लक्ष्मी मंत्र, बरसेंगी खुशियां
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हर इंसान धन और समृद्धि के रूप में लक्ष्मी की प्रसन्नता की कामना रखता है, लक्ष्मी कृपा के लिए पवित्रता और परिश्रम जैसी कर्म, व्यवहार और स्वभाव में उतारने की अहम सीखों को विरले इंसान ही अपनाते हैं। यही कारण है कि सच्चाई व मेहनत के बिना पाया भरपूर धन भी मानसिक शांति छीन लेता है।
धन का सुख, दायित्वों को समझ किसी काम से जुड़े बिना संभव नहीं होता। साथ ही मन और व्यवहार की पवित्रता दूसरों को भी सुख देती है। इसके लिए पावनता और वैभव की देवी माता लक्ष्मी की साधना शुक्रवार को बहुत ही शुभ मानी गई है।
शुक्रवार के दिन माता दुर्गा की तीन शक्तियों में एक महालक्ष्मी की साधना वैभव और यश देने वाली मानी गई है।
दो मंत्र और पूजा की आसान विधि -
शुक्रवार के दिन शाम को देवी लक्ष्मी की उपासना के पहले स्नान कर लाल वस्त्र पहन लक्ष्मी मंदिर या घर में लाल आसन पर बैठकर माता लक्ष्मी का ध्यान अक्षत और लाल फूल हाथ में लेकर करें -
महालक्ष्मी च विद्महे, विष्णुपत्नी च धीमहि, तन्नो लक्ष्मी: प्रचोदयात्।
माता के चरणों में फूल-अक्षत करने के साथ लाल चंदन, अक्षत, लाल वस्त्र, गुलाव के फूलों की माला चढ़ाकर कमलगट्टे की माला या तुलसी की माला से विशेष लक्ष्मी मंत्र का जप करें -
ॐ श्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै श्रीं श्रीं ॐ नम:।
पूजा व मंत्र जप के बाद माता को दूध से बनी मिठाई का भोग लगाएं।
घी के पांच बत्तियों वाले दीप से आरती कर देवी से सुख-वैभव की कामना करें।
माता लक्ष्मी को श्राप?
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लक्ष्मी और श्रीविष्णु वैकुण्ठ में बैठे सृष्टि-निर्माण के विषय में वार्तालाप कर रहे थे। तभी किसी बात से क्रोधित होकर लीलामय भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी को अश्वी बनने का श्राप दे दिया। इससे लक्ष्मी जी अत्यंत दुःखी हुईं।
श्री हरि को प्रणाम कर देवी लक्ष्मी मृत्युलोक में चली गईं। पृथ्वी लोक में भ्रमण करते हुए देवी लक्ष्मी सुपर्णाक्ष नामक स्थान पर पहुँची। इस स्थान के उत्तरी तट पर यमुना और तमसा नदी का संगम था। सुंदर पेड़-पौधे उस स्थान की शोभा बढ़ा रहे थे। देवी लक्ष्मी उसी स्थान पर अश्वी रूप धारण करके भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करने लगीं।
कालांतर में, देवी लक्ष्मी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए और कहा-“हे कल्याणी! श्री हरि जगत के स्वामी हैं। मुक्ति प्रदान करने वाले ऐसे भगवान श्री विष्णु को छोड़कर तुम मेरी आराधना क्यों कर रही हो? पति की सेवा करना स्त्रियों के लिए सनातन धर्म माना गया है। फिर नारायण तो सब के लिए परम-पूज्य हैं?”
