोधित; न खुद अधिकार जताता है, न किसी को जताने देता है। यह प्रेमपूर्ण गुणवत्ता ऐसी मूलभूत क्रांति है कि उसकी कल्पना करना भी अति कठिन है।पत्रकार मुझसे पूछते रहते हैं, " यहां पर इतनी स्त्रियां क्यों हैं?" स्वभावत: प्रश्न संगत है, और जब मैं जवाब देता हूं तो उन्हें धक्का लगता है। उन्हें यह उत्तर अपेक्षित नहीं था। मैंने उनसे कहा, " मैं पुरुष हूं।" उन्होंने अविश्वसनीय रूप से मुझे देखा। मैंने कहा, " यह स्वाभाविक है कि स्त्रियां बहुत बड़ी संख्या में होंगी, क्योंकि उन्होंने अपनी जिंदगी में जो भी जाना है वह है या तो सैक्स या बहुत विरले क्षणों में प्रेम। लेकिन उन्हें कभी प्रेमपूर्णता का स्वाद नहीं मिला।" मैंने उन पत्रकारों से कहा, "तुम यहां पर जो पुरुष देखते हो उनमें भी बहुत से गुण विकसित हुए हैं जो बाहर के समाज में दबे रह गए होंगे।"


बचपन से ही लड़के से कहा जाता है, " तुम लड़के हो, लड़की नहीं हो। एक लड़के की तरह बरताव करो। आंसू लड़कियों के लिए होते हैं, तुम्हारे लिए नहीं। मर्द बनो।" अत: हर लड़का उसके स्त्रैण गुणों को खारिज करता रहता है। और जो भी सुंदर है वह सब स्त्रैण है। तो अंतत: जो शेष रहता है वह सिर्फ एक बर्बर पशु। उसका पूरा काम ही है बच्चों को पैदा करना। लड़की के भीतर कोई पुरुष के गुण पालने की इजाजत नहीं होती। अगर वह पेड़ पर चढ़ना चाहे तो उसे फौरन रोक देंगे, "यह लड़कों के लिए है, लड़की के लिए नहीं।" कमाल है! यदि लड़की पेड़ पर चढ़ना चाहती है तो यह पर्याप्त प्रमाण है कि उसे चढ़ने देना चाहिए।"सभी पुराने समाजों ने स्त्री और पुरुष केलिए भिन्न-भिन्न कपड़े बनाए हैं। यह सही नहीं है, क्योंकि हर पुरुष एक स्त्री भी है। वह दो स्रोतों से आया है: उसके पिता और उसकी मां। दोनों ने उसके अंतस को बनने में योगदान दिया है। और हर स्त्री पुरुष भी होती है। हमने दोनों को नष्ट कर दिया। स्त्री ने समूचा साहस, हिम्मत, तर्क, युक्ति खो दी क्योंकि इन्हें पौरुष की गुणवत्ताएं माना जाता है। और पुरुष ने प्रसाद, संवेदनशीलता, करुणा, दयालुता खो दी। दोनों आधे हो गए। यह एक बड़ी समस्याओं में एक है जिसे हमें हल करना है, कम से कम हमारे लोगों के लिए।

 मेरे संन्यासियों को दोनों होना है: आधा पुरुष, आधी स्त्री। यह उन्हें समृद्ध बनाएगा। उनके पास वे सभी गुण्वत्ताएं होंगी जो मनुष्य के लिए संभव हैं, केवल आधी ही नहीं।अंतरतम के बिंदु पर तुम्हारे भीतर सिर्फ प्रेमपूर्णता की एक सुवास होती है। तो डरो मत। तुम्हारा भय सही है, जिसे तुम प्रेम कहते हो वह विदा हो जाएगा लेकिन उसकी जगह जो आएगा वह अपरिसीम है, अनंत है । तुम बिना लगाव के प्रेम करने में सफल होओगे। तुम अनेक लोगों से प्रेम कर सकोगे क्योंकि एक व्यक्ति से प्रेम करना खुद को गरीब रखना है। वह एक व्यक्ति तुम्हें एक अनुभव दे सकता है लेकिन कई-कई लोगों से प्रेम करना …

तुम चकित होओगे कि हर व्यक्ति तुम्हें एक नया अहसास, नया गीत, नई मस्ती देता है। इसीलिए मैं विवाह के खिलाफ हूं। कम्यून में विवाह खारिज कर देने चाहिए। लोग चाहें तो तह-ए-जिंदगी एक-दूसरे के साथ रह सकते हैं लेकिन यह एक कानूनी आवश्यकता नहीं होगी। लोगों को कई संबंध बनाने चाहिए, प्रेम के जितने अनुभव संभव हैं उतने लेने चाहिए। उन्हें मालकियत नहीं जमाना चाहिए। और किसी को अपने ऊपर मालकियत नहीं करने देना चाहिए क्योंकि वह भी प्रेम को नष्ट करता है।

सभी मनुष्य प्रेम करने के पात्र हैं। एक ही व्यक्ति के साथ आजीवन बंधकर रहने की जरूरत नहीं है। यह एक कारण है कि दुनिया में लोग इतने ऊबे हुए क्यों लगते हैं। वे तुम जैसे हंस क्यों नहीं सकते? वे तुम्हारी तरह नाच क्यों नहीं सकते? वे अदृश्य जंजीरों से बंधे हैं: विवाह, परिवार, पति, पत्नी, बच्चे। वे हर तरह के कर्तव्यों, जिम्मेदारियों और त्याग के बोझ तले दबे हैं, और तुम चाहते हो कि वे हंसें, मुस्कुराएं, और आनंद मनाएं? तुम असंभव की मांग कर रहे हो। लोगों के प्रेम को स्वतंत्र करो, लोगों को मालकियत से मुक्त करो। लेकिन यह तभी होता है जब तुम ध्यान में अपने अंतरतम को खोजते हो। इस प्रेम का अभ्यास नहीं किया जा सकता।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आज रात किसी अलग स्त्री के पास जाओ अभ्यास की खातिर। तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा और तुम अपनी पत्नी को भी खो दोगे। और सुबह तुम बेवकूफ दिखाई दोगे। यह अभ्यास का सवाल नहीं है, यह तुम्हारे अंतरतम को खोजने का सवाल है। अंतरतम की खोज के साथ अवैयक्तिक प्रेमपूर्णता, इम्पर्सनल लविंगनैस पैदा होती है। फिर तुम सिर्फ प्रेम होते हो। और वह फैलता जाता है। पहले मनुष्यों पर, फिर जल्दी ही पशु, पक्षी, पेड़ पर्वत, तारे…। वह दिन भी आता है जब यह पूरा अस्तित्व तुम्हारी महबूबा बनता है। और जो इसको उपलब्ध नहीं होता वह मात्र जीवन व्यर्थ गंवा रहा है।

हां, तुम्हें कुछ चीजें खोनी होंगी, लेकिन वे निरर्थक हैं। तुम्हें इतना कुछ मिलेगा कि तुम्हें दोबारा याद भी न आएगी कि तुमने क्या खोया है। एक विशुद्ध अवैयक्तिक प्रेमपूर्णता रहेगी जो किसी के भी अंतरतम में प्रविष्ट हो सकती है। यह निष्पत्ति है ध्यानपूर्ण स्थिति की, मौन की, अपने अंतस में गहरे डूबने की। मैं केवल तुम्हें राजी करने की कोशिश कर रहा हूं। जो है उसे खोने से डरो मत।
   सफल प्रेम भी हो जाते हैं क्यों असफल
-जॉर्ज बर्नाड शॉ ने कहा है, दुनिया में दो ही दुख हैं- एक तुम जो चाहो वह न मिले और दूसरा तुम जो चाहो वह मिल जाए। और दूसरा दुख मैं कहता हूं कि पहले से बड़ा है।

क्योंकि मजनू को लैला न मिले तो भी विचार में तो सोचता ही रहता है कि काश, मिल जाती! काश मिल जाती, तो कैसा सुख होता! तो उड़ता आकाश में, कि करता सवारी बादलों की, चांद-तारों से बातें, खिलता कमल के फूलों की भांति। नहीं मिल पाया इसलिए दुखी हूं।

मजनू को मैं कहूंगा, जरा उनसे पूछो जिनको लैला मिल गई है। वे छाती पीट रहे हैं। वे सोच रहे है कि मजनू धन्यभागी था, बड़ा सौभाग्यशाली था। कम से कम बेचारा भ्रम में तो रहा। हमारा भ्रम भी टूट गया।

जिनके प्रेम सफल हो गए हैं, उनके प्रेम भी असफल हो जाते हैं। इस संसार में कोई भी चीज सफल हो ही नहीं सकती। बाहर की सभी यात्राएं असफल होने को आबद्ध हैं। क्यों? क्योंकि जिसको तुम तलाश रहे हो बाहर, वह भीतर मौजूद है। इसलिए बाहर तुम्हें दिखाई पड़ता है और जब तुम पास पहुंचते हो, खो जाता है। मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता है।

रेगिस्तान में प्यासा आदमी देख लेता है कि वह रहा जल का झरना। फिर दौड़ता है, दौड़ता है और पहुंचता है, पाता है झरना नहीं है, सिर्फ भ्रांति हो गई थी। प्यास ने साथ दिया भ्रांति में। खूब गहरी प्यास थी इसलिए भ्रांति हो गई। प्यास ने ही सपना पैदा ‍कर लिया। प्यास इतनी सघन थी कि प्यास ने एक भ्रम पैदा कर लिया।

बाहर जिसे हम तलाशने चलते हैं वह भीतर है। और जब तक हम बाहर से बिलकुल न हार जाएं, समग्ररूपेण न हार जाएं तब तक हम भीतर लौट भी नहीं सकते। तुम्हारी बात मैं समझा।

किस-दर्जा दिलशिकन थे
मुहब्बत के हादिसे
हम जिंदगी में फिर कोई
अरमां न कर सके।

एक बार जो मोहब्बत में जल गया, प्रेम में जल गया, घाव खा गया, फिर वह डर जाता है। फिर दुबारा प्रेम का अरमान भी नहीं कर सकता। फिर प्रेम की अभीप्सा भी नहीं कर सकता।

दिल की वीरानी का क्या मजकूर है,
यह नगर सौ मरतबा लूटा गया।

और इतनी दफे लुट चुका है यह दिल! इतनी बार तुमने प्रेम किया और इतनी बार तुम लुटे हो कि अब डरने लगे हो, अब घबड़ाने लगे हो। मैं तुमसे कहता हूं, लेकिन तुम गलत जगह लुटे। लुटने की भी कला होती है। लुटने के भी ढंग होते हैं, शैली होती है। लुटने का भी शास्त्र होता है। तुम गलत जगह लुटे। तुम गलत लुटेरों से लुटे।

तुम देखते हो, हिंदू बड़ी अद्‍भुत कौम है। उसने परमात्मा को एक नाम दिया हरि। हरि का अर्थ होता है- लुटेरा, जो लूट ले, जो हर ले, छीन ले, चुरा ले। दुनिया में किसी जाति ने ऐसा प्यारा नाम परमात्मा को नहीं दिया है। जो हरण कर ले।

लुटना हो तो परमात्मा के हाथों लुटो। छोटी-छोटी बातों में लुट गए! चुल्लू-चुल्लू पानी में डूबकर मरने की कोशिश की, मरे भी नहीं, पानी भी खराब हुआ, कीचड़ भी मच गई, अब बैठे हो। अब मैं तुमसे कहता हूं, डूबो सागर में। तुम कहते हो, हमें डूबने की बात ही नहीं जंचती क्योंकि हम डूबे कई दफा। डूबना तो होता ही नहीं, और कीचड़ मच जाती है। वैसे ही अच्छे थे। चुल्लू भर पानी में डूबोगे तो कीचड़ मचेगी ही। सागरों में डूबो। सागर भी है।

मेरी मायूस मुहब्बत की
हकीकत मत पूछ
दर्द की लहर है
अहसास के पैमाने में।

तुम्हारा प्रेम सिर्फ एक दर्द की प्रतीति रही। रोना ही रोना हाथ लगा, हंसना न आया। आंसू ही आंसू हाथ लगे। आनंद, उत्सव की कोई घड़ी न आई।

इश्क का कोई नतीजा नहीं
जुज दर्दो-आलम
लाख तदबीर किया कीजे
हासिल है वही।

लेकिन संसार के दुख का हासिल यही है कि दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।

इश्क का कोई नतीजा नहीं
जुज दर्दो-आलम।

दुख और दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।

लाख तदबीर किया कीजे
हासिल है वही।

यहां से कोशिश करो, वहां से कोशिश करो, इसके प्रेम में पड़ो, उसके प्रेम में पड़े, सब तरफ से हासिल यही होगा। अंतत: तुम पाओगे कि हाथ में दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। राख के सिवा कुछ हाथ में नहीं रह गया है। धुआं ही धुआं!

लेकिन मैं तुमसे उस लपट की बात कर रहा हूं जहां धुआं होता ही नहीं। मैं तुमसे उस जगत की बात कर रहा हूं जहां आग जलाती नहीं, जिलाती है। मैं भीतर के प्रेम की बात कर रहा हूं। मेरी भी मजबूरी है। शब्द तो मुझे वे ही उपयोग करने पड़ते हैं, जो तुम भी उपयोग करते हो तो मुश्किल खड़ी होती है। क्योंकि तुमने अपने अर्थ दे रखे हैं।

जैसे ही तुमने सुना 'प्रेम', कि तुमने जितनी फिल्में देखी हैं, उनका सबका सार आ गया। सबका निचोड़, इत्र। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं वह कुछ और। मीरा ने किया, कबीर ने किया, नानक ने किया, जगजीवन ने किया। तुम्हारी फिल्मोंवाला प्रेम नहीं, नाटक नहीं। और जिन्होंने यह प्रेम किया उन सबने यहीं कहा कि वहां हार नहीं है, वहां जीत ही जीत है। वहां दुख नहीं है, वहां आनंद की पर्त पर पर्त खुलती चली जाती है। और अगर तुम इस प्रेम को न जान पाए तो जानना, जिंदगी व्यर्थ गई।

दूर से आए थे साकी,
सुनकर मैखाने को हम।
पर तरसते ही चले,
अफसोस पैमाने को हम।

मरते वक्त ऐसा न कहना पड़े तुम्हें कि कितनी दूर से आए थे। दूर से आए थे साकी सुनकर मैखाने को हम- मधुशाला की खबर सुनकर कहां से तुम्हारा आना हुआ जारा सोचो तो! कितनी दूर की यात्रा से तुम आए हो। पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम- यहां एक घूंट भी न मिला।

मरते वक्त अधिक लोगों की आंखों में यही भाव होता है। तरसते हुए जाते हैं। हां, कभी-कभी ऐसा घटता है कि कोई भक्त, कोई प्रेमी परमात्मा का तरसता हुआ नहीं जाता, लबालब जाता है।

मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूं। आंख खोलकर एक प्रेम होता है, वह रूप से है। आंख बंद करके एक प्रेम होता है, व अरूप से है। कुछ पा लेने की इच्छा से एक प्रेम होता है वह लोभ है, लिप्सा है। अपने को समर्पित कर देने का एक प्रेम होता है, वही भक्ति है।

तुम्हारा प्रेम तो शोषण है। पुरुष स्त्री को शोषित करना चाहता है, स्त्री पुरुष को शोषित करना चाहती है। इसीलिए तो स्त्री-पुरुषों के बीच सतत झगड़ा बना रहता है। पति-पत्नी लड़ते रहते हैं। उनके बीच एक कलह का शाश्वत वातावरण रहता है। कारण है क्योंकि दोनों एक-दूसरे को कितना शोषण कर लें, इसकी आकांक्षा है। कितना कम देना पड़े और कितना ज्यादा मिल जाए इसकी चेष्टा है। यह संबंध बाजार का है, व्यवसाय का है।

 नर और नारायण

 ऋषि थे विष्णु के अवतारभगवान विष्णु ने धर्म की पत्नी रुचि के माध्यम से नर और नारायण नाम के दो ऋषियों के रूप में अवतार लिया। वे जन्म से तपोमूर्ति थे, अतः जन्म लेते ही बदरीवन में तपस्या करने के लिये चले गये। उनकी तपस्या से ही संसार में सुख और शांति का विस्तार होता है। बहुत से ऋषि मुनियों ने उनसे उपदेश ग्रहण करके अपने जीवन को धन्य बनाया। आज भी भगवान नर नारायण निरन्तर तपस्या में रत रहते हैं। इन्होंने ही द्वापर में श्रीकृष्ण और अर्जुन के रूप में अवतार लेकर पृथ्वी का भार हरण किया था।

