भक्ति किसे कहते हैं
आज भक्ति के संदर्भ में लोगों के विचार विकृत हो चुके हैं। आज भावसंवेदना को, रोने को लोगों ने भक्तिभाव समझ रखा है। देवी के सामने नाक रगड़ना, उनके सामने रोना-यह भक्ति नहीं कहलाती है। उलटा बैठ जाना, सीधा बैठ जाना, आँसू बहाना-यह भक्ति नहीं है। यह भावुकता है, भक्ति नहीं। जहाँ तक आध्यात्मिक प्रगति एवं भक्ति के स्वरूप का संबंध है , यह सही नहीं है।
भक्ति किसे कहते हैं-इसका सीधा सादा मतलब है प्यार-मोहब्बत जिसके अंदर यह होता है, वह भावना से लबालब भरा होता है। प्यार से बड़ी कोई चीज नहीं है। इसी की तलाश में जीवात्मा रहता है। आनंद प्राप्त करने के लिए मनुष्य इंद्रियों का भोग करता है, सिनेमा देखता है, कामवासना के फेर में रहता है। परंतु अगर आप तीन घंटे से ज्यादा सिनेमा देखेंगे, तो आँखें खराब होने लगेंगी। इसी तरह कामवासना का भी आनंद थोड़े समय-चंद मिनटों का होता है। परंतु जीवात्मा को जो स्थिर एवं चिरस्थायी आनंद परमात्मा को प्राप्त करने पर मिलता है, उसे भक्ति कहते हैं। आपने अगर इसको अनुभव करके देखा होता, तो मजा आ जाता।
आपको अपने आपसे, अपनों से प्यार होता है। अपनी मोटर से, साइकिल से प्यार होता है। आप इसी तरह हर व्यक्ति को अपना मानिए। अगर पड़ोसी के बच्चे को भी अपना मानेंगे, तो आपको आनंद होगा। अगर कोई अपना आदमी घर में आ जाता है, तो आपको मजा आ जाता है। वास्तव में आनंद अपनेपन से होता है। अपना एवं पराये का जो फरक है, वह बहुत बड़ा है। जहाँ टार्च का प्रकाश पड़ता है, वहाँ की चीजें दिखाई पड़ती हैं। जहाँ प्रकाश नहीं पड़ता है, वहाँ अंधकार छाया रहता है। मित्रो! आप प्यार का टार्च जहाँ कहीं भी डालेंगे, जिस चीज पर भी डालेंगे, वह चीज आपको प्यारी एवं बढ़िया-आनंददायक मालूम पड़ेगी। मजनूँ-लैला कोई खास सुंदर नहीं थे, परंतु दोनों को एक-दूसरे से प्यार था, इसलिए दोनों एक-दूसरे पर मरने-खपने के लिए तैयार रहते थे।
मित्रो! भगवान् एक रस का नाम है, जिसे शास्त्रकारों ने ‘रसो वै सः’ बतलाया है। रस किसे कहते हैं? आनंद को कहते हैं। यह आनंद कहाँ है? भगवान् में है। अगर आप भगवान् के साथ आत्मीयता जोड़ लें, तो आपको भगवान् की भक्ति का आनंद मिल जाएगा। हम भगवान् के हैं तथा भगवान् हमारे हैं, यदि ऐसी भावना मनुष्य के भीतर आ जाए, तो मजा आ जाता है। मीरा ने भगवान् को अपना पति मान रखा था। इस कारण से उस प्यार के लिए भगवान् और मीरा दोनों भूखे थे। यही भक्ति है।
मित्रो! जरासंध एवं कंस ने कृष्ण भगवान् को पराया माना था, इस कारण उसे उनसे राग-द्वेष था। अपने होते हुए भी वे पराए लगते थे, फिर आनंद एवं प्यार कहाँ से उभरता? आनंद एवं प्यार एक ही चीज का नाम है। अगर आपको आनंद पाना है, तो प्यार का माद्दा बढ़ाना पड़ेगा। यह दिखाना नहीं पड़ता, वरन् अंदर से उपजता है और बिना प्रतिदान की इच्छा के अपना सब कुछ औरों पर उँड़ेल देता है। उदाहरण के लिए, अगर आपने अपने शरीर से जरा भी प्यार किया है, तो जब उसमें जरा-सी भी गड़बड़ी हो जाती है, तो आप उसको ठीक करते हैं, दवा खाते हैं, सँवारते हैं, बाल बनाते हैं। इसका कारण यह है कि हम अपने शरीर को अपना मानते हैं। अपनेपन का माद्दा जहाँ कहीं भी होता है, वहाँ आनंद एवं प्यार बरसता रहता है। गेंद जब दीवार पर फेंकी जाती है, तो वह लौटकर आपके पास आ जाती है। गुंबज में जो आवाज लगाई जाती है, वैसी ही आवाज लौटकर प्रतिध्वनि के रूप में हमें पुनः सुनाई देती है। अर्थात् वह वापस आ जाती है।