तब देवी लक्ष्मी बोलीं-“भगवन! श्रीविष्णु से मिले श्राप के कारण ही मैं पृथ्वी लोक पर निवास कर रही हूँ। उन्होंने उस श्राप से छुटकारा पाने का उपाय बताते हुए कहा कि जब मुझसे एक पुत्र उत्पन्न होगा, तब मैं श्राप से मुक्त हो जाऊँगी।
मैं इस तपोवन में आ गई। किंतु भगवान श्री विष्णु इस समय वैकुण्ठ में विराजमान हैं। उनके अभाव में मैं पुत्रवती कैसे हो सकती हूँ? अतः हे महादेव! आप ऐसा कुछ कीजिए, भगवान श्री हरि और मेरा संभव मिलन हो सके।”
लक्ष्मी जी की बात सुनकर भगवान शिव बोले-“देवी! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देता हूँ कि तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए श्री हरि शीघ्र ही अश्वरूप में यहाँ पधारें। तुम उनके जैसे एक पुत्र की जननी बनो। तुम्हारा पुत्र एकवीर के नाम से प्रसिद्ध होगा। इसके बाद तुम भगवान श्री हरि के साथ वैकुण्ठ चली जाओगी।”
लक्ष्मी जी को वर देकर भगवान शिव कैलाश लौट गए। कैलाश पहुँचकर भगवान शिव ने अपने परम बुद्धिमान गण चित्ररूप को दूत बनाकर श्री हरि के पास भेजा। चित्ररूप ने भगवान विष्णु को देवी लक्ष्मी की तपस्या और भगवान शिव के द्वारा उन्हें वर देने की बात विस्तार से बताई।
श्राप से मुक्त करने के लिए श्री हरि ने एक सुंदर अश्व का रूप धारण कर उनके साथ योग किया।
इसी प्रकार लक्ष्मी श्राप से मुक्त किया और भगवान विष्णु के साथ वैकुण्ठ गईं।
इसी प्रकार लक्ष्मी श्राप से मुक्त किया और भगवान विष्णु के साथ वैकुण्ठ गईं।
परम अलौकिक श्रीकृष्ण की लीला
भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में श्रीकृष्ण ने भादों मास के कृष्ण पक्ष में अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र के अंतर्गत वृष लग्न में अवतार लिया। श्रीकृष्ण की उपासना को समर्पित भादों मास विशेष फलदायी कहा गया है। भाद अर्थात कल्याण देने वाला। कृष्ण पक्ष स्वयं श्रीकृष्ण से संबंधित है। अष्टमी तिथि पखवाडे़ के बीच संधि स्थल पर आती है। रात्रि योगीजनों को प्रिय है और उसी समय श्रीकृष्ण धरा पर अवतरित हुए। श्रीमद् भागवत में उल्लेख आया है कि श्रीकृष्ण के जन्म का अर्थ है अज्ञान के घोर अंधकार में दिव्य प्रकाश।
भागवत पुराण में वर्णन है कि जीव को संसार का आकर्षण खींचता है, उसे उस आकर्षण से हटाकर अपनी ओर आकषिर्त करने के लिए जो तत्व साकार रूप में प्रकट हुआ, उस तत्व का नाम श्रीकृष्ण है। जिन्होंने अत्यंत गूढ़ और सूक्ष्म तत्व अपनी अठखेलियों, अपने प्रेम और उत्साह से आकषिर्त कर लिया, ऐसे तत्वज्ञान के प्रचारक, समता के प्रतीक भगवान श्रीकृष्ण के संदेश, उनकी लीला और उनके अवतार लेने का समय सब कुछ अलौकिक है।
मुस्कराते हुए अवतरण
जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले जनार्दन के अवतार का समय था निशीथ काल। चारों ओर अंधेरा पसरा हुआ था। ऐसी विषम परिस्थितियों में कृष्ण का जन्म हुआ कि मां-बाप हथकडि़यों में जकड़े हैं, चारों तरफ कठिनाइयों के बादल मंडरा रहे हैं। इन परेशानियों के बीच मुस्कराते हुए अवतरित हुए। श्रीकृष्ण ने अपने भगवान होने का संकेत जन्म के समय ही दे दिया। कारागार के ताले खुल गए, पहरेदार सो गए और आकाशवाणी हुई कि इस बालक को गोकुल में नंद गोप के घर छोड़ आओ। भीषण बारिश और उफनती यमुना को पार कर शिशु कृष्ण को गोकुल पहुंचाना मामूली काम नहीं था। वसुदेव जैसे ही यमुना में पैर रखा, पानी और ऊपर चढ़ने लगा। श्रीकृष्ण ने अपना पैर नीचे की तरफ बढ़ाकर यमुना को छुआ दिया, जिसके तुरंत बाद जलस्तर कम हो गया। शेषनाग ने उनके ऊपर छाया कर दी ताकि वे भीगे नहीं।
पूतना का वध
कृष्ण जन्म का समाचार मिलते ही कंस बौखला गया। उसने अपने सेनापतियों को आदेश दिया कि पूरे राज्य में दस दिन के अंदर पैदा हुए सभी बच्चों का वध कर दिया जाए। इधर नंद बाबा के घर कृष्ण जन्म के उपलक्ष्य में लगातार उत्सव मनाया जा रहा था। अभी कृष्ण केवल छह दिन के ही हुए थे कि कंस ने पूतना नाम की राक्षसी को भेजा। पूतना अपने स्तनों में जहर लगाकर बालक कृष्ण को पिलाने के लिए मनोहारी स्त्री का रूप धारण कर आई। अंतर्यामी कृष्ण क्रोध से उसके प्राण सहित दूध पीने लगे और तब तक नहीं छोड़ा, जब तक कि पूतना के प्राणपखेरू उड़ नहीं गए।
ब्रह्मांड के दर्शन
बाल लीला के अंतर्गत कृष्ण ने एक बार मिट्टी खा ली। बलदाऊ ने मां यशोदा से इसकी शिकायत की तो मां ने डाटा और मुंह खोलने के लिए कहा। पहले तो उन्होंने मुंह खोलने से मना कर दिया, जिससे यह पुष्टि हो गई कि वास्तव में कृष्ण ने मिट्टी खाई है। बाद में मां की जिद के आगे अपना मुंह खोल दिया। कृष्ण ने अपने मुंह में यशोदा को संपूर्ण ब्रह्मांड के दर्शन करा दिए। बचपन में गोकुल में रहने के दौरान उन्हें मारने के लिए आततायी कंस ने शकटासुर, बकासुर और तृणावर्त जैसे कई राक्षस भेजे, जिनका संहार कृष्ण ने खेल-खेल में कर दिया।
माखनचोर कन्हैया
माखनचोरी की लीला से कृष्ण ने सामाजिक न्याय की नींव डाली। उनका मानना था कि गायों के दूध पर सबसे पहला अधिकार बछड़ों का है। वह उन्हीं के घर से मक्खन चुराते थे, जो खानपान में कंजूसी दिखाते और बेचने के लिए मक्खन घरों में इकट्ठा करते थे। वैसे माखन चोरी करने की बात कृष्ण ने कभी मानी नहीं। उनका कहना था कि गोपिकाएं स्वयं अपने घर बुलाकर मक्खन खिलाती हैं। एक बार गोपिकाओं की उलाहना से तंग आकर यशोदा उन्हें रस्सी से बांधने लगीं। लेकिन वे कितनी भी लंबी रस्सी लातीं, छोटी पड़ जाती। जब यशोदा बहुत परेशान हो गईं तो कन्हैया मां के हाथों से बंध ही गए। इस लीला से उनका नाम दामोदर (दाम यानी रस्सी और उदर यानी पेट) पड़ा।
स्नान की मर्यादा