एक बार इनकी उग्र तपस्या को देखकर देवराज इंद्र ने सोचा कि ये तप के द्वारा मेरे इंद्रासन को लेना चाहते हैं, अतः उन्होंने इनकी तपस्या को भंग करने के लिए कामदेव, वसंत तथा अप्सराओं को भेजा। उन्होंने जाकर भगवान नर नारायण को अपनी नाना प्रकार की कलाओं के द्वारा तपस्या से च्युत करने का प्रयास किया, किंतु उनके ऊपर कामदेव तथा उसके सहयोगियों का कोई प्रभाव न पड़ा। कामदेव, वसंत तथा अप्सराएं शाप के भय से थर थर कांपने लगे। उनकी यह दशा देखकर भगवान नर नारायण ने कहा-, ''तुम लोग तनिक भी मत डरो। हम प्रेम और प्रसन्नता से तुम लोगों का स्वागत करते हैं।''

भगवान नर नारायण की अभय देने वाली वाणी को सुनकर काम अपने सहयोगियों के साथ अत्यन्त लज्जित हुआ। उसने उनकी स्तुति करते हुए कहा- प्रभो! आप निर्विकार परम तत्व हैं। बड़े बड़े आत्मज्ञानी पुरुष आपके चरण कमलों की सेवा के प्रभाव से कामविजयी हो जाते हैं। देवताओं का तो स्वभाव ही है कि जब कोई तपस्या करके ऊपर उठना चाहता है, तब वे उसके तप में विघ्न उपस्थित करते हैं। काम पर विजय प्राप्त करके भी जिन्हें क्रोध आ जाता है, उनकी तपस्या नष्ट हो जाती है। परंतु आप तो देवाधिदेव नारायण हैं। आपके सामने भला ये काम क्रोधादि विकार कैसे फटक सकते हैं? हमारे ऊपर आप अपनी कृपादृष्टि सदैव बनाये रखें। हमारी आपसे यही प्रार्थना है।

कामदेव की स्तुति सुनकर भगवान नर नारायण परम प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी योगमाया के द्वारा एक अद्भुत लीला दिखायी। सभी लोगों ने देखा कि साक्षात लक्ष्मी के समान सुंदर सुंदर नारियां नर नारायण की सेवा कर रही हैं। नर नारायण ने कहा- 'तुम इन स्त्रियों में से किसी एक को मांगकर स्वर्ग में ले जा सकते हो, वह स्वर्ग के लिए भूषण स्वरूप होगी।' उनकी आज्ञा मानकर कामदेव ने अप्सराओं में सर्वश्रेष्ठ अप्सरा उर्वशी को लेकर स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया। उसने देवसभा में जाकर भगवान नर नारायण की अतुलित महिमा से सबको परिचित कराया, जिसे सुनकर देवराज इंद्र चकित और भयभीत हो गये। उन्हें भगवान नर नारायण के प्रति अपनी दुर्भावना और दुष्कृति पर विशेष पश्चाताप हुआ। भगवान नर नारायण के लिये यह कोई बड़ी बात नहीं थी। इससे उनके तप के प्रभाव की अतुलित महिमा का परिचय मिलता है। उन्होंने अपने चरित्र के द्वारा काम पर विजय प्राप्त करके क्रोध के अधीन होने वाले और क्रोध पर विजय प्राप्त करके अभिमान से फूल जाने वाले तपस्वी महात्माओं के कल्याण के लिए अनुपम आदर्श स्थापित किया।


  

   

सच्ची भक्ति का महात्म्य। 
   

इस प्राचीन धरती ने, इस वैभवशाली देश और इसकी प्राचीन सभ्यता ने गुजरे दौर में जबरदस्त प्रतिभाओं को जन्म दिया है। ये प्रतिभाएं मूल रूप से भक्ति की देन थीं, अध्ययन की नहीं। अपने यहां जितने भी महान वैज्ञानिक, चिकित्सक या गणितज्ञ हुए, वे सभी उच्च कोटि के भक्त थे। दरअसल, जब आप भक्ति करते हैं तो, आप खुद में सबको शामिल कर लेते हैं, जहां आपसे परे कुछ नहीं रहता। भक्त होने का मतलब बोध और बुद्धि के ऐसे धरातल पर पहुंचना है, जहां जाकर आपकी सारी तुच्छता खत्म हो जाती है और आप ईश्‍वरीय संभावना को निमंत्रण देते हैं। भक्त कभी हीरे जड़े सिंहासन पर नहीं बैठता और न ही वह ऐसी चाहत रखता है। उसकी तो सिर्फ एक ही चाहत होती है, ईश्‍वर के करीब पहुंचने की, उसके गोद में बैठने की। इस चाहत में कहीं जाने या पहुंचने का भाव नहीं होता, बल्कि यह तो पूरी प्रकृति के प्रति उसकी बुनियादी समझ में बदलाव भर होता है। भक्ति इंसान के भीतर मौजूद सभी सीमाओं को तोड़ने का एक जबरदस्त साधन है- चाहे मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सीमाएं हों या कार्मिक बंधन। अगर आपमें भक्ति की धारा बहेगी तो यह बिना किसी खास कोशिश के, आपको इन सभी सीमाओं के पार बहा ले जाएगी।

इंसानी बुद्धि के लिए यह सामान्य सी बात है कि जब भी वह कोई नई या अलग चीज देखता है, उसके भीतर एक कौतुहल पैदा हो जाती है। जैसे अगर कहीं दो-चार फूलों को भी बहुत अच्छे से सजा कर रखा है तो उसको देखकर मन में यह खयाल आता है कि यह किसने किया है। अगर आप कोई खूबसूरत कलाकृति देखते हैं तो आप यह जानना चाहते हैं कि यह किसने बनाई है। अगर आप कोई सुंदर बच्चा देखते हैं तो जानना चाहते हैं कि इसके माता-पिता कौन हैं। लेकिन यह बेहद हैरानी की बात है कि इस सृष्टि जैसी अनुपम कृति को देखकर महज कुछ ही लोगों के मन में यह सवाल आता है कि इसका रचयिता कौन है। बेशक लोगों के पास इसका रेडीमेड जवाब मौजूद है। लेकिन भक्ति कोई रेडीमेड जवाब नहीं है। भक्ति इस सवाल का जवाब पाने का साधन है। भक्ति कोई नतीजा नहीं है, जो भक्त निकालता है। भक्ति इन सभी नतीजों से परे जाने का रास्ता है। भक्ति एक तेज बाढ़ की तरह है जो आपको सीमाओं और बंधन के सभी संभावनों से परे ले जाएगी।
यह बेहद हैरानी की बात है कि इस सृष्टि जैसी अनुपम कृति को देखकर महज कुछ ही लोगों के मन में यह सवाल आता है कि इसका रचयिता कौन है। बेशक लोगों के पास इसका रेडीमेड जवाब मौजूद है। लेकिन भक्ति कोई रेडीमेड जवाब नहीं है।

अगर आपने इन 21 दिनों के लिए खुद को समर्पित किया है तो आपने न केवल खुद को, बल्कि अपने आसपास की जगह को भी शुद्ध कर लिया है। इससे देश व दुनिया को जबरदस्त फायदा होगा। भक्ति कोई 21 दिन करने वाला काम-काज नहीं है। आपको इसकी धारा में रोजाना बहते रहना होगा। भक्ति कोई ऐसी चीज नहीं है, जो आपने कभी की और कभी नहीं की, बल्कि इसे आप जीते हैं। यह आपकी सांस की तरह है। अगर आप दिल में भैरवी की कृपा और उनके चरण-चिन्ह अंकित हो गए तो फिर आपको जीवन में कभी जीत-हार, अमीरी-गरीबी और जीवन-मृत्यु की चिंता नहीं करनी होगी। जो व्यक्ति रचयिता की गोद में किसी तरह पहुंच जाता है, किसी तरह ईश्‍वर की कृपा पाने में सफल हो जाता है, उसके लिए ये सारी चीजें तुच्छ हो जाती हैं। हमारी कामना है कि आपने जो यह प्रक्रिया शुरू की है, वह वाकई आपको अभिभूत कर सके।

तमिलनाडु का प्रतीक मंदिर है। दरअसल, यहां की धरती भक्ति से इतनी ओत-प्रोत है कि आप यहां कहीं भी चले जाइए, आपको एक मंदिर सी अनुभूति होगी। भक्ति यहां के लोगों के जीवन का मुख्य हिस्सा थी। पहले यहां लोगों ने शानदार मंदिर बनाए और फिर अपने रहने के लिए उसके आस पास कुछ झोपडियों की बस्ती बनाई। इन हैरतअंगेज मंदिरों को बनाने में लोगों ने अपनी दो-तीन पीढ़यां लगा दीं, लेकिन वे खुद झोपड़ी और कुटिया में रहे। उन्होंने अपने लिए कभी कुछ परवाह नहीं की, क्योंकि उनके लिए ईश्‍वर की कृपा पाना और सबको उससे जोड़ना कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण था।

समय आ गया है कि हम इस धरती पर कुछ ऐसा ही फिर से करें। कृपया इसे अपने साथ-साथ ज्यादा से ज्यादा लोगों के लिए साकार कीजिए, क्योंकि हमें जरूरत है भक्ति के एक लहर की। बिना भक्ति के परमानंद को पाना एक मुश्किल काम है। इसके लिए बहुत ज्यादा काम करना होगा। लेकिन भक्ति के साथ परम आनंद को बहुत आसानी से पाया जा सकता है। अगर आप इस धरती और यहां के लोगों को भक्ति के भाव में भिगो दीजिए, फिर देखिए आनंद पाना कितना आसान हो जाता है। यह आसान इसलिए है, क्योंकि भक्ति से भरा दिल काफी उपजाऊ हो जाता है, जिसमें परमानंद का फूल जरूर खिलेगा। कृपया इसे अपने लिए और अपने आस-पास के लोगों के लिए साकार कीजिए।

 पद्मसाधना
‘पद्मसाधना’ एक सुन्दर योग मुद्राओं की शृंखला है, जिससे आप का स्वयं प्रेम और आनंद से खिल उठेगा!!!! ~  
‘पद्म’ का अर्थ होता है कमल और साधना का अर्थ आपका ‘प्रयास’| इसलिये इस अभ्यास को कमल के हलकेपन के जैसे बिना प्रयास के किया जाना चाहिए| साधना आसन पर बैठने के लिए एक सहज उपाय के जैसा है और कमल आपकी प्रतिभाओं को परत दर परत निखारने के जैसा| पद्मसाधना में आप योग मुद्राओं के द्वारा भीतर से खिल जायेंगे|
आध्यात्मिक पथ पर प्रगति के लिए साधक को सही दिशा की आवश्यकता होती है| योग साधक के अभ्यास को गहन करने लिए लिए एक अमूल्य शस्त्र है “पद्मसाधना”|
'अगमा’ परंपरा में, देवी की गद्दी पाँच परतों से बनी हुई है, प्रत्येक परत हमारी साधना (योग अभ्यास) के एक पहलू का प्रतिनिधित्व करती है|
पहली परत है कछुआ, जो स्थिरता का प्रतीक है|  आसन के दौरान कछुए की तरह आसन को स्थिर रखें|
दूसरी परत है सांप, जो सजगता का प्रतीक है| सजगता के बिना स्थिरता सुस्ती लाती है| इसलिए स्थिर रहें और साथ में सजग भी|
तीसरी परत है सिंह| यह कृपा का प्रतीक है जिसे दो भागों में समझा जा सकता है| पहला शाही पहलू है; सिंह जो कुछ भी करता है उसमें वह प्रतापी होता है|  दूसरा पहलू यह है कि सिंह उतना ही करता है जितना आवश्यक हो,  वह शिकार करता है और फिर जब तक आवश्यक हो तब तक विश्राम करता है| यह कृपा की पहचान है| पद्मसाधना में  बहुत ज्यादा प्रयास नहीं करें| जितना आवश्यक हो उतना ही करें|
चौथी परत है सिद्धि या उत्तमता| अपनी मुद्राओं को सिद्ध या उत्तम करें| जैसा आप नियमित रूप से अभ्यास करते हैं तो मुद्रा में उत्तमता या सिद्धि प्राप्त होती है| जिसका तात्पर्य है शारीरिक रूप से सही मुद्रा और मानसिक रूप से शांत मन|
पांचवी परत है कमल; पूरी तरह से खिली हुई स्थिति और इस पर देवी बैठी है| दिव्यता, चेतना में निहित है, और इन पाँच पहलुओं की गद्दी पर बैठती है|
आध्यात्मिक प्रगति करने के लिए साधक पद्मसाधना के इन पांच पहलुओं का विकास और अपने अभ्यास को गहन कर सकते हैं|
पद्मसाधना योग आसन, प्राणायाम और ध्यान की एक सुंदर शृंखला है, जिससे साधक अपने अभ्यास में गहन हो सकता है| आसन मुद्राएँ शरीर और मन को केंद्रित करते हैं और प्राणायाम तंत्र को उर्जायुक्त और शांत करता है, जिससे कोई गहन ध्यान में जा सके|
  पद्मसाधना में मुद्रा दर मुद्रा एक सुंदर प्रवाह के जैसे है| इसमें  ऐसा लगता है जैसे पूरा अनुक्रम एक प्रक्रिया है; आसन, प्राणायाम, ध्यान सब एक में समाये हुए हैं| इस प्रक्रिया की प्रकृति ध्यानयुक्त होती है, इसलिए यह सबसे उत्तम होगा कि इसे सुदर्शन क्रिया करने से पूर्व किया जाये| योग आसान को धीरे धीरे करें जैसे यह भी एक ध्यान हो!

उज्जई श्वास लें| आप योग आसान में उज्जई श्वास का उपयोग करें| इससे आप किसी मुद्रा में अधिक समय तक बने रह सकते हैं| हर आसान मे ३-४ श्वास लेने की अनुशंसा की जाती है| उज्जई श्वास को सौम्य रखना सबसे उत्तम है, और इसके लिए अधिक प्रयास करने की आवश्कता नहीं है|
समयबध्द रहें| यह पूरी शृंखला ४० मिनिट तक चलती है|  १० मिनिट आसन,  ५ मिनिट प्राणायाम, २० मिनिट ध्यान और ५ मिनिट प्राणायाम| इस क्रम में समयबध्द रहना सबसे उत्तम है|
आसन में विश्राम करें| हर एक आसन में एक मुद्रा में ३०-४० सेकंड तक रहें| यदि आप उज्जई श्वास ले रहे हैं तो उसका अर्थ है कि ३-४ उज्जई श्वास| आप इसका प्रयोग करते हुए निर्णय ले सकते हैं कि आपको एक मुद्रा मे कितनी श्वास लेनी है, जिससे आप यह पूरी आसन की शृंखला को १० मिनिट में समाप्त कर सकें|
“स्थिरं सुखं आसनं”| आसन मे सौम्य और ध्यानयुक्त होना है इसे याद रखें| योग आसन का उद्देश्य किसी भी चिंता को मुक्त करना होता है, जिससे शरीर ध्यान के लिए तैयार हो सके| महर्षि पातंजलि अपने योग सूत्र में कहते हैं "स्थिरं सुखं आसनं" स्थिरं का अर्थ है स्थिरता| सुखं का अर्थ है आनंद| महर्षि पातंजलि कहते हैं कि आसन मे स्थिर बने रहें और आसन का आनंद लेते हुए मुस्कुराते हुए योग करें|
प्राणायाम पर केंद्रित रहें|
पद्मसाधना के दौरान नाड़ी शोधन प्राणायाम करें| नाड़ी शोधन प्राणायाम नाड़ीयों का संतुलन बनाने मे सहायक है जिससे यह ध्यान में जाने और उसमे से निकलने का आसान उपाय सिद्ध होता है|
सरलता से ध्यान में जाएँ|
पद्मसाधना के दौरान हम 'सहज समाधि' ध्यान का उपयोग करते हैं| यदि आपने कोर्स नहीं किया है तो उसे संभवत: शीघ्र करें जिससे आप आसानी से ध्यान कर सकते हैं|
पद्मसाधना को एडवांस कोर्स और डी.एस.एन.(दिव्य समाज का निर्माण) कोर्स में सीखा जा सकता है|
पद्मसाधना को अपनी प्रातःकाल और सायंकाल की योग साधना का अनिवार्य हिस्सा बनायें और अपनी आंतरिक शक्ति में बढोत्तरी करें| 
  तीन प्रकार के भक्त होते हैं!!  
 