मित्रो! ठीक उसी प्रकार जब हम किसी को प्यार करते हैं, मोहब्बत करते हैं, तो वह भी उसी आवाज की तरह हमारे पास वापस आ जाती है। कहने का मतलब यह है कि हम जिसे प्यार करते हैं, वह भी हमें प्यार करता है। इस संसार में अगर आप लोगों को राग-द्वेष के रूप में देखेंगे, तो सारे संसार में आपको राग द्वेष ही मिलेगा। अगर आप लोगों की उपेक्षा करना आरंभ कर देंगे, तो आपको चारों तरफ उदासी, सूनापन तथा उपेक्षा ही मिलेगी। सब माया तथा मिथ्या दिखलाई पड़ेगा। परंतु अगर आपकी भावनाएँ ठीक होंगी, तो आपको हर जगह राम एवं सीता दिखलाई पड़ेंगे। जैसा कि तुलसीदास जी ने कहा है—
सीयराम मय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
साथियो! अभी तक आपने अपना दायरा अपने शरीर तथा अपने कुटुंब तक सीमित रखा है। उस दायरे को बढ़ा दीजिए। अपने आपको सारे संसार के रूप में बढ़ा दीजिए। स्वामी रामतीर्थ अपने आपको रामबादशाह कहा करते थे। किसका बादशाह हूँ? बादलों का, आकाश का बादशाह हूँ, यह कहा करते थे। आप गंगाजी का पानी निहारना चाहें, सड़क पर चलना चाहें, बादलों को निहारना चाहें, तो आपको कौन रोक सकता है? आप किसी के काम आएँ, किसी से मीठे वचन बोलें, चिड़ियों को दाना डाल दें, तो आपको कौन रोक सकता है? यह सत्य है कि अगर किसी के घर में घुसें या किसी का सामान आदि चुरा लें, तो आपको कोई रोक भी सकता है, कानून के हवाले कर सकता है, परंतु आप अगर अच्छा काम करेंगे, तो आपको कौन रोक सकता है? आप जिससे भी मोहब्बत करेंगे, उसके लिए हमेशा सेवा के लिए तैयार रहेंगे।
मित्रो! प्यार का वास्तविक स्वरूप सेवा में ही दिखलाई पड़ता है। इसके द्वारा ही प्यार में निखार आता है। प्यार करने की पहचान ही यह है कि आप उसकी सेवा करना चाहते हैं या नहीं? प्यार करने वाला अपना अनुदान दूसरों को देता है। प्यार करने वाला स्वयं कष्ट उठाता है तथा दूसरों को सुखी बनाता है। प्यार सेवा सिखलाता है, प्यार अनुदान देना सिखाता है। देशभक्ति, विश्वभक्ति, भगवान् की भक्ति इसी का तो नाम है। अगर आपको हैरानी होती है, तो हो जाए, परंतु आप अपने बच्चे, देश, सारे संसार को सुखी बनाने का प्रयास करते हैं, तो वही भक्ति कहलाती है। इस दुनिया की सर्वश्रेष्ठ चीज यही है।
इस प्रकार भक्तियोग न केवल मानसिक तथा भावनात्मक संपदा है, वरन् उसके आधार पर परमार्थ तथा पुण्य का मौका भी मिलता है। आप भक्ति कीजिए तथा सेवा कीजिए, यह दोहरा लाभ प्राप्त होता है। प्यार का वास्तविक अर्थ यही है। मनुष्य का मोह एवं बंधन उसके साथ ही होता है, जिसके साथ उसका प्यार तथा मोहब्बत होता है। शंकर भगवान् की हम उपासना करते हैं, तो हमें शंकर की भक्ति के साथ भूत-पलीत लोगों की अर्थात् गए-गुजरे लोगों की, गरीब एवं पिछड़े लोगों की भी हमें सेवा करने के लिए तैयार रहना चाहिए। जिनकी समझदारी कम है, उनको ऊँचा उठाना चाहिए। उनकी सेवा करनी चाहिए। शास्त्र में कहा गया है-भज सेवायाम्’ अर्थात् हमें भजन के साथ सेवा भी करनी चाहिए। दोनों एक ही चीज हैं। अगर हम भक्ति करते हैं तथा समाज की, पिछड़े लोगों की सेवा नहीं करते हैं, तो हमारा भजन सार्थक नहीं हो सकता है।
