गोस्वामी तुलसीदास
आज के समय में हनुमानजी की भक्ति सभी इच्छाओं को पूरी करने वाली है।
हनुमानजी को मनाने के लिए हनुमान चालीसा का पाठ सबसे सरल उपाय है। हनुमान
चालीसा की रचना गोस्वामी तुलसीदास ने सैकड़ों वर्ष पहले की थी और आज भी यह
सबसे ज्यादा लोकप्रिय स्तुति है।
तुलसीदास और हनुमानजी से जुड़ी खास बातें, जो अधिकतर लोग जानते नहीं हैं गोस्वामी तुलसीदास ने बहुचर्चित और प्रसिद्ध श्रीरामचरितमानस की रचना की।
श्रीरामचरितमानस की रचना सैकड़ों वर्ष पहले की गई थी और आज भी यह सबसे अधिक
बिकने वाला ग्रंथ है। वेद व्यास द्वारा रचित रामायण का सरल रूप
श्रीरामचरित मानस है। यह ग्रंथ सरल होने के कारण ही आज भी सबसे अधिक
प्रसिद्ध है। हनुमान चालीसा की रचना भी तुलसीदासजी ने ही की है।
उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले से कुछ दूरी पर राजापुर नाम का एक गांव
है। इसी गांव में संवत् 1554 के आसपास गोस्वामी तुलसीदास का जन्म हुआ था।
तुलसीदास के पिता आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास का जन्म
श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन हुआ था।
ऐसी मान्यता है कि तुलसीदास जन्म के समय पूरे बारह माह तक माता के
गर्भ में रहने की वजह से काफी तंदुरुस्त थे और उनके मुख में दांत भी दिखायी
दे रहे थे।
सामान्यत: जन्म के बाद सभी शिशु रोया करते हैं किन्तु इस शिशु ने जो
पहला शब्द बोला वह राम था। इसी वजह से तुलसीदास का प्रारंभिक नाम रामबोला
पड गया।
माता हुलसी तुलसीदास को जन्म देने के बाद दूसरे दिन ही मृत्यु को
प्राप्त हो गईं। तब पिता आत्माराम ने नवजात शिशु रामबोला को एक दासी को
सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। जब रामबोला साढ़े पांच वर्ष का हुआ तो
वह दासी भी जीवित न रही। अब रामबोला किसी अनाथ बच्चे की तरह गली-गली भटकने
को विवश हो गया।
इसी प्रकार भटकते हुए एक दिन नरहरि बाबा से रामबोला भेंट हुई। नरहरि
बाबा उस समय प्रसिद्ध संत थे। उन्होंने रामबोला का नया नाम तुलसीराम रखा।
इसके बाद वे तुलसीराम को अयोध्या, उत्तर प्रदेश ले आए और वहां उनका
यज्ञोपवीत-संस्कार कराया।
तुलसीराम ने संस्कार के समय बिना सिखाए ही गायत्री-मन्त्र का स्पष्ठ
उच्चारण किया, जिसे देखकर सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। इसके बाद नरहरि बाबा
ने वैष्णवों के पांच संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और
अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया।
तुलसीराम का विवाह रत्नावली नाम की बहुत सुंदर कन्या से हुआ था। विवाह
के समय तुलसीराम की आयु लगभग 29 वर्ष थी। विवाह के तुरंत बाद तुलसीराम
बिना गौना किए काशी चले आए और अध्ययन में जुट गए। इसी प्रकार एक दिन उन्हें
अपनी पत्नी रत्नावली की याद आई और वे उससे मिलने के लिए व्याकुल हो गए। तब
वे अपने गुरुजी से आज्ञा लेकर पत्नी रत्नावली से मिलने जा पहुंचे।
रत्नावली मायके में थीं और जब तुलसीराम उनके घर पहुंचे तब यमुना नदी
में भयंकर बाढ़ थी और वे नदी में तैर कर रत्नावली के घर पहुंचे थे। उस समय
भयंकर अंधेरा था। जब तुलसीराम पत्नी के शयनकक्ष में पहुंचे तब रत्नावली
उन्हें देखकर आश्चर्यचकित हो गई। लोक-लज्जा की चिंता से उन्होंने तुलसीराम
को वापस लौटने को कहा।
जब तुलसीराम वापस लौटने के लिए तैयार न हुए तब रत्नावली ने उन्हें एक दोहा सुनाया, वह दोहा इस प्रकार है...