पहले प्रकार के भक्त वे होते हैं जो हमेशा मांगते रहते हैं, ‘भगवान मुझे ये दे दीजिए’, ‘भगवान मुझे वो दे दीजिए’|
दूसरे प्रकार के भक्त वे हैं, जो हमेशा कृतज्ञ रहते हैं, ‘धन्यवाद भगवान, आपने मुझे यह दिया, और आपने मुझे वह दिया’, एक ऐसा भक्त जो भावुक है, प्रार्थनापूर्ण है और कृतज्ञता में आँसू बहाता है|
तीसरे प्रकार का भक्त वह है, जो हमेशा खुश रहता है, मुस्कुराता रहता है, झूमता और गाता रहता है, ‘आनंदपूर्ण भक्त’|
ये सभी तीन अलग अलग तरह के भक्त हैं, यद्यपि ये सभी श्रेष्ठ हैं| ऐसा नहीं है, कि इन में से कोई एक बाकी से बेहतर है| एक रोता हुआ भक्त, एक हँसता हुआ भक्त, और एक भक्त जो हमेशा मांगते रहता है, तो आप इनमें से किस श्रेणी में हैं, वह आप खुद देखिये|
ऐसा हो सकता है, कि आपके अंदर इन सबका थोड़ा थोड़ा अंश हो| वह भी ठीक है| तब वह चौथे प्रकार का भक्त हो जाएगा, जिसके अंदर इन तीनों का कुछ कुछ अंश विद्यमान है|
वह, जो हंसी-मजाक में ही उलझ कर रह जाता है, उसे गंभीरता प्राप्त नहीं होती, और गंभीरता (अथवा गहराई) आवश्यक है| इसीलिये संत कबीर ने कहा है, ‘कबीरा हंसना दूर कर, रोने से कर प्रीत, बिन रोये कित पाईये, प्रेम पियारा मीत'|
लेकिन जिस रोने के बारे में कबीर बात कर रहें हैं, वह अलग प्रकार का रोना है, वह रोना है, जो प्रशंसा के कारण आता है, कृपा और तृष्णा के कारण आता है| यह उस तरह का रोना नहीं है, जिसमें किसी को लगता है, कि उसके पास इस चीज़ की कमी है, उस चीज़ की कमी है, यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ| वे (कबीर) इस तरह के रोने की बात नहीं कर रहें हैं, जो सांसारिक कारणों या माया के कारण हैं| वे उन लोगों के बारे में चर्चा कर रहें हैं जो आनंद और भक्ति के कारण रो रहें हैं| तो वह भी आवश्यक है|
लेकिन जो भक्त आनंदित रहते हैं, कहते हैं, कि वे ज्ञानी होते हैं, क्योंकि वे जानते हैं, कि भगवान यहीं हैं, वे मेरे अंदर हैं, और वे इसी क्षण में मौजूद हैं|
अक्सर  लोग सोचते हैं, कि भगवान कहीं और हैं; उनका अस्तित्व अतीत में कभी था, या भविष्य में कभी आयेंगे| वे भूल जाते हैं, कि भगवान यहीं है, इसी पल, हर एक के अंदर विद्यमान, मेरे अंदर विद्यमान है| सिर्फ यही एक विश्वास चाहिये| बस इसी के लिए, आप ये सब कसरत कर रहें हैं, ये सब अभ्यास| नहीं तो इन सब व्यायामों, जैसे प्राणायाम करना, आसन, कीर्तन, भजन के करने का क्या फायदा, इन सबका क्या उद्देश्य है? यह जानना, कि भगवान मेरे भीतर हैं, इसी जगह और इसी पल|
बस आज के लिए इतना ही! बहुत अधिक ज्ञान सुनने से अपच हो जाता है| इसे पचाना बहुत मुश्किल हो जाएगा| तो आज केवल इतना ही पचाइये| आज गुरूजी ने केवल एक ही वाक्य कहा – ‘भगवान यहाँ हैं, इसी पल हैं, मेरे भीतर हैं, सबके भीतर हैं

 
  
ठाकुर जी और उनके भक्त की एक निराली कथा .......

एक लडकी थी जो कृष्ण जी की अनन्य भक्त थी, बचपन से ही कृष्ण भगवान का भजन करती थी, भक्ति करती थी, भक्ति करते-करते बड़ी हो गई, भगवान की कृपासे उसका विवाह भी श्रीधाम वृंदावन में किसी अच्छे घर में हो गया.

विवाह होकर पहली बार वृंदावन गई, पर नई दुल्हन होने से कही जा न सकी, और मायके चलि गई.
और वो दिन भी आया जब उसका पति उसे लेने उसके मायके आया,
अपने पति के साथ फिर वृंदावन पहुँच गई, पहुँचते पहुँचते उसे शाम हो गई, पति वृंदावन में यमुना किनारे रूककर कहने लगा -
देखो! शाम का समय है में यमुना जी मे स्नान करके अभी आता हूँ,
तुम इस पेड़ के नीचे बैठ जाओ और सामान की देखरेख करना मै थोड़े ही समय में आ जाऊँगा यही सामने ही हूँ, कुछ लगे तो मुझे आवाज देदेना, इतना कहकर पति चला गया और वह लडकी बैठ गई.

अब एक हाथ लंबा घूँघट निकाल रखा है, क्योकि गाँव है,ससुराल है और वही बैठ गई, मन ही मन विचार करने लगी - कि
देखो!ठाकुर जी की कितनी कृपाहै उन्हें मैंने बचपन से भजा और उनकी कृपा से मेरा विवाह भी श्री धाम वृंदावन में हो गया.
मैं इतने वर्षों से ठाकुर जी को मानती हूँ परन्तु अब तक उनसेकोई रिश्ता नहीं जोड़ा?

फिर सोचती है ठाकुर जी की उम्र क्या होगी ?
लगभग १६ वर्ष के होंगे, मेरे पति २० वर्ष केहै उनसे थोड़े से छोटे है, इसलिए मेरे पति के छोटे भाई की तरह हुए, और मेरे देवर की तरह, तो आज से ठाकुर जी मेरे देवर हुए, अब तो ठाकुर जी से नया सम्बन्ध जोड़कर बड़ी प्रसन्न हुई और मन ही मन ठाकुर जी से कहने लगी -

देखो ठाकुर जी ! आज से मै तुम्हारी भाभी और तुम मेरे देवर हो गए, अब वो समय आएगा जब तुम मुझे भाभी-भाभी कहकर पुकारोगे. इतना सोच ही रही थी तभी एक १०- १५ वर्ष का बालक आया और उस लडकी से बोला - भाभी-भाभी !
लडकी अचानक अपने भाव से बाहर आई और सोचने लगी वृंदावन में तो मै नई हूँ ये भाभी कहकर कौन बुला रहा है,
नई थी इसलिए घूँघट उठकर नहीं देखा कि गाँव के किसी बड़े-बूढ़े ने देख लिया तो बड़ी बदनामी होगी.

अब वह बालक बार-बार कहता पर वह उत्तर न देती बालक पास आया और बोला -
भाभी! नेक अपना चेहरा तो देखाय दे,
अब वह सोचने लगी अरे ये बालक तो बड़ी जिद कर रहा है इसलिए कस केघूँघट पकड़कर बैठ गई कि कही घूँघट उठकर देखन ले, लेकिन उस बालक ने जबरजस्ती घूँघट उठकर चेहरा देखा और भाग गया.

थोड़ी देर में उसका पति आ गया, उसनेसारी बात अपने पतिसे कही.
पति नेकहा - तुमने मुझे आवाज क्यों नहीं दी ? लड़की बोली - वह तो इतनेमें भाग ही गया था.

पति बोला - चिंता मत करो, वृंदावन बहुत बड़ा थोड़े ही है ,
कभी किसी गली में खेलता मिल गया तो हड्डी पसली एक कर दूँगा फिर कभी ऐसा नहीं कर सकेगा.
तुम्हे जहाँ भी दिखे, मुझे जरुर बताना.

फिर दोनों घर गए,
कुछ दिन बाद उसकी सास नेअपने बेटे से कहा- बेटा! देख तेरा विवाह हो गया, बहू मायके से भी आ गई,
पर तुम दोनों अभी तक बाँके बिहारी जी केदर्शन के लिए नहीं गए कल जाकर बहू को दर्शन कराकर लाना. अब अगले दिन दोनों पति पत्नी ठाकुर जी के दर्शन केलिए मंदिर जाते है मंदिर में बहुत भीड़ थी,

लड़का कहने लगा -
देखो! तुम स्त्रियों के साथ आगे जाकर दर्शन करो, में भी आता हूँ अब वह आगे गई पर घूंघट नहीं उठाती उसे डर लगता कोई बड़ा बुढा देखेगा तो कहेगा नई बहू घूँघट के बिना घूम रही है.

बहूत देर हो गई पीछे से पति ने आकर कहा -
अरी बाबली ! बिहारी जी सामनेहै, घूँघट काहे नाय खोले,घूँघट नाय खोलेगी तो दर्शन कैसे करेगी,

अब उसने अपना घूँघट उठाया और जो बाँके बिहारी जी की ओर देखातो बाँके बिहारी जी कि जगह वही बालक मुस्कुराता हुआ दिखा तो एकदम से चिल्लाने लगी - सुनिये जल्दी आओ!
जल्दी आओ !

पति पीछेसे भागा- भागा आया बोला क्या हुआ?
लड़की बोली - उस दिन जो मुझे भाभी-भाभी कहकर भागा था वह बालक मिल गया.

पति ने कहा - कहाँ है ,अभी उसे देखता हूँ ?
तो ठाकुर जी की ओर इशारा करके बोली- ये रहा, आपके सामनेही तो है,

उसके पति ने जो देखा तो अवाक रह गया और वही मंदिर में ही अपनी पत्नी के चरणों में गिर पड़ा बोला तुम धन्य हो वास्तव में तुम्हारे ह्रदय में सच्चा भाव ठाकुर जी के प्रति है,
मै इतने वर्षों से वृंदावन मै हूँ मुझे आज तक उनकेदर्शन नहीं हुए और तेरा भाव इतना उच्च है कि बिहारी जी के तुझे दर्शन हुए..................................

भक्त और भगवान् की जय ........
अद्भुत है विचार की शक्ति




विचार कर्म के प्रासाद की नींव है। विचार का प्रभाव अद्भुत है। यह विचार ही है जो अर्जुन को गाण्डीव उठाने के लिए प्रेरित करता है और नरेन्द्र को विवेकानंद बना देता है। चिंतन-मनन के बाद विचार ही आचरण का रूप लेता है।

'विचार' शब्द के मन में आते ही मन में विचार आता है कि आखिर ये विचार हैं क्या? मन में उठने वाली विविध भावनाओं, कामनाओं एवं स्मृतियों की उत्ताल तरंगें हैं विचार, जिनमें मन डूबता उतराता रहता है। चेतना एवं चिंतन से उद्भूत सोच के स्पंदनों की हलचल है। विचार जो कभी मन को आह्लादित करते हैं तो कभी उद्वेलित। विचार कर्म के प्रासाद की नींव है। विचार बहुत बड़ा शक्तिपुंज है, इसमें अनंत ऊर्जा निहित है। विचार का अद्भुत प्रभाव होता है व्यक्ति पर। विचार ही मनुष्य को ऊपर उठाते हैं और विचार ही मनुष्य के पतन का कारण बनते हैं। विचार से समाज और राष्ट्र जुड़ते हैं और विचार से ही टूटते हैं।

विचार से हताश मन में आशा का संचार होता है। एक विचार से अर्जुन जैसा योद्धा रणक्षेत्र से पलायन करना चाहता है, किंतु भगवान श्रीकृष्ण के चमत्कारिक विचारों के प्रभाव से वही अर्जुन गाण्डीव उठाकर युद्ध के लिए तैयार हो जाता है। यह है विचार की शक्ति। संसार में जितनी भी क्रांतियां हुई हैं, उनके मूल में क्रांतिकारी विचार ही रहे हैं। विचारों से ही कर्म की पृष्ठभूमि तैयार होती है। कर्म की प्रेरणा हमें विचारों से ही मिलती है। किसी भी विषय या कार्य पर मनुष्य पहले चिंतन-मनन करता है, उसके बाद ही कर्म का स्वरूप, प्रारूप एवं राह निर्धारित करता है।

देश में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं बढ़ते अपराधों पर भी विचार-संस्कृति से ही काबू पाया जा सकता है। कठोर से कठोर शासन एवं सख्त से सख्त कानून भी इन पर पूरा नियंत्रण नहीं कर सकता है। केवल विचार परिवर्तन से ही अपराधों एवं रिश्वतखोरी से निजात पाई जा सकती है। इसी उद्देश्य को लेकर आजकल कारागृहों में संतजनों के प्रवचन कराए जा रहे हैं। व्यक्ति के जैसे विचार होंगे, वैसा ही उसका आचरण होगा, उसके कर्म भी वैसे ही होंगे। गौतम गीता में कहा गया है- विचार हि मनुष्याणां प्रतिमानाः परन्तप। विचारो यादृशो यस्य मर्त्यो मर्वात तादृशः॥ अर्थात 'हे परन्तप! विचार ही मनुष्य के प्रतिनिधि हैं, जिस मनुष्य के जैसे विचार हैं वैसा ही वह होता है।

विचार की बड़ी महत्ता है। जिन राष्ट्रों में स्वाधीनता आंदोलन चले, वहां पहले विचार-क्रांति जन्मी। तत्पश्चात ही मैदानी कार्रवाई शुरू हुई। नरेन्द्र को विवेकानन्द बनाने में रामकृष्ण परमहंस के विचारों ने ही चमत्कार किया। सिकन्दर सीधे ही विश्व-विजय के लिए नहीं निकल पड़ा। पहले उसके मन में इस प्रकार की विजय प्राप्त करने का विचार आया था तदनंतर ही वह उस दिशा में प्रवृत्त हुआ। कर्म का अंकुरण विचाररूपी बीज से होता है। विचार जितने उच्च और आदर्श होंगे, कर्म उतने ही श्रेष्ठ होंगे। मन विचार का गर्भस्थल है। मन जितना शुद्ध, सात्विक, पवित्र और निर्मल होगा, उतने ही पवित्र एवं उत्तम विचार उसमें आकार लेंगे।

जिस परिवार एवं राष्ट्र में व्यक्तियों के विचारों में श्रेष्ठता और समन्वय होगा, वे निश्चित ही समुन्नत होंगे। अच्छे विचार शांति लाते हैं और शांति उन्नति की पहली शर्त है। मनोविद् डी. डब्ल्यू. टायलर ने थिंकिंग एण्ड क्रिएटीविटी में लिखा है कि विचारों के अनुरूप ही मनुष्य का स्वभाव एवं आचार बन जाता है। स्पष्ट है कि श्रेष्ठ विचारों से ही आदर्श एवं चरित्रवान व्यक्तित्व का निर्माण होगा। इन व्यक्तियों के आदर्श कर्मों से एक श्रेष्ठ, सशक्त एवं आदर्श राष्ट्र का सपना साकार हो सकेगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपने मानस में उच्च विचारों के बीज बोने चाहिए। इसी में व्यक्ति का, समाज का, देश का एवं विश्व का हित है।









भक्ति किसे कहते हैं

आज भक्ति के संदर्भ में लोगों के विचार विकृत हो चुके हैं। आज भावसंवेदना को, रोने को लोगों ने भक्तिभाव समझ रखा है। देवी के सामने नाक रगड़ना, उनके सामने रोना-यह भक्ति नहीं कहलाती है। उलटा बैठ जाना, सीधा बैठ जाना, आँसू बहाना-यह भक्ति नहीं है। यह भावुकता है, भक्ति नहीं। जहाँ तक आध्यात्मिक प्रगति एवं भक्ति के स्वरूप का संबंध है , यह सही नहीं है।

भक्ति किसे कहते हैं-इसका सीधा सादा मतलब है प्यार-मोहब्बत जिसके अंदर यह होता है, वह भावना से लबालब भरा होता है। प्यार से बड़ी कोई चीज नहीं है। इसी की तलाश में जीवात्मा रहता है। आनंद प्राप्त करने के लिए मनुष्य इंद्रियों का भोग करता है, सिनेमा देखता है, कामवासना के फेर में रहता है। परंतु अगर आप तीन घंटे से ज्यादा सिनेमा देखेंगे, तो आँखें खराब होने लगेंगी। इसी तरह कामवासना का भी आनंद थोड़े समय-चंद मिनटों का होता है। परंतु जीवात्मा को जो स्थिर एवं चिरस्थायी आनंद परमात्मा को प्राप्त करने पर मिलता है, उसे भक्ति कहते हैं। आपने अगर इसको अनुभव करके देखा होता, तो मजा आ जाता।

आपको अपने आपसे, अपनों से प्यार होता है। अपनी मोटर से, साइकिल से प्यार होता है। आप इसी तरह हर व्यक्ति को अपना मानिए। अगर पड़ोसी के बच्चे को भी अपना मानेंगे, तो आपको आनंद होगा। अगर कोई अपना आदमी घर में आ जाता है, तो आपको मजा आ जाता है। वास्तव में आनंद अपनेपन से होता है। अपना एवं पराये का जो फरक है, वह बहुत बड़ा है। जहाँ टार्च का प्रकाश पड़ता है, वहाँ की चीजें दिखाई पड़ती हैं। जहाँ प्रकाश नहीं पड़ता है, वहाँ अंधकार छाया रहता है। मित्रो! आप प्यार का टार्च जहाँ कहीं भी डालेंगे, जिस चीज पर भी डालेंगे, वह चीज आपको प्यारी एवं बढ़िया-आनंददायक मालूम पड़ेगी। मजनूँ-लैला कोई खास सुंदर नहीं थे, परंतु दोनों को एक-दूसरे से प्यार था, इसलिए दोनों एक-दूसरे पर मरने-खपने के लिए तैयार रहते थे।