सेवा हम किसकी कर सकते हैं? मित्रो! इस दुनिया में व्यक्ति उसकी ही सेवा कर सकता है, जिससे वास्तव में उसकी मोहब्बत है। अतः आप अपने मोहब्बत का दायरा बढ़ाइए। जैसे-जैसे आपका यह दायरा बढ़ेगा, आप सेवाभावी बनते चले जाएँगे एवं जैसे-जैसे आप सेवाभावी बनते चले जाएँगे, आपकी भक्ति भी बढ़ती चली जाएगी।
भक्ति का अभ्यास हम भगवान् से करते हैं। यह व्यायामशाला है। जिस प्रकार पहलवान व्यायामशाला में जाकर कसरत करता है, मसक्कत करता है तथा अपने स्वास्थ्य को ठीक कर लेता है। उसी प्रकार मनुष्य भगवान् के साथ भक्ति यानी मोहब्बत करके समाज के बीच में भी जाकर प्यार एवं मोहब्बत करता है, कर सकता है।
भगवान् आदर्शों के-सिद्धांतों के समुच्चय को कहते हैं। भगवान् की कोठरी में बैठकर हम वे चीजें सीखते हैं जिनका व्यावहारिक स्वरूप जाकर हम समाज के बीच प्रस्तुत करते हैं। भगवान् कोई व्यक्ति नहीं है। वह तो एक नियामक सत्ता है, एक कायदा है, एक कानून है। भगवान् तो सेवा का नाम है। आप उसे मिठाई क्या खिलाएँगे? मुकुट क्या पहनाएँगे? यह आपकी भूल है। इसे सुधारना आवश्यक है।
पूजा-उपासना के समय, भक्ति के समय आपने कोई मूर्ति या चित्र रखा है, तो इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है, परंतु आप भगवान् को आदर्श एवं सिद्धांतों का समुच्चय मानिए। आपने अगर भगवान् शंकर को व्यक्ति विशेष माना है, तो आप भ्रम-जंजाल में पड़ जाएँगे। अगर शंकर भगवान् को आपने ऐसा माना है कि वह एक व्यक्ति है, जो बैल पर बैठकर इधर-उधर घूमता रहता है। बेल का पत्ता, आक का पत्ता, धतूरे का फूल खाता रहता है। उसके माथे पर चंद्रमा है, सिर से गंगा निकल रही है तथा भूत-प्रेत उसके साथ रहते हैं। यदि आप ऐसा मानने लगेंगे, तो आप भ्रम एवं जंजाल में पड़ जाएँगे।
मित्रो! आपको शंकर भगवान् की आदर्श एवं सिद्धांतों का एक समुच्चय मानना चाहिए, साथ ही आपको यह समझना चाहिए कि शंकर भगवान् के सिर से गंगा निकलने का अर्थ-ज्ञान का प्रवाह, गले में मुंडमाला का अर्थ-हमेशा मौत को गले लगाना, बैल की सवारी के माने-परिश्रमी बनना, चंद्रमा का मतलब-मानसिक संतुलन, भूत-प्रेत का मतलब-गए गुजरे एवं पिछड़े लोगों को गले लगाना तथा उनके विकास के बारे में सोचना, श्मशान में निवास का मतलब-वीरान में रहकर भी समाज के विकास के बारे में सोचना है। यही है शंकर भगवान् की विशेषता, जिसे हर भक्त को सोचना चाहिए।