यमुना किनारे काली नाग का बड़ा आतंक था। उसके घाट में पानी इतना जहरीला था कि मनुष्य या पशु-पक्षी पानी पीते ही मर जाते थे। कृष्ण ने नाग को नाथ कर वहां उसे भविष्य में न आने की हिदायत दी। कृष्ण जब गाय चराने जाते, तो उनके सभी सखा साथ रहते थे। सब कृष्ण के कहे अनुसार चलते थे। ब्रह्मा जी को ईर्ष्या हुई और एक दिन सभी गायों को वे अपने लोक भगा ले गए। जब गाएं नहीं दिखीं तो गोकुलवासियों ने कृष्ण पर गायों चुराने का आरोप लगा दिया। कृष्ण ने योगमाया के बल पर सभी ग्वालों के घर उतनी ही गाएं पहुंचा दीं। ब्रह्मा ने जब यह बात सुनी तो बहुत लज्जित हुए। इंद्र पूजा का विरोध करते हुए सात वर्ष की आयु में सात दिन और सात रात गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली में उठाकर कृष्ण ने इंद्र के प्रकोप से गोकुल वासियों की रक्षा की। बाल लीला में ही कृष्ण ने एक बार नदी में निर्वस्त्र स्नान कर रहीं गोपिकाओं के वस्त्र चुराकर पेड़ में टांग दिए। स्नान के बाद जब गोपिकाओं को पता चला तो वे कृष्ण से मिन्नतें करने लगीं। कृष्ण ने आगाह करते हुए कहा कि नग्न स्नान से मर्यादा भंग होती है और वरुण देवता का अपमान होता है, वस्त्र लौटा दिए।
रासलीला का आयोजन
श्रीकृष्ण ने दिव्य व अलौकिक रासलीला ब्रजभूमि में की थी। जब सभी रस समाप्त होते हैं, वहीं से रासलीला शुरू होती है। रास लीला में प्रेम की अनवरत धारा प्रवाहित होती है। श्रीकृष्ण अपनी संगीत एवं नृत्य की कला से गोपिकाओं को रिझाते थे। इस रास में हिस्सा लेने वाली सभी गोपिकाओं के साथ कृष्ण नाचते थे। जितनी गोपी उतने ही कृष्ण। रसाधार श्रीकृष्ण का महारास जीव का ब्रह्मा से सम्मिलन का परिचायक और प्रेम का एक महापर्व है।
जीवन में राधा
मथुरा जाने पर सबसे पहले कृष्ण ने कुब्जा को सुंदर नारी के रूप में परिवर्तित किया। इसके बाद कंस का वध किया, नाना उग्रसेन को गद्दी पर बैठाया, देवकी के मृत पुत्रों को लेकर आए और माता-पिता को कारागार से मुक्ति दिलाई। कन्हैया के मित्र तो गोकुल के सभी बालक थे, लेकिन सुदामा उनके कृपापात्र रहे। अकिंचन मित्र सुदामा को वैभवशाली बनाने में दामोदर ने कोई कसर बाकी नहीं रखी। श्रीकृष्ण के जीवन में राधा प्रेम की मूतिर् बनकर आईं। जिस प्रेम को कोई नाप नहीं सका, उसकी आधारशिला राधा ने ही रखी थी।
गीता का उपदेश
जब कृष्ण किशोर वय के हो गए तो महाभारत युद्ध की आहट आने लगी थी। युधिष्ठिर अपनी पत्नी को जुए में हार गए। भरी सभा में दुर्योधन और दु:शासन जब दौपदी का चीर हरण करने लगे तो जनार्दन ने असहाय हो चुकी इस अबला की रक्षा की। आगे चलकर सुभदा का हरण किया। महाभारत युद्ध के मैदान में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया। उपदेश देने के लिए शांत जगह चाहिए, लेकिन कृष्ण वहां ज्ञान दे रहे हैं जहां अट्ठारह अक्षौहिणी सेना के कोलाहल से किसी को कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा है। कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाकर अर्जुन का मोहभंग किया। जैसे उद्धव में ज्ञान था, लेकिन भक्ति नहीं थी, उसी प्रकार अर्जुन में भक्ति तो थी, लेकिन ज्ञान नहीं था। गीता में उपदेश देकर उन्होंने मोहग्रस्त अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार किया। भगवान ने कहा कि जो मुझे जिस तरह याद करता है, मैं भी उसी प्रकार उस भक्त का भजन करता हूं। जरासंध से युद्ध कर श्रीकृष्ण ने सोलह हजार कन्याओं को उसके चंगुल से छुड़ाया।
विपत्तियों से जूझे
विपत्तियों से घिरे जीवन में भी कृष्ण कभी व्यथित नहीं हुए। जिसकी आंखें कारागार में खुलीं, माता-पिता के लालन-पालन से वंचित रहे, गौएं चराकर बचपन बिताया, कंस ने जान लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जन्मस्थान व गोकुल छोड़कर द्वारका में शरण लेनी पड़ी, युद्ध से भागकर रणछोड़ कहलाए, सत्यभामा के घर में स्यमंतक मणि की चोरी का आरोप लगा, युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में पत्तल और जूते उठाने का दायित्व संभाला, अर्जुन के सारथि बने, अपनी चार अक्षौहिणी नारायणी सेना दुर्योधन को देकर खुद निहत्थे युद्ध में गए, गांधारी के शाप को हंसते-हंसते स्वीकार किया और अपने कुल को अपने सामने नष्ट होते देखा, ऐसे परमवीर की मृत्यु जंगली जीव की तरह व्याध के हाथों हुई।
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जीवन में सफलता, सुख, नौकरी और प्रमोशन
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नौकरी पर ही घर-परिवार के सभी सदस्यों का भी जीवन
निर्भर रहता है। ऐसे में जॉब का सर्वाधिक महत्व रहता है। कुछ लोगों को नौकरी पाने
में या नौकरी में प्रमोशन पाने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसी
परिस्थितियों के लिए 6 बातें बताई हैं जिनसे आपकी नौकरी और प्रमोशन की
सभी समस्याएं दूर हो सकती हैं।
चाणक्य कहते हैं कि जीवन में सफलता और सुख वही व्यक्ति
प्राप्त करता है जो हमेशा ही चिंतन और मनन करता है। जो निर्धारित लक्ष्य प्राप्त
करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य करते रहता है वहीं कुछ उल्लेखनीय कार्य कर
पाता है।
इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं-
- वही व्यक्ति समझदार और सफल है जिसे यहां बताए जा रहे खास छ: बातों के उत्तर हमेशा मालूम रहते हो।
- अभी समय कैसा है... कोई भी समझदार व्यक्ति जानता है कि वर्तमान में कैसा समय चल रहा है। अभी सुख के दिन हैं या दुख के। इसी के आधार पर वह कार्य करता हैं।
- हमारे मित्र कौन हैं और शत्रु कौन? यह बात की भी जानकारी हो। हमें मालूम होना चाहिए कि हमारे सच्चे मित्र कौन हैं? क्योंकि अधिकांश परिस्थितियों में मित्रों के भेष में शत्रु भी आ जाते हैं।
- व्यक्ति को यह भी मालुम होना चाहिए कि जिस जगह वह रहता है वह कैसी हैं? वहां का वातावरण कैसा हैं? वहां का माहौल कैसा है?