मित्रो! भगवान् एक रस का नाम है, जिसे शास्त्रकारों ने ‘रसो वै सः’ बतलाया है। रस किसे कहते हैं? आनंद को कहते हैं। यह आनंद कहाँ है? भगवान् में है। अगर आप भगवान् के साथ आत्मीयता जोड़ लें, तो आपको भगवान् की भक्ति का आनंद मिल जाएगा। हम भगवान् के हैं तथा भगवान् हमारे हैं, यदि ऐसी भावना मनुष्य के भीतर आ जाए, तो मजा आ जाता है। मीरा ने भगवान् को अपना पति मान रखा था। इस कारण से उस प्यार के लिए भगवान् और मीरा दोनों भूखे थे। यही भक्ति है।

मित्रो! जरासंध एवं कंस ने कृष्ण भगवान् को पराया माना था, इस कारण उसे उनसे राग-द्वेष था। अपने होते हुए भी वे पराए लगते थे, फिर आनंद एवं प्यार कहाँ से उभरता? आनंद एवं प्यार एक ही चीज का नाम है। अगर आपको आनंद पाना है, तो प्यार का माद्दा बढ़ाना पड़ेगा। यह दिखाना नहीं पड़ता, वरन् अंदर से उपजता है और बिना प्रतिदान की इच्छा के अपना सब कुछ औरों पर उँड़ेल देता है। उदाहरण के लिए, अगर आपने अपने शरीर से जरा भी प्यार किया है, तो जब उसमें जरा-सी भी गड़बड़ी हो जाती है, तो आप उसको ठीक करते हैं, दवा खाते हैं, सँवारते हैं, बाल बनाते हैं। इसका कारण यह है कि हम अपने शरीर को अपना मानते हैं। अपनेपन का माद्दा जहाँ कहीं भी होता है, वहाँ आनंद एवं प्यार बरसता रहता है। गेंद जब दीवार पर फेंकी जाती है, तो वह लौटकर आपके पास आ जाती है। गुंबज में जो आवाज लगाई जाती है, वैसी ही आवाज लौटकर प्रतिध्वनि के रूप में हमें पुनः सुनाई देती है। अर्थात् वह वापस आ जाती है।

मित्रो! ठीक उसी प्रकार जब हम किसी को प्यार करते हैं, मोहब्बत करते हैं, तो वह भी उसी आवाज की तरह हमारे पास वापस आ जाती है। कहने का मतलब यह है कि हम जिसे प्यार करते हैं, वह भी हमें प्यार करता है। इस संसार में अगर आप लोगों को राग-द्वेष के रूप में देखेंगे, तो सारे संसार में आपको राग द्वेष ही मिलेगा। अगर आप लोगों की उपेक्षा करना आरंभ कर देंगे, तो आपको चारों तरफ उदासी, सूनापन तथा उपेक्षा ही मिलेगी। सब माया तथा मिथ्या दिखलाई पड़ेगा। परंतु अगर आपकी भावनाएँ ठीक होंगी, तो आपको हर जगह राम एवं सीता दिखलाई पड़ेंगे। जैसा कि तुलसीदास जी ने कहा है—

सीयराम मय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥

साथियो! अभी तक आपने अपना दायरा अपने शरीर तथा अपने कुटुंब तक सीमित रखा है। उस दायरे को बढ़ा दीजिए। अपने आपको सारे संसार के रूप में बढ़ा दीजिए। स्वामी रामतीर्थ अपने आपको रामबादशाह कहा करते थे। किसका बादशाह हूँ? बादलों का, आकाश का बादशाह हूँ, यह कहा करते थे। आप गंगाजी का पानी निहारना चाहें, सड़क पर चलना चाहें, बादलों को निहारना चाहें, तो आपको कौन रोक सकता है? आप किसी के काम आएँ, किसी से मीठे वचन बोलें, चिड़ियों को दाना डाल दें, तो आपको कौन रोक सकता है? यह सत्य है कि अगर किसी के घर में घुसें या किसी का सामान आदि चुरा लें, तो आपको कोई रोक भी सकता है, कानून के हवाले कर सकता है, परंतु आप अगर अच्छा काम करेंगे, तो आपको कौन रोक सकता है? आप जिससे भी मोहब्बत करेंगे, उसके लिए हमेशा सेवा के लिए तैयार रहेंगे।

मित्रो! प्यार का वास्तविक स्वरूप सेवा में ही दिखलाई पड़ता है। इसके द्वारा ही प्यार में निखार आता है। प्यार करने की पहचान ही यह है कि आप उसकी सेवा करना चाहते हैं या नहीं? प्यार करने वाला अपना अनुदान दूसरों को देता है। प्यार करने वाला स्वयं कष्ट उठाता है तथा दूसरों को सुखी बनाता है। प्यार सेवा सिखलाता है, प्यार अनुदान देना सिखाता है। देशभक्ति, विश्वभक्ति, भगवान् की भक्ति इसी का तो नाम है। अगर आपको हैरानी होती है, तो हो जाए, परंतु आप अपने बच्चे, देश, सारे संसार को सुखी बनाने का प्रयास करते हैं, तो वही भक्ति कहलाती है। इस दुनिया की सर्वश्रेष्ठ चीज यही है।

इस प्रकार भक्तियोग न केवल मानसिक तथा भावनात्मक संपदा है, वरन् उसके आधार पर परमार्थ तथा पुण्य का मौका भी मिलता है। आप भक्ति कीजिए तथा सेवा कीजिए, यह दोहरा लाभ प्राप्त होता है। प्यार का वास्तविक अर्थ यही है। मनुष्य का मोह एवं बंधन उसके साथ ही होता है, जिसके साथ उसका प्यार तथा मोहब्बत होता है। शंकर भगवान् की हम उपासना करते हैं, तो हमें शंकर की भक्ति के साथ भूत-पलीत लोगों की अर्थात् गए-गुजरे लोगों की, गरीब एवं पिछड़े लोगों की भी हमें सेवा करने के लिए तैयार रहना चाहिए। जिनकी समझदारी कम है, उनको ऊँचा उठाना चाहिए। उनकी सेवा करनी चाहिए। शास्त्र में कहा गया है-भज सेवायाम्’ अर्थात् हमें भजन के साथ सेवा भी करनी चाहिए। दोनों एक ही चीज हैं। अगर हम भक्ति करते हैं तथा समाज की, पिछड़े लोगों की सेवा नहीं करते हैं, तो हमारा भजन सार्थक नहीं हो सकता है।

सेवा हम किसकी कर सकते हैं? मित्रो! इस दुनिया में व्यक्ति उसकी ही सेवा कर सकता है, जिससे वास्तव में उसकी मोहब्बत है। अतः आप अपने मोहब्बत का दायरा बढ़ाइए। जैसे-जैसे आपका यह दायरा बढ़ेगा, आप सेवाभावी बनते चले जाएँगे एवं जैसे-जैसे आप सेवाभावी बनते चले जाएँगे, आपकी भक्ति भी बढ़ती चली जाएगी।

भक्ति का अभ्यास हम भगवान् से करते हैं। यह व्यायामशाला है। जिस प्रकार पहलवान व्यायामशाला में जाकर कसरत करता है, मसक्कत करता है तथा अपने स्वास्थ्य को ठीक कर लेता है। उसी प्रकार मनुष्य भगवान् के साथ भक्ति यानी मोहब्बत करके समाज के बीच में भी जाकर प्यार एवं मोहब्बत करता है, कर सकता है।

भगवान् आदर्शों के-सिद्धांतों के समुच्चय को कहते हैं। भगवान् की कोठरी में बैठकर हम वे चीजें सीखते हैं जिनका व्यावहारिक स्वरूप जाकर हम समाज के बीच प्रस्तुत करते हैं। भगवान् कोई व्यक्ति नहीं है। वह तो एक नियामक सत्ता है, एक कायदा है, एक कानून है। भगवान् तो सेवा का नाम है। आप उसे मिठाई क्या खिलाएँगे? मुकुट क्या पहनाएँगे? यह आपकी भूल है। इसे सुधारना आवश्यक है।

पूजा-उपासना के समय, भक्ति के समय आपने कोई मूर्ति या चित्र रखा है, तो इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है, परंतु आप भगवान् को आदर्श एवं सिद्धांतों का समुच्चय मानिए। आपने अगर भगवान् शंकर को व्यक्ति विशेष माना है, तो आप भ्रम-जंजाल में पड़ जाएँगे। अगर शंकर भगवान् को आपने ऐसा माना है कि वह एक व्यक्ति है, जो बैल पर बैठकर इधर-उधर घूमता रहता है। बेल का पत्ता, आक का पत्ता, धतूरे का फूल खाता रहता है। उसके माथे पर चंद्रमा है, सिर से गंगा निकल रही है तथा भूत-प्रेत उसके साथ रहते हैं। यदि आप ऐसा मानने लगेंगे, तो आप भ्रम एवं जंजाल में पड़ जाएँगे।

मित्रो! आपको शंकर भगवान् की आदर्श एवं सिद्धांतों का एक समुच्चय मानना चाहिए, साथ ही आपको यह समझना चाहिए कि शंकर भगवान् के सिर से गंगा निकलने का अर्थ-ज्ञान का प्रवाह, गले में मुंडमाला का अर्थ-हमेशा मौत को गले लगाना, बैल की सवारी के माने-परिश्रमी बनना, चंद्रमा का मतलब-मानसिक संतुलन, भूत-प्रेत का मतलब-गए गुजरे एवं पिछड़े लोगों को गले लगाना तथा उनके विकास के बारे में सोचना, श्मशान में निवास का मतलब-वीरान में रहकर भी समाज के विकास के बारे में सोचना है। यही है शंकर भगवान् की विशेषता, जिसे हर भक्त को सोचना चाहिए।

इसी प्रकार हर भगवान् के बारे में यही बात है। हर भगवान् इसी तरह आदर्शों एवं सिद्धांतों का एक समुच्चय है, चाहे वह गणेश जी हों, हनुमान जी हों, रामचंद्र जी हों या भगवान् श्रीकृष्ण जी हों। इसी प्रकार हर देवी एवं देवता तथा अवतारों को आपको मानना चाहिए। आप जिस भी देवता की भक्ति करते हैं, उसका मतलब समझते हैं, उस देवता के सिद्धांतों एवं आदर्शों को मानते हैं, उस रास्ते पर चलते हैं। वास्तव में यही सच्ची भक्ति कहलाती है। अगर उन सिद्धांतों के प्रति, आदर्शों के प्रति आपकी श्रद्धा, आस्था का विकास होता चला जाएगा, तो आपकी भक्ति भी बढ़ती हुई चली जाएगी। अगर आप वास्तव में ऐसी भक्ति करेंगे, तो आपको फायदा होगा। आप सच्चे अर्थों में भगवान् के भक्त कहलाएँगे। मरने के बाद आप स्वर्ग-मुक्ति में जाएँगे या नहीं, कह नहीं सकता, परंतु आपको इसी जीवन में चारों ओर ऐसा नजारा नजर आएगा कि चारों तरफ स्वर्ग है। आपको चारों ओर दिव्य वातावरण दिखाई पड़ेगा। आप निहाल हो जाएँगे।

मित्रो! आप किसी के प्रति नफरत न करें। आप व्यक्ति से नहीं, उसकी बुराइयों से नफरत कीजिए तथा उसमें सुधार लाने का प्रयास कीजिए। आप प्यार के आधार पर भी लोगों को बदल सकते हैं। आप किसी से राग-द्वेष न करें। आप ऐसा काम करें कि उसके व्यक्तित्व की रक्षा भी हो जाए तथा उसकी बुराई भी दूर हो जाए। गाँधी जी ने इसी प्रकार अँगरेज़ों से प्यार की लड़ाई लड़ी, प्यार का अनुदान दिया। उसके बाद क्या हुआ? मित्रो! अँगरेज भारत छोड़कर चले गए। प्यार बहुत बड़ा संबल होता है, यह आप न भूलें। प्यार से मनुष्य के अंदर शांति आती है, उसके व्यक्तित्व का विकास होता है।कहते हैं भक्ति सच्ची हो तो ईश्वर को भक्त के सामने आना ही पड़ता है और ईश्वर के जिसे दर्शन हो जाएं उसे कुछ न कुछ देकर ही जाते हैं। यह एक ऐसे ही भक्त की कथा है जिसे भगवान श्री कृष्ण ने दर्शन दिए और जाते-जाते छोड़ गए शरीर पर शंख और चक्र के निशान।

यह कथा है आमेर नरेश श्री पृथ्वीराज जी स्वामी की। एक बार इनके गुरु पयोहारी जी द्वारिका जी यात्रा पर जाने लगे तो पृथ्वीराज भी द्वारिका जाने की तैयारी करने लगे। इन्होंने कहा कि द्वारिका जाकर शरीर पर शंख चक्र बनवाउंगा।

गुरु पयोहारी जी ने कहा कि अगर तुम राज्य छोड़कर चले जाओगे तो राज्य में अव्यवस्था फैल जाएगी। धर्म-कर्म से लोगों का ध्यान हट जाएगा। इसलिए आमेर में रहकर ही कृष्ण की भक्ति करो।

गुरु की बात मानकर श्रीपृथ्वीराज जी आमेर में ही रह गए लेकिन इनका ध्यान द्वारकाधीश में ही लगा रहा। रात में जब यह सोए हुए थे तब इन्हें लगा कि अचानक तेज प्रकाश फैल गया है और भगवान श्री द्वारकाधीश स्वयं प्रकट हो गए हैं।

राजा श्रीपृथ्वीराज जी ने द्वारकाधीश जी की परिक्रमा की और प्रणाम किया। भगवन ने कहा कि तुम अब गोमती संगम में डूबकी लगाओ। राजा को लगा कि वह गोमती तट पर पहुंच गए हैं और गोमती में डूबकी लगा रहे हैं।

सुबह जब राजा महल से बाहर नहीं निकले तो रानी उनके शयन कक्ष में पहुंची। रानी ने देखा राजा सोए हुए हैं और उनका पूरा शरीर भींगा हुआ है जैसे स्नान करके आए हों। रानी ने देखा कि राजा के बाजू पर शंख और चक्र के निशान उभर आए हैं।

राजा की नींद खुली तो वह भी इस चमत्कार को देखकर हैरान थे। उन्हें लगा कि भगवान स्वयं उनकी इच्छा पूरी करने के लिए आए थे। इसके बाद राजा पूरी तरह से कृष्ण भक्ति में लीन हो गए।