इसी प्रकार हर भगवान् के बारे में यही बात है। हर भगवान् इसी तरह आदर्शों एवं सिद्धांतों का एक समुच्चय है, चाहे वह गणेश जी हों, हनुमान जी हों, रामचंद्र जी हों या भगवान् श्रीकृष्ण जी हों। इसी प्रकार हर देवी एवं देवता तथा अवतारों को आपको मानना चाहिए। आप जिस भी देवता की भक्ति करते हैं, उसका मतलब समझते हैं, उस देवता के सिद्धांतों एवं आदर्शों को मानते हैं, उस रास्ते पर चलते हैं। वास्तव में यही सच्ची भक्ति कहलाती है। अगर उन सिद्धांतों के प्रति, आदर्शों के प्रति आपकी श्रद्धा, आस्था का विकास होता चला जाएगा, तो आपकी भक्ति भी बढ़ती हुई चली जाएगी। अगर आप वास्तव में ऐसी भक्ति करेंगे, तो आपको फायदा होगा। आप सच्चे अर्थों में भगवान् के भक्त कहलाएँगे। मरने के बाद आप स्वर्ग-मुक्ति में जाएँगे या नहीं, कह नहीं सकता, परंतु आपको इसी जीवन में चारों ओर ऐसा नजारा नजर आएगा कि चारों तरफ स्वर्ग है। आपको चारों ओर दिव्य वातावरण दिखाई पड़ेगा। आप निहाल हो जाएँगे।
मित्रो! आप किसी के प्रति नफरत न करें। आप व्यक्ति से नहीं, उसकी बुराइयों से नफरत कीजिए तथा उसमें सुधार लाने का प्रयास कीजिए। आप प्यार के आधार पर भी लोगों को बदल सकते हैं। आप किसी से राग-द्वेष न करें। आप ऐसा काम करें कि उसके व्यक्तित्व की रक्षा भी हो जाए तथा उसकी बुराई भी दूर हो जाए। गाँधी जी ने इसी प्रकार अँगरेज़ों से प्यार की लड़ाई लड़ी, प्यार का अनुदान दिया। उसके बाद क्या हुआ? मित्रो! अँगरेज भारत छोड़कर चले गए। प्यार बहुत बड़ा संबल होता है, यह आप न भूलें। प्यार से मनुष्य के अंदर शांति आती है, उसके व्यक्तित्व का विकास होता है।कहते हैं भक्ति सच्ची हो तो ईश्वर को भक्त के सामने आना ही पड़ता है और ईश्वर के जिसे दर्शन हो जाएं उसे कुछ न कुछ देकर ही जाते हैं। यह एक ऐसे ही भक्त की कथा है जिसे भगवान श्री कृष्ण ने दर्शन दिए और जाते-जाते छोड़ गए शरीर पर शंख और चक्र के निशान।
यह कथा है आमेर नरेश श्री पृथ्वीराज जी स्वामी की। एक बार इनके गुरु पयोहारी जी द्वारिका जी यात्रा पर जाने लगे तो पृथ्वीराज भी द्वारिका जाने की तैयारी करने लगे। इन्होंने कहा कि द्वारिका जाकर शरीर पर शंख चक्र बनवाउंगा।
गुरु पयोहारी जी ने कहा कि अगर तुम राज्य छोड़कर चले जाओगे तो राज्य में अव्यवस्था फैल जाएगी। धर्म-कर्म से लोगों का ध्यान हट जाएगा। इसलिए आमेर में रहकर ही कृष्ण की भक्ति करो।
गुरु की बात मानकर श्रीपृथ्वीराज जी आमेर में ही रह गए लेकिन इनका ध्यान द्वारकाधीश में ही लगा रहा। रात में जब यह सोए हुए थे तब इन्हें लगा कि अचानक तेज प्रकाश फैल गया है और भगवान श्री द्वारकाधीश स्वयं प्रकट हो गए हैं।
राजा श्रीपृथ्वीराज जी ने द्वारकाधीश जी की परिक्रमा की और प्रणाम किया। भगवन ने कहा कि तुम अब गोमती संगम में डूबकी लगाओ। राजा को लगा कि वह गोमती तट पर पहुंच गए हैं और गोमती में डूबकी लगा रहे हैं।
सुबह जब राजा महल से बाहर नहीं निकले तो रानी उनके शयन कक्ष में पहुंची। रानी ने देखा राजा सोए हुए हैं और उनका पूरा शरीर भींगा हुआ है जैसे स्नान करके आए हों। रानी ने देखा कि राजा के बाजू पर शंख और चक्र के निशान उभर आए हैं।
राजा की नींद खुली तो वह भी इस चमत्कार को देखकर हैरान थे। उन्हें लगा कि भगवान स्वयं उनकी इच्छा पूरी करने के लिए आए थे। इसके बाद राजा पूरी तरह से कृष्ण भक्ति में लीन हो गए।