- व्यक्ति को अपनी आय और व्यय की पूरी जानकारी हो। व्यक्ति की आय क्या है उसी के अनुसार उसे व्यय करना चाहिए।
- समझदार इंसान को मालूम होना चाहिए कि वह कितना योग्य है और वह क्या-क्या कुशलता के साथ कर सकता है। जिन कार्यों में हमें महारत हासिल हो वहीं कार्य हमें सफलता दिला सकते हैं।
- व्यक्ति को मालूम होना चाहिए कि उसका गुरु या स्वामी कौन है? और वह आपसे क्या काम करवाना चाहता है? यह मालूम होने पर व्यक्ति वही काम करें जो उसका गुरु या स्वामी चाहता है। ऐसा करने पर व्यक्ति को कभी भी परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता है।
- इन छ: बातों का ध्यान रखने पर हमें नौकरी में किसी भी प्रकार की परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता है।
- दुर्बल व्यक्ति अपमान करे तो उसे क्षमा कर दें क्योंकि क्षमा वीरों का भूषण है। मगर, अपमान करने वाला बलवान हो तो उसे दंड जरूर दो।
- मन उपजाऊ खेत की तरह है। जैसा आप उसमें बोएंगे वैसा ही पाएंगे। मन अपने लिए जीवन की राह बनाता है। विचार उस राह की सीमा तय करते हैं।
- जब तक मन नहीं जीता जाता, तब तक राग-द्वेष शांत नहीं होते। मनुष्य इंद्रियों का गुलाम बना रहता है। मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है।
- विश्वास कोमल पुष्प नहीं है जो साधारण हवा के झोंके से कुम्हला जाए। वह हिमालय की तरह अडिग है। विश्वास का अभाव ही अज्ञान है।
- उम्मीद का दामन कभी छोटा मत करो। जिंदगी के फल को दोनों हाथों से दबाकर निचोड़ो। रस की निर्झरी तुम्हारे बहाए भी बह सकती है।
- माता के समान शरीर का पालन करने वाली, चिंता के समान देह को सुखा देने वाली और विद्या के समान शरीर को अलंकृत करने वाली दूसरी वस्तु नहीं हो सकती।
Balaji Darbar: पितृ-दोष निवारण के उपाय
Balaji Darbar: पितृ-दोष निवारण के उपाय: www.balajidarbar.com ऊँ नमः शिवाय मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें। रूद्र सूक्त से अभिमंत्रित जल से स्नान करने से यह योग शिथिल ...
पितृ-दोष निवारण के उपाय
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- ऊँ नमः शिवाय मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें।
- रूद्र सूक्त से अभिमंत्रित जल से स्नान करने से यह योग शिथिल हो जाता हैं।
- हर पुष्य नक्षत्र को महादेव पर जल एवं दुग्ध चढाएं तथा रूद्र का जप एवं अभिषेक करें।
- हर सोमवार को दही से महादेव का ‘‘ऊँ हर-हर महादेव‘‘ कहते हुए अभिषेक करें।
- शिवलिंग पर तांबे का सर्प अनुष्ठानपूर्वक चढ़ाऐ। पारद के शिवलिंग बनवाकर घर में प्राण प्रतिष्ठित करवाए।
- सर्प सूक्त‘‘ का पाठ भी कालसर्प योग में राहत देता हैं।
- नाग पंचमी का वृत करें, नाग प्रतिमा की अंगुठी पहनें।
- नाग योनी में पड़े पित्रों के उद्धार तथा अपने हित के लिए
- नागपंचमी के दिन चादी के नाग की पूजा करें।
- कालसर्प योग यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा करवाकर नित्य पूजन करें।
- घर एवं दुकान में मोर पंख लगाये।
- नारियल का फल बहते पानी में बहाना चाहिए। लाल मसुर की दाल और कुछ पैसे प्रातःकाल सफाई करने वाले को दान करे।
- पक्षियों को जौ के दाने खिलाने चाहिए।
- सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण के दिन सात अनाज से तुला दान करें।
- राहु-केतु की वस्तुओं का दान करें। राहु का रत्न गोमेद पहनें। चांदी का नाग बना कर उंगली में धारण करें।
- राहू केतु के जप, अनुष्ठान आदि योग्य विद्धान से करवाने चाहिए।
- राहु एवं केतु के नित्य 108 बार जप करने से भी यह योग शिथिल होता हैं। राहु माता सरस्वती एवं केतु श्री गणेश की पूजा से भी प्रसन्न होता हैं।
- कुलदेवता की पूजा अर्चना नित्य करनी चाहिए।
- शयन कक्ष में लाल रंग की चादर, तकिये का कवर, तथा खिड़की दरवाजो में लाल रंग के ही पर्दो का उपयोग करें।
- वैवाहिक जीवन में बाधा आ रही हो तो पत्नि के साथ सात शुक्रवार नियमित रूप से किसी देवी मंदिर में सात परिक्रमा लगाकर पान के पत्ते में मक्खन और मिश्री का प्रसाद रखें पति पत्नि एक-एक सफेद फूल अथवा सफेद फूलों की माला देवी माँ के चरणों में चढाए।
मंगल हैं पितृ दोष?
