रावण ने दी रुद्र को शंकर की उपाधि
याचना से पहले उसने रुद्र के सबसे विश्वस्त प्रहरी नंदी को कैलाश पर्वत की सीमा पर पछाड़ दिया था। रुद्र ने पहले रावण की युद्ध याचना को टालना चाहा, लेकिन उसकी जिद के आगे उन्हें झुकना पड़ा। रावण ने अपना हर दाँव चला और रुद्र ने एक मँजे हुए खिलाड़ी की तरह सबको असफल कर दिया। लड़ते-लड़ते पसीने से लथपथ रावण ने देखा कि रुद्र उन पर प्रति-प्रहार नहीं कर रहे हैं तो वह रुद्र का लोहा मान गया और उन्हें शंकर की उपाधि दी।
पौराणिक संदर्भ लेते हुए चतुरसेन ने लिखा है कि प्रजनन विज्ञान को धार्मिक रूप देने का काम सबसे पहले रुद्र ने ही किया था और उन्होंने एक हजार अध्याय का काम-विज्ञान-शास्त्र लिखा था। उन्होंने जननांग को सब कारणों का कारण कह कर पूजित किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि लिंग-पूजन उस वक्त की लगभग सभी जातियों में प्रतिष्ठा पा गया। चतुरसेन के मुताबिक लयनाल्लिंगमुच्यते रुद्र की लिंग संबंधी सूक्ति है, जिसका मतलब है - लय या प्रलय होता है, इससे उसे लिंग कहा जाता है।
दिलचस्प यह है कि चतुरसेन ने शिव को उस समय धरती का सबसे प्रभावशाली व्यक्ति माना है और यत्नपूर्वक यह खोज कर एक जगह पर रखा है कि पूरी दुनिया में जगह-जगह शिवलिंग की पूजा होती रही है। रोमक और यूनान दोनों देशों में क्रमश: प्रियेपस और फल्लुस के नाम से लिंग पूजा होती थी। फल्लुस फलेश का बिगड़ा रूप है। मिस्र में हर और ईशि: की उपासना उनके धर्म का प्रधान अंग था। प्राचीन चीन और जापान के साहित्य में भी लिंग-पूजा का उल्लेख है। अमेरिका में मिली प्राचीन मूर्तियों से प्रमाणित है कि अमेरिका के आदि निवासी लिंगपूजक थे। ईसाइयों के पुराने अहदनामे में लिखा है कि रैहोवोयम के पुत्र आशा ने अपनी माता को लिंग के सामने बलि देने से रोका था। पीछे उस लिंग-मूर्ति को तोड़-फोड़ दिया गया था। यहूदियों का देवता बैल फेगो लिंग-मूर्ति ही था।
अरब में मुहम्मद के आने से पहले लात नाम से लिंग-पूजन होता था। इसी से पच्छिमी लोगों ने सोमनाथ के लिंग को भी लात कहा है। मक्का के काबे में जो लिंग है, उसे भविष्य पुराण मक्केश्वर के नाम से उल्लेख करता है। यह एक काले पत्थर का लिंग है, जिसे मुसलमान संगे-असवद कहते हैं। इजिप्ट-मेसिफ और अशीरिस आदि राज्यों में लोग नंदी पर बैठे हुए हाथों में त्रिशूल लिये, बाघ की खाल पहने शिव की मूर्ति की पूजा बेलपत्र से करते और दूध से अभिषेक करते थे। बेबिलोन में एक हजार दो सौ फुट का एक महालिंग था। ब्रेजिल प्रदेश में पुराने हजारों वर्ष पुराने शिवलिंग अभी भी हैं। स्काटलैंड के ग्लासगो नगर में सोने से मढ़ा हुआ एक शिवलिंग है, जिसकी पूजा होती है। फीजियन्स में एटिव्स और निनवा में एषीर नाम के शिवलिंग हैं।
अफरीदिस्तान, काबुल, बलख़बुखारा आदि जगहों में अनेक शिवलिंग हैं, जिन्हें वहां के लोग पचशेर और पंचवीर नामों से पुकारते हैं। इंडोचाइना के अनाम में अनेक शिवालय हैं। प्राचीन काल में इस देश को चंपा कहते थे। कंबोडिया में, जिसका प्राचीन नाम कांबोज है, और जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों में भी अनगिनत शिवलिंग मिले हैं। भारत-चीन (इंडोचीन), श्री क्षेत्र (मध्य बर्मा), हंसावती (दक्षिण बर्मा), द्वारावती (श्याम), मलयद्वीप आदि जगहों पर सर्वत्र शिवलिंग और शिवमूर्ति पायी जाती है।
ये जानकारियाँ वयं रक्षाम: में काफी विस्तार से दी गयी हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि आचार्य चतुरसेन के अनुसार ये तमाम देवता मनुष्य जाति से थे और अपने समय पर उनके प्रभाव ने उन्हें पूजनीय बना दिया था।