 संत
यह रूसी कहानी किसी गांव में रहनेवाले एक युवक के बारे में है जिसे सभी मूर्ख कहते थे. बचपन से ही वह सबसे यही सुनता आ रहा था कि वह मूर्ख है. उसके माता-पिता, रिश्तेदार, पड़ोसी- सभी उसे मूर्ख कहते थे और वह इस बात पर यकीन करने लगा कि जब इतने बड़े-बड़े लोग उसे मूर्ख कहते हैं तो वह यकीनन मूर्ख ही होगा. किशारावस्था को पार कर वह जवान हो गया और उसे लगने लगा कि वह पूरी ज़िंदगी मूर्ख ही बना रहेगा. इस अवस्था से बाहर निकलने के बहुत प्रयास किए लेकिन उसने जो भी काम किया उसे लोगों ने मूर्खतापूर्ण ही कहा.
यह मानव स्वभाव है. कोई कभी पागलपन से उबरकर सामान्य हो जाता है लेकिन कोई उसे सामान्य मानने के लिए तैयार नहीं होता. वह जो कुछ भी करता है उसमें लोग पागलपन के लक्षण खोजने लगते हैं. लोगों की आशंकाएं उस व्यक्ति को संकोची बना देतीं हैं और उसके प्रति लोगों के संदेह गहरे होते जाते हैं. यह एक कुचक्र है. रूसी गांव में रहनेवाले उस युवक ने भी मूर्ख की छवि से निकलने के भरसक प्रयास किए लेकिन उसके प्रति लोगों के रवैये में बदलाव नहीं आया. वे उसे पहले की भांति मूर्ख कहते रहे.
कोई संत वहां से गुज़रा. युवक रात के एकांत में संत के पास गया और उनसे बोला, “मैं इस छवि में बंधकर रह गया हूं. मैं सामान्य व्यक्ति की तरह रहना चाहता हूं लेकिन वे मुझे मुक्त नहीं करना चाहते. उन्होंने मेरी स्वीकार्यता के सारे मार्ग और द्वार बंद कर दिए हैं कि मैं कहीं उनसे बाहर न आ जाऊं. मैं उनकी ही भांति सब कुछ करता हूं फिर भी मूर्ख कहलाता हूं. मैं क्या करूं?”
संत ने कहा, “तुम एक काम करो. जब कभी कोई तुमसे कहे, ‘देखो, कितना सुंदर सूर्यास्त है,’ तुम कहो, ‘तुम मूर्ख हो, सिद्ध करो कि इसमें सुंदर क्या है? मुझे तो इसमें कोई सौंदर्य नहीं दीखता, तुम सिद्ध करो कि यह सुंदर है.’ यदि कोई कहे, ‘यह गुलाब का फूल बहुत सुंदर है,’ तो उसे आड़े हाथों लेकर कहो, ‘इसे साबित करो! किस आधार पर तुम्हें यह साधारण सा फूल सुंदर लग रहा है? यहां गुलाब के लाखों फूल हैं. लाखों-करोड़ों फूल खिल चुके हैं और लाखों-करोड़ों फूल खिलते रहेंगे; फिर गुलाब के इस फूल में क्या खास बात है? तुम किन विशेषताओं और तर्कों के आधार पर यह सिद्ध कर सकते हो कि यह गुलाब का फूल सुंदर है?”
“जब कोई तुमसे कहे, ‘लेव तॉल्स्तॉय की यह कहानी बहुत सुंदर है,’ तो उसे पकड़कर उससे पूछो, ’सिद्ध करो कि यह कहानी सुंदर है; इसमें सुंदर क्या है? यह सिर्फ एक साधारण कहानी है— ऐसी हजारों-लाखों कहानियां किताबों में बंद हैं, इसमें भी वही त्रिकोण है जो हर कहानी में होता है: दो आदमी और एक औरत या एक औरत और दो आदमी… यही त्रिकोण हमेशा होता है. सभी प्रेम कहानियों में यह त्रिकोण होता है. इसमें नई बात क्या है?”
युवक ने कहा, “ठीक है. मैं ऐसा ही करूंगा.”
संत ने कहा, “हां, ऐसा करने का कोई मौका मत छोड़ना, क्योंकि कोई भी इसे सिद्ध नहीं कर पाएगा, क्योंकि इन्हें सिद्ध नहीं किया जा सकता. और जब वे इसे सिद्ध नहीं कर पाएंगे तो वे अपनी मूर्खता और अज्ञान को पहचान लेंगे और तुम्हें मूर्ख कहना बंद कर देंगे. अगली बार जब मैं वापस आऊं, तब तुम मुझे यहां घटी सारी बातें बताना.”
कुछ दिनों बाद संत का उस गांव में दोबारा आना हुआ, और इससे पहले कि वह युवक से मिलते, गांव के लोगों ने उनसे कहा, “यह तो चमत्कार ही हो गया. हमारे गांव का सबसे मूर्ख युवक एकाएक सबसे बुद्धिमान व्यक्ति बन गया है. हम आपको उससे मिलवाना चाहते हैं.”
संत को पता था कि वे किस ‘बुद्धिमान व्यक्ति’ की बात कर रहे हैं. उन्होंने कहा, “हां, मैं भी उससे मिलना चाहूंगा, बल्कि मैं उससे मिलना ही चाहता था.”
वे संत को मूर्ख युवक के पास लेकर गए और मूर्ख ने उनसे कहा, “आप चमत्कारी पुरुष हैं, दिव्य हैं. आपके उपाय ने काम कर दिया! आपके बताए अनुसार मैंने सभी को मूर्ख और अज्ञानी कहना शुरु कर दिया. कोई प्रेम की बात करता था, कोई सौंदर्य की, कला की, साहित्य की, शिल्प की बात करता था और मेरा एक ही व्यक्तव्य होता था: ‘सिद्ध करो!’ वे सिद्ध नहीं कर पाते थे और मूर्खवत अनुभव करने लगते थे.”
“यह कितना अजीब है. मैं सोच ही नहीं सकता था कि इसमें कोई इतनी गहरी बात होगी. मैं केवल इतना ही चाहता था कि वे मुझे मूर्ख समझना बंद कर दें. यह अद्भुत बात है कि अब मुझे कोई मूर्ख नहीं कहता बल्कि सबसे बुद्धिमान वयक्ति कहता है, लेकिन मैं जानता हूं कि वही हूं जो मैं था- और इस तथ्य को आप भी जानते हैं.”
संत ने कहा, “इस रहस्य की चर्चा किसी से न करना. इसे अपने तक ही रखना. तुम्हे लगता है कि मैं कोई संत-महात्मा हूं? हां, यही रहस्य है लेकिन मैं भी उसी प्रकार से संत बना हूं जिस तरह से तुम बुद्धिमान बन गए हो.”
दुनिया में सब कुछ इसी सिद्धांत पर कार्य करता है. तुम कभी किसी से पूछते हो, इस जीवन का अर्थ क्या है? तुम गलत प्रश्न पूछते हो. और कोई-न-कोई इसके उत्तर में कहता है, “जीवन का उद्देश्य यह है” — लेकिन उसे कोई सिद्ध नहीं कर सकता.
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There is one Russian story, a small story. In a village a man, a young man, is called an idiot by everybody. From his very childhood he has heard that, that he is an idiot. And when so many people are saying it — his father, his mother, his uncles, the neighbors, and everybody — of course he starts believing that he must be an idiot. How can so many people be wrong? — and they are all important people. But when he becomes older and this continues, he becomes an absolutely sealed idiot; there is no way to get out of it. He tried hard but whatsoever he did was thought to be idiotic.
That is very human. Once a man goes mad he may become normal again but nobody is going to take him as normal. He may do something normal but you will suspect that there must be something insane about it. And your suspicion will make him hesitant and his hesitancy will make you suspicion stronger; then there is a vicious circle. So that man tried in every possible way to look wise, to do wise things, but whatsoever he did people would always say it was idiotic.
A saint was passing by. He went to the saint in the night when there was nobody about and asked him, “Just help me to get out of this locked state. I am sealed in. They don’t let me out; they have not left any window or door open so that I can jump out. And whatsoever I do, even if it is exactly the same as they do, still I am an idiot. What should I do?”
The saint said, “Do just one thing. Whenever somebody says,’Look how beautiful the sunset is,’ you say, “you idiot, prove it! What is beautiful there? I don’t see any beauty. You prove it.’ If somebody says,’Look at that beautiful rose flower,’ catch hold of him and tell him,’Prove it! What grounds have you to call this ordinary flower beautiful? There have been millions of rose flowers. There are millions, there will be millions in the future; what special thing has this rose flower got? And what are your fundamental reasons which prove logically that this rose flower is beautiful?’
“If somebody says,’This book of Leo Tolstoy is very beautiful,’ just catch hold of him and ask him,’Prove where it is beautiful; what is beautiful in it? It is just an ordinary story — just the same story which has been told millions of times, just the same triangle in every story: either two men and one woman or two women and one man, but the same triangle. All love stories are triangles. So what is new in it?”‘
The man said, “That’s right.”
The saint said, “Don’t miss any chance, because nobody can prove these things; they are unprovable. And when they cannot prove it, they will look idiotic and they will stop calling you an idiot. Next time, when I return, just give me the information how things are going.
And next time when the saint was coming back, even before he could meet the old idiot, people of the village informed him, “A miracle has happened. We had an idiot in our town; he has become the wisest man. We would like you to meet him.”
And the saint knew who that “wisest man” was. He said, “I would certainly love to see him. In fact I was hoping to meet him.”
The saint was taken to the idiot and the idiot said, “You are a miracle-worker, a miracle man. The trick worked! I simply started calling everyone an idiot, stupid. Somebody would be talking of love, somebody would be talking of beauty, somebody would be talking of art, painting, sculpture, and my standpoint was the same:’Prove it!’ And because they could not prove it, they looked idiotic.
And it is a strange thing. I was never hoping to gain this much out of it. All that I wanted was to get out of that confirmed idiocy. It is strange that now I am no longer an idiot, I have become the most wise man, and I know I am the same — and you know it too.”
But the saint said, “Never tell this secret to anybody else. Keep the secret to yourself. Do you think I am a saint? Yes, the secret is
between us. This is how I became a saint. This is how you have become a wise man.”

This is how things go on in the world. Once you ask, What is the meaning of life? you have asked the wrong question. And obviously somebody will say, “this is the meaning of life” — and it cannot be proved

    स्‍वामी रामकृष्‍ण परमहंस और मां शारद


  राम कृष्‍ण अपनी पत्‍नी को मां बोलते थे। और यूं नहीं कि बाद में कहने लगे थे। रामकृष्‍ण जब चौदह साल के थे, तब उनको पहली समाधि हुई। आ रहे थे अपने खेत से वापस। झाल के पास से गांव में से गुजरते थे। सुंदर गांव की झील, सांझ का समय, सूरज का डूबना, बस डूबा-डूबा। सूरज की डूबती हुई किरणों ने, आकाश में फैली छोटी-छोटी बदलियों पर बड़े रंग फैला रखे है। वर्षा के दिन करीब आ रहे है। काली बदलियां भी छा गई है। घनघोर, जल्‍दी रामकृष्‍ण लोट रहे है। तभी बगुलों की एक पंक्‍ति झील से उड़ी और काली बदलियों को पार करती हुई निकल गई। काली बदलियों से सफेद बगुलों की पंक्‍ति का निकल जाना, जैसे बिजली कौंध गई। यह सौंदर्य का ऐसा क्षण था कि रामकृष्‍ण वहीं गर पड़े। घर उन्‍हें लोग बेहोशी में लाए। लोग समझे बेहोशी है, वह थी मस्‍ती। बामुशिकल से वे होश में लाए जा सके। उनसे पूछा, क्‍या हुआ?उन्‍होंने कहा, अद्भुत हुआ, बड़ा आनंद हुआ। बार-बार ऐसा ही होना चाहिए। अब मुझे होश में रहने की—जिसको तुम होश कहते हो—उसमें रहने की कोई इच्‍छा नहीं है।गांव के लोगों ने, घर के लोगों ने सोचा कि लड़का बिगड़ा जा रहा है। यह तो मामला खराब है। यह ऐसे भी साधु-संग करता था। जाता था सुनने सत्‍संग। तब तक भी ठीक था; अब यह समाधि में भी जाने लगा। अब यह बेहोश हो-हो कर गिरने लगा। यह मामला बिगड़ा जा रहा है। यह हाथ से गया। गदाधर उनका नाम था। जो घर के लोगों का आम सोचने का ढंग होता है, उन्‍होंने कहा, जल्‍दी से इसके विवाह वगैरह का इंतजाम करो, हथकड़ी-बेड़ी डाल दो, तो यह रास्‍ते पर आ जाएगा। सो रामकृष्‍ण से पूछा कि बेटा, विवाह करोगे?राम कृष्‍ण ने कहा,करेंगे।घर के लोग थोड़े चौके, उन्‍होंने सोचा था यह इनकार करेगा।उन्‍होंने कहा जरूर करेंगे, किससे करना है?घर के लोगों ने कहा, अरे, हम तो सोचते थे तू सत्‍संगी हो गया है, समाधि लगने लगी है, और गांव में बड़ी चर्चा है कि तू ज्ञानी हो गया है। इस लिए तो हम तेरा विवाह कर रहे थे। और तू है कि कहता है करेंगे, किससे करना है? तू इतनी जल्‍दी में है।पास में ही गांव में एक लड़की खोजी गई। रामकृष्‍ण को दिखाने ले गए। रामकृष्‍ण को जब लड़की मिठाई परोसने आई। बंगाल, तो वहां संदेश परोसा होगा। जब संदेश उसने रामकृष्‍ण की थाली में रखे, रामकृष्‍ण ने देखा। शारदा उसका नाम था। खीसे में जितने मां ने रूपये रख दिए थे। सब निकाल कर उसके पैरों पर चढ़ा दिए, और कहा कि तू तो मेरी मां है। शादी हो गई।लोगों ने कहा, तू पागल है रे; पहले तो शादी करने की इतनी जल्‍दी कि और अब पत्‍नी को मां कह रहा है। कुछ अक्ल है तुझे, यो बौरा गया है। बेअक्‍ल हो गया है।मगर उसने कहा कि यह तो मेरी मां है, शादी होगी, मगर यह मेरी मां ही रहेगी।शादी भी हो गई। शादी से इंकार भी नहीं किया। इसको मैं खूबी कहता हूं। रामकृष्‍ण की। इसलिए रामकृष्‍ण से मुझे प्रेम है। एक लगाव है। यह आदमी अदभुत है। शादी करने में इनकार ही नहीं किया। नोट देख कर आंखे बंध करने वाले विनोबा जी नहीं है। अरे शादी से भी नहीं भागा। मगर शादी भी किस मस्‍ती से की। कहा कि मेरी मां है। और फिर जीवन भर मां ही माना। मां ही कहते थे वे शारदा को। और हर वर्ष जब बंगाल में काली की पूजा होती, तो वे काली की पूजा तो करते थे, मगर जब काली की पूजा का दिन आता है, उस दिन वे शारदा की पूजा करते थे। और यूं नहीं,तुम चोंकोगे, शारदा को नग्‍न बिठा लेते थे सिंहासन पर। नग्‍न शारदाकी पूजा करते थे। शारदा को नग्‍न बिठा लेते सिंहासन पर। और फिर चिल्‍लाते, रोते, नाचते, मां और मां की गुहार लगाते। शारदा पहले तो बहुत बेचैन होती थी कि किसी को पता न चल जाए, कि यह तुम क्‍या कर रहे हो। कोई क्‍या कहेगा; मगर धीरे-धीरे शारदा के जीवन में भी रामकृष्‍ण ने क्रांति ला दी।रामकृष्‍ण उन सौ में से एक व्‍यक्‍तियों में से है। उन्‍होंने पत्‍नी को छोड़ा नहीं, हालांकि वह कहते यही है; कामिनी-कांचन से मुक्‍त हो जाओ। पुरानी भाषा, वे करें क्‍या–अतिक्रमण किया। नई भाषा का उन्‍हें पता नहीं था।मैं कहूंगा: कामिनी-कांचन से मुक्‍त होने का सवाल नहीं है, कामिनी-कांचन को अतिक्रमण करना है। रामकृष्‍ण ने वही किया—अतिक्रमण किया। मगर उनको इस भाषा का साफ-साफ भेद नहीं था। वे बोलते रहे पुराना ढंग, पुरानी शैली।मगर रामकृष्‍ण जैसे सभी लोग नहीं है। निन्यानवे ज्ञानी तो, सुलोचना, अज्ञानी है, महाअज्ञानी है। वि सिर्फ बकवास कर रहे है। वह अपने भय का सिर्फ निवेदन कर रहे है। वे दो चीजों से डरे है: क्‍योंकि स्‍त्री में सुख की आशा मालूम पड़ती है। और धन से डरे है। बस दोनों को गालियां दे रहे है। उनकी गालियां सबूत है कि उनके भीतर रस मोजूदा है।पर रामकृष्‍ण इस के पास चले गये थे। इस पुराने ढंग के। अब वक्‍त आ गया है कि यह पुराना ढर्रा बंद होना चाहिए। इसलिए मैं धर्म को नई भाषा देने की कोशिश कर रहा हूं। स्‍वभावत: मुझे गालियां पड़ेगी। क्‍योंकि वे निन्यानवे लोग मेरी भाषा की बदलाहट से स्‍वभावत: नाराज होने वाले है। उनके तो हाथ से धंधा गया। उनकी तो मैं जमीन खींचे ले रहा हूं। हां, सौ में से वह जो एक व्‍यक्‍ति है, वह मेरे साथ राज़ी होगा। रामकृष्‍ण जैसा व्‍यक्‍ति मेरे साथ राज़ी होगा। रामकृष्‍ण मुझे मिल जाएं तो मैं उनकी भाषा बदल दूँ। वे मुझसे राज़ी हो जाएंगे। वे कहेंगे, अरे यही मैं कहना चाहता था। मगर मुझे कहने का पता नहीं था। मुझे जो पता था, वैसा मैंने कह दिया था। सच मैं तो यही कहना चाहता था,तुमने तो मेरे मुहँ की बात छिन ली। और वो प्रसन्‍न होंगे, और नाच उठेंगे। 












 
 

 

क्यों शिव कहलाते हैं रुद्र ?