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पितृ-दोष पीढ़ी दर पीढ़ी
होते रहते हैं। हमें अपने पूर्व जन्मों के कर्मो के अनुसार ही वेश, जाति, परिवार एवं माता-पिता के
यहाँ ही जन्म लेना पड़ता हैं, जिनसे पूर्व जन्मों में
हमारे सम्बन्ध रहे हैं, एवं उनके साथ रहकर उनकी स्वीकृति अथवा सहयोग
से हमने पाप या पुण्य कर्म किये होते हैं। चूंकि मंगल का संबंध रक्त से होता हे जो
पितृदोष का कारक माना जाता हैं । रक्त कम हो जाना, पितृदोष में आया मंगल रक्त
की कमी करके संतान पैदा करने की शक्ति का हनन करता हैं।
भूतकाल से वर्तमान काल तक
आती हुई अनन्त भविष्य तक गतिशील पीढि़यों के स्वभाव तो होते ही हैं पेतृक भी होते
हैं। कुछ पैतृक चिन्ह व स्वभाव आश्र्चय जनक होते हैं।
जैसे – प्रायः व्यक्ति का चेहरा
स्पष्ट हो जाता हैं कि यह व्यक्ति अमुक का पुत्र या भाई हैं। इसी प्रकार कई बार
पिता – पुत्र की वाणी बात करने के
लहजे में अद्भुत समानता देखने में आती हैं। जब व्यक्ति अपने कर्म फल लेकर मानव
योनि में उत्पन्न होता हैं तब परिवार वाले उसकी कुण्डली बनवाते हैं।
जातक की कुण्डली में
पितृ-दोष की सूचना देने में छाया ग्रह राहु– केतु की प्रमुख भुमिका
मानते है। राहू– केतु जहाँ पितृ-दोष के
प्रमुख घटक ग्र्रह हैं, तो वहीं यह दोनों ग्रह स्पष्टतया “काल सर्प योग’’ की भी धोषणा करते हैं, अर्थात राहु-केतु ही “पितृ-दोष’’ और “’काल सर्प ’’ योग के प्रमुख घटक हैं।
दोनों ही दोष जातक के पितरों व स्वंय के पूर्व जन्म व जन्मों में किये गये अशुभ
कर्मो का ही परिणाम होते हैं।
पितृ-दोष के कारण जातक का
मन पूजा पाठ में नहीं लगता और जातक को नास्तिक बनाता हैं। ईश्वर के प्रति उनकी
आस्था कम हो जाती हैं, स्वभाव चिड़चिड़ा, जिद्दी और क्रोधी हो जाता
हैं। धार्मिक कार्यो को ढकोसला मानते हैं। कुछ लोग किसी ग्रह के शुभ होने से पूजा
विधान कराना तो चाहते हैं किन्तु धन के अभाव में उन्हें टालते रहते हैं।
अकाल मृत्यु ही पितृदोष का
मुख्य कारक:- अकाल मृत्यु यानी समय से
पहले ही किसी दुर्घटना का शिकार हो जाना, ब्रह्मलीन हो जाना हैं। इस
अवस्था में मृत आत्मा तब तक तड़फती रहती हैं जब तक की उस की उम्र पूरी नहीं होती
हैं। उम्र पूरी होने के बाद भी कई मृत आत्माएँ भूत, प्रेत, नाग आदि बनकर पृथ्वी पर
विचरण करती रहती हैं और जो धार्मिक आत्माएँ रहती हैं वो किसी को भी परेशान नहीं
करती बल्कि सदैव दूसरों का भला करती हैं। लेकिन दुष्ट आत्माएँ हमेशा दूसरों को
दुःख, तकलीफ ही देती रहती हैं।
हमारे पूर्वज मृत अवस्था में जो रूप धारण करते है वह तड़पते रहते हैं। न उन्हें