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति!
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत?
यह दोहा सुनते ही तुलसीराम उसी समय रत्नावली को पिता के घर छोड़कर
वापस अपने गांव राजापुर लौट आए। जब वे राजापुर में अपने घर पहुंचे तब
उन्हें पता चला कि उनके पिता भी नहीं रहे। तब किसी उन्होंने पिता का अंतिम
संस्कार किया और उसी गांव में लोगों को श्रीराम कथा सुनाने लगे।
समय इसी प्रकार गुजरने लगा। कुछ समय राजापुर में रहने के बाद वे पुन:
काशी लौट आए और वहां राम-कथा सुनाने लगे। इसी दौरान तुलसीराम को एक दिन
मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमानजी का पता बताया।
हनुमानजी से मिलकर तुलसीराम ने उनसे श्रीराम के दर्शन कराने की प्रार्थना
की। तब हनुमानजी ने कहा उन्हें कहा कि चित्रकूट में रघुनाथजी दर्शन होंगें।
इसके बाद तुलसीदासजी चित्रकूट की ओर चल पड़े।
चित्रकूट पहुंच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे
प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर
राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें
देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके कि वे ही श्रीराम और
लक्ष्मण हैं।
इसके बाद हनुमानजी ने आकर बताया जब तुलसीदास को पश्चाताप हुआ। तब
हनुमानजी ने उन्हें सांत्वना दी और कहा आप प्रात:काल फिर श्रीराम के दर्शन
कर सकेंगे।
इसके बाद अगले दिन सुबह-सुबह पुन: श्रीराम प्रकट हुए। इस बार वे एक
बालक रूप में तुलसीदास के समक्ष आए थे। श्रीराम ने बालक रूप में तुलसीदास
से कहा कि उन्हें चंदन चाहिए। यह सब हनुमानजी देख रहे थे और उन्होंने सोचा
कि तुलसीदास इस बार भी श्रीराम को पहचान नहीं पा रहे हैं। तब बजरंगबली ने
एक दोहा कहा कि
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥
यह दोहा सुनकर तुलसीदास श्रीरामजी की अद्भुत दर्शन किए। श्रीराम के
दर्शन की वजह से तुलसीदासजी सुध-बुध खो बैठे थे। तब भगवान राम ने स्वयं
अपने हाथ से चन्दन लेकर स्वयं के मस्तक पर तथा तुलसीदासजी के मस्तक पर
लगाया और अन्तर्ध्यान हो गए।
संवत् 1628 में तुलसीदास हनुमानजी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल
पड़े। रास्ते में उस समय प्रयाग में माघ का मेला लगा हुआ था। तुलसीदास कुछ
दिन के लिए वहीं रुक गए।
मेले में एक दिन तुलसीदास को किसी वटवृक्ष के नीचे भारद्वाज और
याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहां वही कथा हो रही थी, जो उन्होंने
सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी।
मेला समाप्त होते ही तुलसीदास प्रयाग से पुन: काशी आ गए और वहां एक
ब्राह्मण के घर निवास किया। वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व शक्ति जागृत
हुई। अब वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। तुलसीदास दिन में वे जितने
पद्य रचते, रात्रि में वे सब भूल जाते। यह घटना रोज हो रही थी। तब एक दिन
भगवान शंकर ने तुलसीदास जी को सपने आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य
रचना करो।
नींद से जागने पर तुलसीदास ने देखा कि उसी समय भगवान शिव और पार्वती
उनके सामने प्रकट हुए। प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- तुम अयोध्या में जाकर
रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद
के समान होगी।
जब संवत् 1631 का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन
वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रात:काल
तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की।
दो वर्ष, सात महीने और छब्बीस दिन में इस अद्भुत ग्रन्थ की रचना हुई।
संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड
पूर्ण हुए।