  भगवान शिव के अनगिनत रूप हैं। क्योंकि सारी प्रकृति को ही शिव स्वरूप माना गया है। इन रूपों में ही एक है रुद्र। रुद्र का शाब्दिक अर्थ होता है - रुत यानि दु:खों को अंत करने वाला। यही कारण है कि शिव को दु:खों को नाश करने वाले देवता के रुप में पूजा जाता है। व्यावहारिक जीवन में कोई दु:खों को तभी भोगता है, जब तन, मन या कर्म किसी न किसी रूप में अपवित्र होते हैं। शिव के रुद्र रूप की आराधना का महत्व यही है कि इससे व्यक्ति का चित्त पवित्र रहता है और वह ऐसे कर्म और विचारों से दूर होता है, जो मन में बुरे भाव पैदा करे। शास्त्रों के मुताबिक शिव ग्यारह अलग-अलग रुद्र रूपों में दु:खों का नाश करते हैं। यह ग्यारह रूप एकादश रुद्र के नाम से जाने जाते हैं। जानते हैं ऐसे ही ग्यारह रूद्र रूपों को -
- शम्भू - शास्त्रों के मुताबिक यह रुद्र रूप साक्षात ब्रह्म है। इस रूप में ही वह जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं।
- पिनाकी - ज्ञान शक्ति रुपी चारों वेदों के के स्वरुप माने जाने वाले पिनाकी रुद्र दु:खों का अंत करते हैं।
- गिरीश - कैलाशवासी होने से रुद्र का तीसरा रुप गिरीश कहलाता है। इस रुप में रुद्र सुख और आनंद देने वाले माने गए हैं।
- स्थाणु - समाधि, तप और आत्मलीन होने से रुद्र का चौथा अवतार स्थाणु कहलाता है। इस रुप में पार्वती रूप शक्ति बाएं भाग में विराजित होती है।
- भर्ग - भगवान रुद्र का यह रुप बहुत तेजोमयी है। इस रुप में रुद्र हर भय और पीड़ा का नाश करने वाले होते हैं।
- भव - रुद्र का भव रुप ज्ञान बल, योग बल और भगवत प्रेम के रुप में सुख देने वाला माना जाता है।
- सदाशिव - रुद्र का यह स्वरुप निराकार ब्रह्म का साकार रूप माना जाता है। जो सभी वैभव, सुख और आनंद देने वाला माना जाता है।
- शिव - यह रुद्र रूप अंतहीन सुख देने वाला यानि कल्याण करने वाला माना जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए शिव आराधना महत्वपूर्ण मानी जाती है।
- हर - इस रुप में नाग धारण करने वाले रुद्र शारीरिक, मानसिक और सांसारिक दु:खों को हर लेते हैं। नाग रूपी काल पर इन का नियंत्रण होता है।
- शर्व - काल को भी काबू में रखने वाला यह रुद्र रूप शर्व कहलाता है।
- कपाली - कपाल रखने के कारण रुद्र का यह रूप कपाली कहलाता है। इस रुप में ही दक्ष का दंभ नष्ट किया। किंतु प्राणीमात्र के लिए रुद्र का यही रूप समस्त सुख देने वाला माना जाता है।

रावण ने दी रुद्र को शंकर की उपाधि



याचना से पहले उसने रुद्र के सबसे विश्‍वस्‍त प्रहरी नंदी को कैलाश पर्वत की सीमा पर पछाड़ दिया था। रुद्र ने पहले रावण की युद्ध याचना को टालना चाहा, लेकिन उसकी जिद के आगे उन्‍हें झुकना पड़ा। रावण ने अपना हर दाँव चला और रुद्र ने एक मँजे हुए खिलाड़ी की तरह सबको असफल कर दिया। लड़ते-लड़ते पसीने से लथपथ रावण ने देखा कि रुद्र उन पर प्रति-प्रहार नहीं कर रहे हैं तो वह रुद्र का लोहा मान गया और उन्‍हें शंकर की उपाधि दी।

पौराणिक संदर्भ लेते हुए चतुरसेन ने लिखा है कि प्रजनन विज्ञान को धार्मिक रूप देने का काम सबसे पहले रुद्र ने ही किया था और उन्‍होंने एक हजार अध्‍याय का काम-विज्ञान-शास्‍त्र लिखा था। उन्‍होंने जननांग को सब कारणों का कारण कह कर पूजित किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि लिंग-पूजन उस वक्‍त की लगभग सभी जातियों में प्रतिष्‍ठा पा गया। चतुरसेन के मुताबिक लयनाल्लिंगमुच्‍यते रुद्र की लिंग संबंधी सूक्ति है, जिसका मतलब है - लय या प्रलय होता है, इससे उसे लिंग कहा जाता है।

दिलचस्‍प यह है कि चतुरसेन ने शिव को उस समय धरती का सबसे प्रभावशाली व्‍यक्ति माना है और यत्‍नपूर्वक यह खोज कर एक जगह पर रखा है कि पूरी दुनिया में जगह-जगह शिवलिंग की पूजा होती रही है। रोमक और यूनान दोनों देशों में क्रमश: प्रियेपस और फल्‍लुस के नाम से लिंग पूजा होती थी। फल्‍लुस फलेश का बिगड़ा रूप है। मिस्र में हर और ईशि: की उपासना उनके धर्म का प्रधान अंग था। प्राचीन चीन और जापान के साहित्‍य में भी लिंग-पूजा का उल्‍लेख है। अमेरिका में मिली प्राचीन मूर्तियों से प्रमाणित है कि अमेरिका के आदि निवासी लिंगपूजक थे। ईसाइयों के पुराने अहदनामे में लिखा है कि रैहोवोयम के पुत्र आशा ने अपनी माता को लिंग के सामने बलि देने से रोका था। पीछे उस लिंग-मूर्ति को तोड़-फोड़ दिया गया था। यहूदियों का देवता बैल फेगो लिंग-मूर्ति ही था।

अरब में मुहम्‍मद के आने से पहले लात नाम से लिंग-पूजन होता था। इसी से पच्छिमी लोगों ने सोमनाथ के लिंग को भी लात कहा है। मक्‍का के काबे में जो लिंग है, उसे भविष्‍य पुराण मक्‍केश्‍वर के नाम से उल्‍लेख करता है। यह एक काले पत्‍थर का लिंग है, जिसे मुसलमान संगे-असवद कहते हैं। इजिप्‍ट-मेसिफ और अशीरिस आदि राज्यों में लोग नंदी पर बैठे हुए हाथों में त्रिशूल लिये, बाघ की खाल पहने शिव की मूर्ति की पूजा बेलपत्र से करते और दूध से अभिषेक करते थे। बेबिलोन में एक हजार दो सौ फुट का एक महालिंग था। ब्रेजिल प्रदेश में पुराने हजारों वर्ष पुराने शिवलिंग अभी भी हैं। स्‍काटलैंड के ग्‍लासगो नगर में सोने से मढ़ा हुआ एक शिवलिंग है, जिसकी पूजा होती है। फीजियन्‍स में एटिव्‍स और निनवा में एषीर नाम के शिवलिंग हैं।

अफरीदिस्‍तान, काबुल, बलख़बुखारा आदि जगहों में अनेक शिवलिंग हैं, जिन्‍हें वहां के लोग पचशेर और पंचवीर नामों से पुकारते हैं। इंडोचाइना के अनाम में अनेक शिवालय हैं। प्राचीन काल में इस देश को चंपा कहते थे। कंबोडिया में, जिसका प्राचीन नाम कांबोज है, और जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों में भी अनगिनत शिवलिंग मिले हैं। भारत-चीन (इंडोचीन), श्री क्षेत्र (मध्‍य बर्मा), हंसावती (दक्षिण बर्मा), द्वारावती (श्‍याम), मलयद्वीप आदि जगहों पर सर्वत्र शिवलिंग और शिवमूर्ति पायी जाती है।

ये जानकारियाँ वयं रक्षाम: में काफी विस्‍तार से दी गयी हैं। सबसे अच्‍छी बात यह है कि आचार्य चतुरसेन के अनुसार ये तमाम देवता मनुष्‍य जाति से थे और अपने समय पर उनके प्रभाव ने उन्‍हें पूजनीय बना दिया था।

 
हजारों वर्षों से जीवित है सात महामानव
यह दुनिया का एक आश्चर्य है। विज्ञान इसे नहीं मानेगा, योग और आयुर्वेद कुछ हद तक इससे सहमत हो सकता है, लेकिन जहां हजारों वर्षों की बात हो तो फिर योगाचार्यों के लिए भी शोध का विषय होगा। इसका दावा नहीं किया जा सकता और इसके किसी भी प्रकार के सबूत नहीं है। यह आलौकिक है। किसी भी प्रकार के चमत्कार से इन्कार ‍नहीं किया जा सकता। सिर्फ शरीर बदल-बदलकर ही हजारों वर्षों तक जीवित रहा जा सकता है। यह संसार के सात आश्चर्यों की तरह है।

हिंदू इतिहास और पुराण अनुसार ऐसे सात व्यक्ति हैं, जो चिरंजीवी हैं अर्थात जो कभी मर नहीं सकते। यह सब किसी न किसी वचन, नियम या शाप से बंधे हुए हैं और यह सभी दिव्य शक्तियों से संपन्न है। योग में जिन अष्ट सिद्धियों की बात कही गई है वे सारी शक्तियां इनमें विद्यमान है। यह परामनोविज्ञान जैसा है, जो परामनोविज्ञान और टेलीपैथी विद्या जैसी आज के आधुनिक साइंस की विद्या को जानते हैं वही इस पर विश्वास कर सकते हैं। आओ जानते हैं कि हिंदू धर्म अनुसार कौन से हैं यह सात जीवित महामानव।1. बलि : असुरों के राजा बलि के दान के चर्चे दूर-दूर तक थे। देवताओं पर चढ़ाई करके राजा बलि ने इंद्रलोक पर अधिकार कर लिया था। और वह त्रिलोकाधिपति बन गया था। तीनों लोक पर राज करने वाला बलि असुरों के प्रति उदार और देवताओं के प्रति सख्त था। उसकी मनमानी से देवता तंग आ चुके थे। वह बहुत शक्तिशाली और घमंडी था।

राजा बलि के घमंड को चूर करने के लिए भगवान विष्णु को वामन अवतार लेना पड़ा। भगवान ब्राह्मण का भेष धारण कर राजा बलि के समक्ष पहुंच गए, क्योंकि वह परमदानी था। भगवान ने उसे भिक्षा में तीन पग धरती दान में मांगी ली।

राजा बलि ने हंसते हुए कहा, 'बस तीन पग? जहां आपकी इच्छा हो तीन पैर रख दो।' तब भगवान ने अपना विराट रूप धारण कर दो पग में तीनों लोक नाप दिए और फिर बलि से पूछा अब बताओं तीसरा पग कहां रखूं अब तो तुम्हारे पास कोई जगह नहीं बची। तब बलि ने हाथ जोड़कर कहा प्रभु तीसरा पग मेरे सिर पर रख दो। अब यही बचा है मेरे पास।

तब भगवान ने उसके वि‍नम्र उत्तर और दानी स्वभाव से प्रसंन्न होकर उसे चिरंजीवी रहने का वरदान दिया और उसके सिर पर सिर पर पैर रखकर उसे पाताल लोक भेज दिया। बलि रसातल के राजा बन गए।परशुराम : परशुराम को कौन नहीं जानता? राम के काल के पूर्व महान ऋषि रहे हुए हैं परशुराम। उनके पिता का नाम जमदग्नि और माता का नाम रेणुका है। पति परायणा माता रेणुका ने पांच पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम क्रमशः वसुमान, वसुषेण, वसु, विश्वावसु तथा राम रखे गए। राम की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें फरसा दिया था इसीलिए उनका नाम परशुराम हो गया।

भगवान पराशुराम राम के पूर्व हुए थे, लेकिन वे चिरंजीवी होने के कारण राम के काल में भी थे और कृष्ण के काल में भी थे। भगवान परशुराम विष्णु के छठवें अवतार हैं। इनका प्रादुर्भाव वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ, इसलिए उक्त तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इनका जन्म समय सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है।

चक्रतीर्थ में किए कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तक तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।हनुमान : अंजनी पुत्र हनुमान को भी अजर अमर रहने का वरदान मिला हुआ है। यह राम के काल में राम भगवान के परम भक्त रहे हैं। हजारों वर्षों बाद वे महाभारत काल में भी नजर आते हैं। महाभारत में प्रसंग हैं कि भीम उनकी पूंछ को मार्ग से हटाने के लिए कहते हैं तो हनुमानजी कहते हैं कि तुम ही हटा लो, लेकिन भीम अपनी पूरी ताकत लगाकर भी उनकी पूंछ नहीं हटा पाता है।

वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के चालीसवें अध्याय में इस बारे में प्रकाश डाला गया है। लंका विजय कर अयोध्या लौटने पर जब श्रीराम उन्हें युद्घ में सहायता देने वाले विभीषण, सुग्रीव, अंगद आदि को कृतज्ञता स्वरूप उपहार देते हैं तो हनुमानजी श्रीराम से याचना करते हैं- यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले। तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।।

अर्थात : 'हे वीर श्रीराम। इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहे।' इस पर श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते हैं- 'एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:। चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा। लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।'

अर्थात् : 'हे कपिश्रेष्ठ। ऐसा ही होगा। इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे ही। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेगी।' 4.विभिषण : रावण के छोटे भाई विभिषण। जिन्होंने राम की नाम की महिमा जपकर अपने भाई के विरु‍द्ध लड़ाई में उनका साथ दिया और जीवन भर राम नाम जपते रहें। कोटा के कैथून में विभिषण का एकमात्र मंदिर है।

5. ऋषि व्यास : महाभारतकार व्यास ऋषि पराशर एवं सत्यवती के पुत्र थे, ये सांवले रंग के थे तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप में उत्पन्न हुए थे। अतएव ये सांवले रंग के कारण 'कृष्ण' तथा जन्मस्थान के कारण 'द्वैपायन' कहलाए। इनकी माता ने बाद में शान्तनु से विवाह किया, जिनसे उनके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़ा चित्रांगद युद्ध में मारा गया और छोटा विचित्रवीर्य संतानहीन मर गया।

कृष्ण द्वैपायन ने धार्मिक तथा वैराग्य का जीवन पसंद किया, किन्तु माता के आग्रह पर इन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों सन्तानहीन रानियों द्वारा नियोग के नियम से दो पुत्र उत्पन्न किए जो धृतराष्ट्र तथा पाण्डु कहलाए, इनमें तीसरे विदुर भी थे। व्यासस्मृति के नाम से इनके द्वारा प्रणीत एक स्मृतिग्रन्थ भी है। भारतीय वांड्मय एवं हिन्दू-संस्कृति व्यासजी की ऋणी है।6.अश्वत्थामा : अश्वथामा गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र हैं। अश्वस्थामा के माथे पर अमरमणि है और इसीलिए वह अमर हैं, लेकिन अर्जुन ने वह अमरमणि निकाल ली थी। ब्रह्मास्त्र चलाने के कारण कृष्ण ने उन्हें शाप दिया था कि कल्पांत तक तुम इस धरती पर जीवित रहोगे, इसीलिए अश्वत्थामा सात चिरन्जीवियों में गिने जाते हैं।

माना जाता है कि वे आज भी जीवित हैं तथा अपने कर्म के कारण भटक रहे हैं। हरियाणा के कुरुक्षेत्र एवं अन्य तीर्थों में यदा-कदा उनके दिखाई देने के दावे किए जाते रहे हैं। मध्यप्रदेश के बुरहानपुर के किले में उनके दिखाई दिए जाने की घटना भी प्रचलित है।7.कृपाचार्य : शरद्वान् गौतम के एक प्रसिद्ध पुत्र हुए हैं कृपाचार्य। कृपाचार्य अश्वथामा के मामा और कौरवों के कुलगुरु थे। शिकार खेलते हुए शांतनु को दो शिशु प्राप्त हुए। उन दोनों का नाम कृपी और कृप रखकर शांतनु ने उनका लालन-पालन किया। महाभारत युद्ध में कृपाचार्य कौरवों की ओर से सक्रिय थे।

श्लोक : 'अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥'
अर्थात् : अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम ये सभी चिरंजीवी हैं। ये इस कल्प के अंत तक इस पृथ्वी पर विद्यमान रहेंगे।



भूत प्रेत ऊपरी बाधा या हवा
आपके लिए हैं कुछ खास उपाय जिनसे आप इन भूतों से दूर रह सकते हैं.

भूत-प्रेत, ऊपरी बाधा या हवा। यह शब्द अक्सर हमारे सुनने में आते हैं। ऐसा माना जाता है जिन लोगों पर इनका असर होता है उनमें कुछ शारीरिक व मानसिक परिवर्तन हो जाता है। उत्तेजना में आकर ऐसे लोग किसी पर भी वार कर सकते हैं। भूत बाधा से पीडि़त व्यक्ति को नीचे लिखे टोटके से इस परेशानी से मुक्ति मिल सकती है।

सामग्री 
लौंग का जोड़ा, फूल का जोड़ा, इलाइची, पान और पेड़ा।

टोटका
एक दोना लेकर उसमें सबसे पहले पान रखें। उसके ऊपर फूल व अन्य वस्तुएं रखकर भूतबाधा से पीडि़त व्यक्ति के नाम राशि के ग्रह का मंत्र 108 बार पढ़ें। यह कार्य पवित्र होकर व दोना सामने रखकर करें। इसके पश्चात सात बार मंत्र पढ़ते हुए उस दोने को रोगी के सिर से पांव तक उतार कर बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें। ऐसा करने से प्रेत बाधा शांत हो जाती है ( यह टोटका अनटोका किया जाना चाहिए।)

प्रेत बाधा दूर करने के लिए पुष्य नक्षत्र में चिड़चिटे अथवा धतूरे का पौधा जड़सहित उखाड़ कर उसे धरती में ऐसा दबाएं कि जड़ वाला भाग ऊपर रहे और पूरा पौधा धरती में समा जाएं। इस उपाय से घर में प्रेतबाधा नहीं रहती और व्यक्ति सुख-शांति का अनुभव करता है।
भूत-प्रेत भागने के लिए 
भूत-पिशाच जहाँ रहते हैं, वहां गाय खड़ी कर दो, गाय की सुगंध से भूत अपने आप भागेंगे l किसी के घर में भूत-प्रेत का वास हो, तो गाय का गोबर अथवा गाय का झरण छिटका करो l गाय का कंडा जलाओ, उस पे थोड़ा गाय का घी डाल दो, अपने आप भागेंगे, भागना नहीं पड़ेगा l अगर किसी व्यक्ति के अंदर भूत घुसे हैं तो उसे उसी धूप वाले कमरे में बिठाओ, भाग जायेंगे l



राशि के अनुसार रोजगार का चुनाव  
राशियों की कुल संख्या 12 है.जन्म के समय के अनुसार अलग अलग व्यक्ति की अलग अलग राशि होती है.आपकी जो राशि है उनके अनुसार आप अपने लिए सही कैरियर की तलाश कर सकते हैं.
मेष राशि (Aries Occupation)
मेष राशि का स्वामी मंगल है. जन्मपत्री के दशम भाव में मेष राशि है तो आपको साहसिक कार्यों में सफलता आसनी से मिलती है.आपके लिए रक्षा विभाग, पुलिस विभाग, धातु से सम्बन्धित कार्य, राजनीतिक एवं प्रशासिक कार्य एवं चिकित्सक का पेशा लाभकारी और अनुकूल परिणाम देने वाला होता है.पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आपको कामयाबी मिलती है.

