• सुखी रहने का सफल मंत्र



दुख को त्यागो। लगता है कि तुम दुख में मजा लेने वाले हो, तुम्हें कष्ट से प्रेम है। दुख से लगाव होना एक रोग है, यह विकृत प्रवृत्ति है, यह विक्षिप्तता है। यह प्राकृतिक नहीं है, यह बदसूरत है।

पर मुश्किल यह है कि सिखाया यही गया है। एक बात याद रखो कि मानवता पर रोग हावी रहा है, निरोग्य नहीं और इसका भी एक कारण है। असल में स्वस्थ व्यक्ति जिंदगी का मजा लेने में इतना व्यस्त रहता है कि वह दूसरों पर हावी होने की फिक्र ही नहीं करता।

अस्वस्थ व्यक्ति मजा ले ही नहीं सकता, इसलिए वह अपनी सारी ऊर्जा वर्चस्व कायम करने में लगा देता है। जो गीत गा सकता है, जो नाच सकता है, वह नाचेगा और गाएगा, वह सितारों भरे असामान के नीचे उत्सव मनाएगा। लेकिन जो नाच नहीं सकता, जो विकलांग है, जिसे लकवा मार गया है, वह कोने में पड़ा रहेगा और योजनाएँ बनाएगा कि दूसरों पर कैसे हावी हुआ जाए। वह कुटिल बन जाएगा। जो रचनाशील है, वह रचेगा। जो नहीं रच सकता, वह नष्ट करेगा, क्योंकि उसे भी तो दुनिया को दिखाना है कि वह भी है।

जो रोगी है, अस्वस्थ है, बदसूरत है, प्रतिभाहीन है, जिसमें रचनाशीलता नहीं है, जो घटिया है, जो मूर्ख है, ऐसे सभी लोग वर्चस्व स्थापित करने के मामले में काफी चालाक होते हैं। वे हावी रहने के तरीके और जरिए खोज ही निकालते हैं। वे राजनेता बन जाते हैं। वे पुरोहित बन जाते हैं। और चूँकि जो काम वे खुद नहीं कर सकते, उसे वे दूसरो को भी नहीं करने दे सकते। इसलिए वे हर तरह की खुशी के खिलाफ होते हैं।

जरा इसके पीछे का कारण देखो। अगर वह खुद जिंदगी का मजा नहीं ले सकता तो वह कम से कम तुम्हारे मजे में जहर तो घोल ही सकता है। इसीलिए सभी तरह के विकलांग एक जगह जमा होकर अपनी बुद्धि लगाते हैं ताकि जोरदार नैतिकता का ढाँचा खड़ा कर सकें और फिर उसके आधार पर हर चीज की भर्त्सना कर सकें। बस कुछ न कुछ नकारात्मक खोज निकालना है, वह तुम्हें मिल ही जाएगा, क्योंकि वह तो समस्त सकारात्मकता के अंग के रूप में होता ही है।

जब तुम प्रेम करते हो, तो नफरत भी कर सकते हो। जो व्यक्ति नपुंसक है और प्रेम नहीं कर सकता, वह हमेशा नकारात्मक पर ही जोर देगा। वह हमेशा नकारात्मक को ही बढ़ा-चढ़ाकर पेश करेगा। वह हमेशा तुमसे कहेगा- अगर तुम प्रेम में पड़े तो दुख उठाओगे। तुम जाल में फँस जाओगे, तुम्हें तकलीफें भोगनी होंगी। और, स्वाभाविक रूप से जब भी घृणा के क्षण आएँगे और तुम दुख का सामना करोगे तो तुम्हें वह व्यक्ति याद आएगा कि वह सही कहता था।

फिर, घृणा के क्षण तो आने ही हैं। फिर एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि मनुष्य रोगों के प्रति ज्यादा सचेत होता है न कि स्वास्थ्य के प्रति। जब स्वस्थ होते हो तो तुम अपने शरीर के बारे में भूल जाते हो। लेकिन, जैसे ही सिर दर्द होता है या और कोई दर्द, या फिर पेट का दर्द तो देह को नहीं भूल पाते। देह होती है तब, प्रमुखता से होती है, बड़े जोर से होती है, वह तुम्हारा दरवाजा खटखटाती है। वह तुम्हारा ध्यान खींचती है।

जब तुम प्रेम में होते हो और खुश होते हो तो भूल जाते हो। लेकिन, जब संघर्ष, नफरत और गुस्सा होता है तो तुम उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने लगते हो। ऊपर से वे विकलांग लोग, वे नैतिकतावादी, वे पुरोहित, वे राजनेता, वे मिल कर चिल्लाते हैं एक स्वर से कि देखो, हमने तुमसे पहले ही कहा था, और तुमने हमारी नहीं सुनी। प्रेम को त्यागो। प्रेम दुख बनाता है। इसे त्यागो, उसे त्यागो, जीवन को त्यागो। इन बातों को अगर बार-बार दोहराया जाता रहता है तो उनका असर होने लगता है। लोग उनके सम्मोहन में फँस जाते हैं।