वृष राशि (Taurus Occupation)
शुक्र वृष राशि का स्वामी होता है.आपकी कुण्डली के दशम भाव में वृष राशि है तो आपको संगीत, सौन्दर्य प्रशाधन, मीडिया में रोजगार की तलाश करनी चाहिए.आपके लिए बैंक की नौकरी, विज्ञापन का कार्य, इलैक्ट्रॉनिक्स का काम लाभप्रद होता है.वाणिज्य के क्षेत्र में भी आपको सफलता मिलती है.

मिथुन राशि (Gemini Occupation)
मिथुन राशि का स्वामी बुध ग्रह होता है.आपकी कुण्डली के दशम भाव में मिथुन राशि हैं तो आपको अपना कैरियर मीडिया में बनाना चाहिए.आपके लिए इंजीनियरिंग, शिक्षण, लेखन एवं अनुवादक का कार्य भी उत्तम रहने वाला है.आप संपादक और साहित्यकार भी बन सकते हैं.

कर्क राशि (Cancer Occupation)
चन्द्रमा कर्क राशि का स्वामी है.यह राशि दशम भाव में है तो चिकित्सक का पेशा आपके लिए लाभप्रद रहेगा.होटल का कारोबार, बेकरी का काम, पशुपालन का कार्य आपको लाभ देगा. चाय काफी का कारोबार भी आपके लिए फायदेमंद रहेगा.

सिंह राशि (Leo Occupation)
सूर्य सिंह राशि का स्वामी होता है.आपकी कुण्डली के दशम भाव में सिंह राशि है तो आपको प्रशासनिक क्षेत्र में रोजगार की तलाश करनी चाहिए.आपके लिए शेयर का कारोबार, आभूषण का काम, दबाईयों का कारोबार कामयाबी दिलाने वाला होगा.आप फिल्मोद्योग में भी सफल हो सकते हैं.

कन्या राशि (Virgo Occupation)
कन्या राशि का स्वामी बुध ग्रह होता है.आपकी जन्मपत्री में अगर कन्या राशि दशम भाव में है तो आप एकाउंटेंट बन सकते हैं.आप क्लर्क, चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक, वायुयान चालक, लेखक, सम्पदाक हो सकते हैं.आप चाहें तो व्यापार भी कर सकते हैं.डाक विभाग की नौकरी एवं कलम कापी की दुकान भी आपके लिए बेहतर लाभ देने वाला होगा.

तुला राशि (Libra Occupation)
आपकी कुण्डली के दशम भाव में तुला राशि है.इस राशि का स्वामी शुक्र है.आपके लिए न्याय विभाग में बेहतर संभावना है.आप अभिनय, गायन, फैशन उद्योग, छाया चित्रकार के रूप में भी कैरियर बना सकते हैं.फर्नीचर का कारोबार, होटल का कारोबार, दर्जी का काम भी आपके लिए लाभप्रद रहेगा.

वृश्चिक राशि (Scorpio Occupation)
कुण्डली का दशम भाव कार्य भाव के रूप में जाना जाता है.इस भाव में वृश्चिक राशि है.इस राशि का स्वामी मंगल है.आप पुलिस विभाग, रक्षा विभाग, रेलवे, दूर संचार विभाग में कैरियर की तलाश कर सकते हैं.आप नाविक, बीमा कर्ता एवं चिकित्सा के क्षेत्र में भी प्रयास कर सकते हैं.मशीनरी कार्यों में भी आपको लाभ मिलेगा.

धनु राशि (Sagattarus Occupation)
आपकी कुण्डली के दशम भाव में 9 अंक लिखा है तो इस भाव में धनु राशि है.इस राशि का स्वामी गुरू है.अगर खेल के प्रति लगाव है तो आप खेल को कैरियर के रूप में ले सकते हैं.आप वकालत अथवा लेखापाल के तौर पर भी कार्य कर सकते हैं.शिक्षा के क्षेत्र में भी आप कामयाबी हासिल कर सकते है.धर्म प्रचारक एवं धर्म गुरू के रूप में भी आप ख्याति प्राप्त कर सकते हैं.

मकर राशि (Capricorn Occupation)
मकर राशि का स्वामी शनि होता है.आपकी कुण्डली के दशम भाव में 10 राशि यानी मकर बैठा हुआ है.आप खान में काम कर सकते हैं.कृषि विभाग एवं धातु से सम्बन्धित कार्य भी आपके लिए अनुकूल रहेगा.लकड़ी का कारोबार एवं लोहे से सम्बन्धित कारोबार भी आपके लिए लाभप्रद रहेगा.

कुम्भ राशि (Aquarius Occupation)
कुम्भ राशि का स्वामी भी शनि ग्रह है.आपकी कुण्डली में कुम्भ राशि कार्य भाव में है.आप बिजली विभाग में प्रयास कर सकते हैं.आपके लिए सलाहकार, अभियंत्रिकी, चिकित्सा, ज्योतिष का क्षेत्र लाभप्रद है.आप तकनीकी क्षेत्र में भी कैरियर की तलाश कर सकते हैं.वायुयान से सम्बन्धित क्षेत्र भी आपके लिए लाभप्रद रहेगा.

मीन राशि (Pices Occupation) 
कुण्डली में अंक 12 मीन राशि का संकेत है.इस राशि का स्वामी गुरू होता है.आपकी कुण्डली के दशम भाव में मीन राशि है.आप अपना कैरियर लेखक, संपादक, चिकित्सक, धर्म प्रचारक के रूप में बना सकते हैं.आप फिल्म और मनोरंजन के क्षेत्र में अथवा जासूसी में भी संभावनाओं की तलाश कर सकते हैं.

कालसर्प योग 

कहते हैं की नागपंचमी के दिन छोटे छोटे उपाय कर लेने से ही कालसर्प योग के प्रभावों में कमी आती है१२ तरीकों के कालसर्प योगों का विधिवत उपाय बता चूका हूँ फिर भी यहाँ कुछ उपाय लिख रहा हूँ जो कोई भी नागपंचमी वाले दिन कर सकता है।
• चांदी नाग-नागिन के जोडे़ को गंगा अथवा किसी तेज बहते जल में प्रवाहित करें।
• शिव लिंग पर चढ़ाने योग्य तांबे का एक बड़ा सर्प बनाएं। साथ ही सर्प-सर्पिणी का चांदी का जोड़ा बनवाएं। किसी शुभ मुहूर्त में ओउम् नम: शिवाय’ की 11 माला जाप करने के उपरांत शिवलिंग का गाय के दूध से अभिषेक करें और शिव को प्रिय बेलपत्रा आदि सामग्रियां श्रध्दापूर्वक अर्पित करें। तांबे के सर्प को प्राण प्रतिष्ठित कर ब्रह्म मुहूर्त में शिवालय पर चढ़ा आएं तथा सर्प-सर्पिणी के चांदी के जोड़े को बहते पानी में छोड़ दें।
सर्प पकड़े हुए मोर या गरुड़ का चित्र अपने पूजा घर में लगाकर दर्शन करते हुए नव नाग स्तोत्र का जप करें। स्तोत्र: “अनंत वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कंबल। शंखपालं धार्तराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा। एतानि नवनामानि नागानां च महात्मानां सायंकालेपठेन्नित्यं प्रातः काले विशेषतः।।”

कालसर्प योग मुख्यत: बारह प्रकार के माने गये हैं। आगे सभी भेदों को उदाहरण कुंडली प्रस्तुत करते हुए समझाने का प्रयास किया गया है –
1. अनन्त कालसर्प योग

जब जन्मकुंडली में राहु लग्न में व केतु सप्तम में हो और उस बीच सारे ग्रह हों तो अनन्त नामक कालसर्प योग बनता है। राहु जब लग्न में हो तो जातक धनवान होता है, बलवान होता है साथ-साथ बहुत ही दृढ़ निष्चयी और साहसी होगा। हां इतना जरुर मैंने देखा है कि उसकी पत्नी का स्वास्थ्य हमेषा प्रतिकूल रहता है। परन्तु वे अपने पुरुषार्थ से अच्छी सफलता पाते हैं।

उपाय:

सूर्योदय के बाद तांबे के पात्र में गेहूं, गुड़, भर कर बहते जल में प्रवाह करें। संतान कष्ट हो तो काला और सफेद कम्बल गरीब को दान करें। 
प्रतिदिन एक माला ‘्र नम: शिवाय’ मंत्रा का जाप करें। कुल जाप संख्या 21 हजार पूरी होने पर शिव का रुद्राभिषेक करें। 
कालसर्पदोष निवारक यंत्रा घर में स्थापित करके उसका नियमित पूजन करें। 
नाग के जोड़े चांदी के बनवाकर उन्हें तांबे के लौटे में रख बहते पानी में एक बार प्रवाहित कर दें। 
प्रतिदिन स्नानोपरांत नवनागस्तोत्रा का पाठ करें। 
राहु की दशा आने पर प्रतिदिन एक माला राहु मंत्रा का जाप करें और जब जाप की संख्या 18 हजार हो जाये तो राहु की मुख्य समिधा दुर्वा से पूर्णाहुति हवन कराएं और किसी गरीब को उड़द व नीले वस्त्रा का दान करें। 
हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें। 
श्रावण मास में 30 दिनों तक महादेव का अभिषेक करें। 
शनिवार का व्रत रखते हुए हर शनिवार को शनि व राहु की प्रसन्नता के लिए सरसों के तेल में अपना मुंह देखकर उसे शनि मंदिर में समर्पित करें।

2 कुलिक कालसर्प योग

राहु दूसरे घर में हो और केतु अष्टम स्थान में हो और सभी ग्रह इन दोनों ग्रहों के बीच में हो तो कुलिक नाम कालसर्प योग होगा। इस भाव में राहु हमेषा जातक को दोहरे स्वभाव का बनाता है। अत्याधिक आत्मविष्वास के कारण अनेकों प्रकार की परेषानियों का सामना इन्हें करना पड़ता है। प्रियजनों का विरह झेलना पड़ता है। कई बार इस जातक को पाइल्स की षिकायत भी देखी गई है। कारण की केतु अष्टम स्थान में है। परन्तु एक बात मैंने देखी है कि केतु यहां पर मेष, वृष, मिथुन, कन्या और वृष्चिक राषि में हो तो जातक के पास धन की कमी नहीं होती। ऐसे व्यक्तियें को विरासत में बहुत धरोहर मिलती है।

उपाय:

चांदी की ठोस गोली सफेद धागे में हमेषा गले में धारण करें। केसर का तिलक लगाना भी आपके लिए शुभ होगा। 
सरस्वती जी की एक वर्ष तक विधिवत उपासना करें। 
देवदारु, सरसों तथा लोहवान को उबालकर उस पानी से सवा महीने तक स्नान करें। 
शुभ मुहूर्त में बहते पानी में कोयला तीन बार प्रवाहित करें।

3. वासुकी कालसर्प योग

राहु तीसरे घर में और केतु नवम स्थान में और इस बीच सारे ग्रह ग्रसित हों तो वासुकी नामक कालसर्प योग बनता है।यदि तीसरे भाव में राहु और नवम भाव में केतु तो जातक के पास धन-दौलत और वैभव की कोइ कमी नहीं रहती। स्त्री सुख अनुकूल रहता है साथ ही मित्र भी हमेषा सहयोग के लिए तैयार रहते हैं। परंतु अपने से छोटे भाइयों से इनका हमेषा विरोध रहता है। परन्तु पिता से अच्छी निभती है और पिता का आज्ञाकारी पुत्र भी होता है। तृतीय भाव में राहु हो तो ऐसे वयक्ति धर्म के माध्यम से धन अर्जित करते हैं और बहुत ही प्रसिध्द होते हैं। विदेश यात्रा करते हैं, व देश विदेश में यश प्राप्त करते हैं जैसे मुरारी बापू।

उपाय:

चवल, दाल और चना बहते पानी में प्रवाह में करें। साथ ही मकान के मुख्य द्वार पर अंदर-बाहर तांबे का स्वस्तिक या गणेष जी मूर्ति टांग दें। 
नव नाग स्तोत्रा का एक वर्ष तक प्रतिदिन पाठ करें। 
प्रत्येक बुधवार को काले वस्त्रा में उड़द या मूंग एक मुट्ठी डालकर, राहु का मंत्रा जप कर भिक्षाटन करने वाले को दे दें। यदि दान लेने वाला कोई नहीं मिले तो बहते पानी में उस अन्न हो प्रवाहित करें। 72 बुधवार तक करने से अवश्य लाभ मिलता है। 
महामृत्युंजय मंत्रा का 51 हजार जप राहु, केतु की दशा अंतर्दशा में करें या करवायें। 
किसी शुभ मुहूर्त में नाग पाश यंत्रा को अभिमंत्रिात कर धारण करें। 
शुक्ल पक्ष के प्रथम शनिवार से व्रत प्रारंभ कर 18 शनिवारों तक व्रत करें और काला वस्त्रा धारण कर 18 या 3 माला राहु के बीज मंत्रा का जाप करें। फिर एक बर्तन में जल दुर्वा और कुशा लेकर पीपल की जड़ में चढ़ाएं। भोजन में मीठा चूरमा, मीठी रोटी, समयानुसार रेवड़ी तिल के बने मीठे पदार्थ सेवन करें और यही वस्तुएं दान भी करें। रात में घी का दीपक जलाकर पीपल की जड़ में रख दें। नाग पंचमी का व्रत भी अवश्य करें। 
नित्य प्रति हनुमान चालीसा का 11 बार पाठ करें और हर शनिवार को लाल कपड़े में आठ मुट्ठी भिंगोया चना व ग्यारह केले सामने रखकर हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और उन केलों को बंदरों को खिला दें और प्रत्येक मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर में बूंदी के लड्डू का भोग लगाएं और हनुमान जी की प्रतिमा पर चमेली के तेल में घुला सिंदूर चढ़ाएं। ऐसा करने से वासुकी काल सर्प योग के समस्त दोषों की शांति हो जाती है। 
श्रावण के महीने में प्रतिदिन स्नानोपरांत 11 माला ‘्र नम: शिवाय’ मंत्रा का जप करने के उपरांत शिवजी को बेलपत्रा व गाय का दूध तथा गंगाजल चढ़ाएं तथा सोमवार का व्रत करें।

4. शंखपाल कालसर्प योग

राहु चौथे स्थान में और केतु दशम स्थान में हो इसके बीच सारे ग्रह हो तो शंखपाल नामक कालसर्प योग बनता है। यदि राहु यहां उच्च का हो षुभ राषि वाला हो तो सभी सुखों से परिपूर्ण होता है। और जातक की कुंडली में षुक्र अनुकूल हो तो विवाह के बाद कारोबार और धन में वृध्दि होती है। साथ ही यदि चंद्रमा लग्न में हो तो आर्थिक तंगी कभी नहीं रहती। इस जातक को 48 वर्ष की आयु में बृहस्पति का उत्तम फल प्राप्त होता है। परन्तु फिर भी सफलता के लिए इन्हें विघ्नों का सामना करना पड़ता है। लेकिन केतु दषम भाव में मेष, वृष, कन्या और वृष्चिक राषि में है तो और भी उत्तम फल प्राप्त होता है एवं शत्रु चाह कर भी हानि नहीं पहुंचा सकता। चतुर्थ में राहु व दशम में केतु हो तो ऐसे व्यक्ति राजनिति में उतार चढ़ाव रहते हुए राजनिति में अच्छी सफलता पाते हैं। जैसे मुलायम सिंह जी, चौधरी चरण सिंह। ऐसे व्यक्तियों को दूसरे साथीयों से न चाहते हुए भी सहयोग प्राप्त होता है

उपाय:

गेहूं को पीले कपड़े में बांध कर जरुरतमंद व्यक्ति को दान दें। 400 ग्राम धनियां बहते पानी में प्रवाह करें। 
अनुकूलन के उपाय – 
शुभ मुहूर्त में मुख्य द्वार पर चांदी का स्वस्तिक एवं दोनों ओर धातु से निर्मित नाग चिपका दें। 
नीला रुमाल, नीला घड़ी का पट्टा, नीला पैन, लोहे की अंगूठी धारण करें। 
शुभ मुहूर्त में सूखे नारियल के फल को जल में तीन बार प्रवाहित करें। 
हरिजन को मसूर की दाल तथा द्रव्य शुभ मुहूर्त में तीन बार दान करें। 
18 शनिवार का व्रत करें और राहु,केतु व शनि के साथ हनुमान की आराधना करें। लसनी, सुवर्ण, लोहा, तिल, सप्तधान्य, तेल, धूम्रवस्त्रा, धाूम्रपुष्प, नारियल, कंबल, बकरा, शस्त्रा आदि एक बार दान करें।

5. पद्म कालसर्प योग

राहु पंचम व केतु एकादश भाव में तथा इस बीच सारे ग्रह हों तो पद्म कालसर्प योग बनता है। पंचम भाव में राहु व ग्यारहवें भाव में केतु अध्यात्म की ओर प्रेरित करता है। उत्तम परिवार वाला, आर्थिक स्थिति मजबूत साथ ही उत्तम गुणा एवं भोग से युक्त होता है। केतु ग्यारहवें घर में सम्पूर्ण सिध्दि व सफलता प्राप्त कराता है परन्तु इस योग में संतान पक्ष थोड़ा कमजोर रहता है। साथ ही जातक अपने भाइयों के प्रति थोड़ा कलहकारी होता है। 21 या 42 वर्ष की अवस्था में पिता को थोड़े कष्ट की सम्भावना रहती है। यह जातक आर्थिक दृष्टि से बहुत मजबूत होता है, समाज में मान-सम्मान मिलता है और कारोबार भी ठीक रहता है यदि यह जातक अपना चाल-चलन ठीक रखें, मध्यपान न करें और अपने मित्रकी सम्पत्ति को न हड़पे तो उपरोक्त कालसर्प प्रतिकूल प्रभाव लागू नहीं होते हैं। पंचम में राहु व एकादश में केतु हो तो ऐसे व्यक्ति सफल राजनितिक होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को उतार चढ़ाव आते हैं परन्तु सफलता व यश अच्छा प्राप्त होता है। अधिकतर बड़े राजनितिज्ञों में यह कालसर्प योग पाया जाता है। जैसे नारायण दत्त तिवारी, राम विलास पासवान, शीला दिक्षित, शंकर राव चौहान आदि के जिवन से आप सब परिचित हैं। क्योंकि यह भाव पूर्व जन्मों से सम्बंधित होते हैं। पंचम और एकादश यह दोनो भाव ऐसे हैं राहु केतु कहीं भी बैठें हमेशा अच्छी ही सफलता मिलती है। ऐसे व्यक्तियों को उदर (पेट) के माध्यम से शरिरिक कष्ट आता है।

उपाय:

रात को सोते समय सिरहाने पांच मुलियां रखें और सवेरे मंदिर में रख आएं। संतान सुख के लिए दहलीज के नीचे चांदी की पत्तर रखें। 
किसी शुभ मुहूर्त में एकाक्षी नारियल अपने ऊपर से सात बार उतारकर सात बुधवार को गंगा या यमुना जी में प्रवाहित करें। 
सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को खिलाएं। 
शुभ मुहूर्त में सर्वतोभद्रमण्डल यंत्रा को पूजित कर धारण करें। 
नित्य प्रति हनुमान चालीसा पढ़ें और भोजनालय में बैठकर भोजन करें। 
शुभ मुहूर्त में मुख्य द्वार पर चांदी का स्वस्तिक एवं दोनों ओर धातु से मिर्मित नाग चिपका दें। 
शयन कक्ष में लाल रंग के पर्दे, चादर तथा तकियों का उपयोग करें।

6. महापद्म कालसर्प योग

राहु छठे भाव में और केतु बारहवे भाव में और इसके बीच सारे ग्रह अवस्थित हों तो महापद्म कालसर्प योग बनता है। इस योग में राहु को छटे स्थान में बहुत ही प्रषस्त अनुभव किया गया है। सम्पत्ति, वाहन, दीर्घायु, सर्वत्र विजय, साहसी, बहादुर और उच्च प्रवाह का होता है। लोगों को बहुत सहयोग करता है। यहां तक की फांसी के फंदे से बचा कर लाने की क्षमता होती है। परंतु स्वयं कभी निरोग नहीं रहता। अनेको प्रकार की बिमारियों का सामना करना पड़ता है। यदि जातक को सट्टे या जुए की आदत लग जाए तो बर्बाद हो जाता है। आंखों की बिमारी से दूर रहना चाहिए। राहु छठे में और केतु द्वादश में हो तो ऐसे व्यक्ति धर्म से जुड़े होते हैं सभी प्रकार की प्रतिस्पर्धा में अच्छी सफलता पाते हैं तथा दान पुण्य और दूसरों की मदद में अपना सब कुछ लुटाने को ततपर रहते हैं। जैसे पं जवाहर लाल नेहरु।

उपाय:

गणेष जी की उपासना सर्वमंगलकारी सिध्द होगी। 
श्रावणमास में 30 दिनों तक महादेव का अभिषेक करें। 
शुक्ल पक्ष के प्रथम शनिवार से शनिवार व्रत आरंभ करना चाहिए। यह व्रत 18 बार करें। काला वस्त्रा धारण करके 18 या 3 राहु बीज मंत्रा की माला जपें। तदन्तर एक बर्तन में जल, दुर्वा और कुश लेकर पीपल की जड़ में डालें। भोजन में मीठा चूरमा, मीठी रोटी समयानुसार रेवड़ी, भुग्गा, तिल के बने मीठे पदार्थ सेवन करें और यही दान में भी दें। रात को घी का दीपक जलाकर पीपल की जड़ के पास रख दें। 
इलाहाबाद (प्रयाग) में संगम पर नाग-नागिन की विधिवत पूजन कर दूध के साथ संगम में प्रवाहित करें एवं तीर्थराज प्रयाग में संगम स्थान में तर्पण श्राध्द भी एक बार अवश्य करें। 
मंगलवार एवं शनिवार को रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड का 108 बार पाठ श्रध्दापूर्वक करें।

7. तक्षक कालसर्प योग

केतु लग्न में और राहु सप्तम स्थान में हो तो तक्षक नामक कालसर्प योग बनता है। इस योग में जातक बहुत ही उंच्चे सरकारी पदों पर काम करता है। सुखी, परिश्रमी और धनी होता है। वह अपने पिता से बहुत ही प्यार करता है और साथ ही बहुत सहयोग करता है। लक्ष्मी की कोई कमी नहीं होती है लेकिन जातक स्वयं अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने वाला होता है। यदि अपनी संगत अच्छे लोगों के साथ रखे तो अच्छा रहेगा। गलत संगत की वजह से परेषानी भी आ सकती है यदि यह जातक अपने जीवन में एक बात करें कि अपना भलाई न सोच कर ओरों का भी हित सोचना शुरु कर दें साथ ही अपने मान-सम्मान के fy, दूसरों को नीचा दिखाना छोड़ दें तो उपरोक्त समस्याएं नहीं आती।

उपाय:

11 नारियल बहते पानी में प्रवाह करें। 
कालसर्प दोष निवारण यंत्रा घर में स्थापित करके, इसका नियमित पूजन करें। 
सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को ख्लिाएं। 
देवदारु, सरसों तथा लोहवान – इन तीनों को उबालकर एक बार स्नान करें। 
शुभ मुहूर्त में बहते पानी में मसूर की दाल सात बार प्रवाहित करें और उसके बाद लगातार पांच मंगलवार को व्रत रखते हुए हनुमान जी की प्रतिमा में चमेली में घुला सिंदूर अर्पित करें और बूंदी के लड्डू का भोग लगाकर प्रसाद वितरित करें। अंतिम मंगलवार को सवा पांव सिंदूर सवा हाथ लाल वस्त्रा और सवा किलो बताशा तथा बूंदी के लड्डू का भोग लगाकर प्रसाद बांटे।

8. कर्कोटक कालसर्प योग

केतु दूसरे स्थान में और राहु अष्टम स्थान में कर्कोटक नाम कालसर्प योग बनता है। इस योग में जातक उदार मन, समाज सेवी और धनवान होता है। परंतु वाणी पर संयम कभी नहीं रहता। साथ ही परिवार वालों से कम ही पटती है। साथ ही अपने कार्यों को बदलते रहता है। षिक्षा में समस्या आती है। साथ ही जातक हमेषा निंदा का पात्र होता है।

उपाय:

चांदी का चकोर टुकरा हमेषा अपनी जेब में रखें। 
हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और पांच मंगलवार का व्रत करते हुए हनुमान जी को चमेली के तेल में घुला सिंदूर व बूंदी के लड्डू चढ़ाएं। 
काल सर्प दोष निवारण यंत्रा घर में स्थापित कर उसका प्रतिदिन पूजन करें और शनिवार को कटोरी में सरसों का तेल लेकर उसमें अपना मुंह देख एक सिक्का अपने सिर पर तीन बार घुमाते हुए तेल में डाल दें और उस कटोरी को किसी गरीब आदमी को दान दे दें अथवा पीपल की जड़ में चढ़ा दें। 
सवा महीने तक जौ के दाने पक्षियों को खिलाएं और प्रत्येक शनिवार को चींटियों को शक्कर मिश्रित सत्ताू उनके बिलों पर डालें। 
अपने सोने वाले कमरे में लाल रंग के पर्दे, चादर व तकियों का प्रयोग करें। 
किसी शुभ मुहूर्त में सूखे नारियल के फल को बहते जल में तीन बार प्रवाहित करें तथा किसी शुभ मुहूर्त में शनिवार के दिन बहते पानी में तीन बार कोयला भी प्रवाहित करें।

9. शंखचूड़ कालसर्प योग

केतु तीसरे स्थान में व राहु नवम स्थान में शंखचूड़ नामक कालसप्र योग बनता है। योग में जातक दिर्घायु, साहसी, यषस्वी और धन-धान्य से परिपूर्ण होता। दाम्पत्य सुख बहुत ही अनुकूल रहता है। सर्वत्र विजय और सम्मान पाता है। परन्तु इस जातक का चित हमेषा अस्थिर रहता है।

उपाय:

राहु और केतु के बीज मंत्रों का जाप करें। 
अनुकूलन के उपाय – 
इस काल सर्प योग की परेशानियों से बचने के लिए संबंधिात जातक को किसी महीने के पहले शनिवार से शनिवार का व्रत इस योग की शांति का संकल्प लेकर प्रारंभ करना चाहिए और उसे लगातार 18 शनिवारों का व्रत रखना चाहिए। व्रत के दौरान जातक काला वस्त्रा धारण करके राहु बीज मंत्रा की तीन या 18 माला जाप करें। जाप के उपरांत एक बर्तन में जल, दुर्वा और कुश लेकर पीपल की जड़ में डालें। भोजन में मीठा चूरमा, मीठी रोटी, रेवड़ी, तिलकूट आदि मीठे पदार्थों का उपयोग करें। उपयोग के पहले इन्हीं वस्तुओं का दान भी करें तथा रात में घी का दीपक जलाकर पीपल की जड़ में रख दें। 
महामृत्युंजय कवच का नित्य पाठ करें और श्रावण महीने के हर सोमवार का व्रत रखते हुए शिव का रुद्राभिषेक करें। 
चांदी या अष्टधातु का नाग बनवाकर उसकी अंगूठी हाथ की मध्यमा उंगली में धारण करें। किसी शुभ मुहुर्त में अपने मकान के मुख्य दरवाजे पर चांदी का स्वस्तिक एवं दोनों ओर धातु से निर्मित नाग चिपका दें।

10. घातक कालसर्प योग

केतु चतुर्थ तथा राहु दशम स्थान में हो तो घातक कालसर्प योग बनाते हैं। इस योग में जातक परिश्रमी, धन संचयी व सुखी होता है। राजयोग का सुख भोगता है। दषम राहु राजनिती में अवष्य सफलता दिलाता है। मनोवांछित सफलताएं मिलती है। यदि शनि अनुकूल बैठा हो तो। परन्तु जातक हमेषा अपनी जन्म भूमि से दूर रहता है। माता का स्वास्थ्य प्रतिकूल रहता है। सब कुछ होने के बाद भी जातक के पास अपना सुख नहीं होता है।

उपाय:

हर मंगलवार का व्रत करें और 108 हनुमान चालीसा का पाठ करें। 
त्य प्रति हनुमान चालीसा का पाठ करें व प्रत्येक मंगलवार का व्रत रखें और हनुमान जी को चमेली के तेल में सिंदूर घुलाकर चढ़ाएं तथा बूंदी के लड्डू का भोग लगाएं। 
एक वर्ष तक गणपति अथर्वशीर्ष का नित्य पाठ करें। 
शनिवार का व्रत रखें और लहसुनियां, सुवर्ण, लोहा, तिल, सप्तधान्य, तेल, काला वस्त्रा, काला फूल, छिलके समेत सूखा नारियल, कंबल व हथियार आदि का समय-समय पर दान करते रहें। 
नागपंचमी के दिन व्रत रखें और चांदी के नाग की पूजा कर अपने पितरों का स्मरण करें और उस नाग को बहते जल में श्रध्दापूर्वक विसर्जित कर दें। 
शनिवार का व्रत करें और नित्य प्रति हनुमान चालीसा का पाठ करें। मंगलवार के दिन बंदरों को केला खिलाएं और बहते पानी में मसूर की दाल सात बार प्रवाहित करें।

11. विषधर कालसर्प योग

केतु पंचम और राहु ग्यारहवे भाव में हो तो विषधर कालसर्प योग बनाते हैं। इस योग में जातक 24 वर्ष की अवस्था के बाद सफलता प्राप्त करता है। आर्थिक स्थिति अच्छी रहेगी। ग्यारहवें भाव में राहु हमेषा अनुकूल फल प्रदान करता है। उचित व अनुचित दोनों तरीकों से धन की प्राप्ति होती है। दाम्पत्य सुख बहुत ही अनुकूल रहता है। संतान सुख की कोई कमी नहीं रहती। परंतु प्रथम संतान को अवष्य कष्ट मिलता है।

उपाय:

घी का दीपक जला कर दुर्गा कवच और सिद्कुंजिका स्तोत्र का पाठ करें। 
श्रावण मास में 30 दिनों तक महादेव का अभिषेक करें। 
नागपंचमी को चांदी के नाग की पूजा करें, पितरों का स्मरण करें तथा श्रध्दापूर्वक बहते पानी या समुद्र में नागदेवता का विसर्जन करें। 
सवा महीने देवदारु, सरसों तथा लोहवान – इन तीनों को जल में उबालकर उस जल से स्नान करें। 
प्रत्येक सोमवार को दही से भगवान शंकर पर – ‘्र हर हर महादेव’ कहते हुए अभिषेक करें। ऐसा केवल सोलह सोमवार तक करें। 
सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को खिलाएं।

12. शेषनाग कालसर्प योग



केतु छठे और राहु बारहवे भाव में हो तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये तो शेषनाग कालसर्प योग बनता है। इस योग में जातक हमेषा अपनी मेहनत और सूझ-बुझ से सफलता हासिल करता है। परंतु बहुत जरुरी है अपने आचरण को संयमित रखना। संतान पक्ष प्रबल होता है। दीर्घायु होता है। परन्तु ननिहाल पक्ष से हमेषा खटपट लगी रहती है।

उपाय:

काले और सफेद तील बहते जल में प्रवाह करें। किसी भी मंदिर में केले का दान करें। 
किसी शुभ मुहूर्त में ‘्र नम: शिवाय’ की 11 माला जाप करने के उपरांत शिवलिंग का गाय के दूध से अभिषेक करें और शिव को प्रिय बेलपत्रा आदि सामग्रियां श्रध्दापूर्वक अर्पित करें। साथ ही तांबे का बना सर्प विधिवत पूजन के उपरांत शिवलिंग पर समर्पित करें। 
हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और मंगलवार के दिन हनुमान जी की प्रतिमा पर लाल वस्त्रा सहित सिंदूर, चमेली का तेल व बताशा चढ़ाएं। 
किसी शुभ मुहूर्त में मसूर की दाल तीन बार गरीबों को दान करें। 
सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को खिलाने के बाद ही कोई काम प्रारंभ करें। 
काल सर्प दोष निवारण यंत्रा घर में स्थापित करके उसकी नित्य प्रति पूजा करें और भोजनालय में ही बैठकर भोजन करें अन्य कमरों में नहीं। 
किसी शुभ मुहूर्त में नागपाश यंत्रा अभिमंत्रिात कर धारण करें और शयन कक्ष में बेडशीट व पर्दे लाल रंग के प्रयोग में लायें। 
शुभ मुहूर्त में मुख्य द्वार पर अष्टधातु या चांदी का स्वस्तिक लगाएं और उसके दोनों ओर धातु निर्मित नाग चिपका दें तथा एक बार देवदारु, सरसों तथा लोहवान इन तीनों को उबाल कर स्नान करें।