पानी मिलता हैं और ना ही खाने के लिए कुछ मिलता हैं। वह आत्माएँ चाहती हैं कि उनका
लडका, पोता, पोती या पत्नी इनमें से कोई
भी उस आत्मा का उद्धार करे। पितृ-दोष परिवार में एक को
ही होता हैं। जो भी उस आत्मा के सबसे निकट होगा, जो उसे ज्यादा चाहता होगा
वही उसका मुख्य पात्र बनता हैं।
जब हम पण्डित को कुण्डली या हाथ दिखाते हैं तो वह
पितृ-दोष उसमें स्पष्ट आ जाता हैं। हाथ में पितृ-दोष, गुरू पर्वत और मस्तिष्क रेखा के बीच में से एक लाईन निकलकर जाती हैं जो
कि गुरू पर्वत को काटती हैं यह पितृ-दोष का मुख्य कारण बनती हैं। पितृ-दोष को ही
काल सर्प योग कहते हैं। काल सर्प योग पितृ-दोष का ही छोटा रूप माना जाता हैं।
पितृ-दोष को मंगल का कारक भी कहा गया हैं क्योंकि कुण्डली में मंगल को खुन के रिश्ते
से जोड़ा गया हैं। इसलिए पितृ-दोष मंगल दोष भी होता हैं जो कि शिव आराधना से दूर
होता हैं।
काल सर्प के बारे में :- एक कथा प्रचलित हैं कि जब समुद्र मंथन हुआ था तो
उसमें से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई, उसमें से
एक रत्न अमृत के रूप में भी निकला। जब अमृत निकला तो इसे ग्रहण करने के लिए
देवताओं और राक्षसों में युद्ध छिड़ने लगा तब भोलेनाथ ने समझा-बुझाकर दोनों को
पंक्ति में बैठने को कहा, विष्णु ने मोहिनी रूप धरकर अमृत का पात्र अपने पास
लेकर सभी को अमृत पान कराना आरम्भ किया। चालाक विष्णु ने पहले देवताओं वाली पंक्ति
में अमृत पान कराना आरम्भ किया, उसी समय एक दैत्य देवताओं की इस युक्ति को समझ गया
और देवता का रूप बनाकर देवता वाली पंक्ति में बैठकर अमृत पान कर लिया, जब सूर्य और चन्द्र को पता लगा तो उन्होनें विष्णु से इस बात की शिकायत
की, विष्णु जी को क्रोध आया और उन्होनें सुदर्शन चक्र
छोड़ दिया। सुदर्शन चक्र ने उस राक्षस के सर को धड़ से अलग कर दिया, क्योंकि वह अमृत पान कर चुका था इसलिए वह मरा नहीं ओर दो हिस्सों में
बंट गया। सर राहु और धड़ केतु बन गया लेकिन जब उसका सर कटकर पृथ्वी पर गिरा तब
भरणी नक्षत्र था और उसका योग काल होता हैं, जब धड़
पृथ्वी पर गिरा तब अश्लेशा नक्षत्र था जिसका योग सर्प होता हैं। इन दोनों योग के
जुड़ने से ही काल सर्प योग की उत्पत्ति हुई।
इसके कारण पारिवारिक कलह, व्यवसाय में व्यवधान, पढ़ाई में मन न लगना, सपने आना, सपनों में नाग दिखना, पहाड़ दिखना, पूरे हुए
कार्य का बीच में बिगड़ जाना, आकाश में विचरण करना, हमेशा
अनादर पाना, मन में अशान्ति रहना, शान्ति
में व्यवधान, कौआ बैठना, कौओं का
शोरगुल हमेशा अपने घर के आस-पास होना पितृ-दोष (कालसर्प योग) की निशानी होता हैं।
उपाय किसी पण्डित से ब्रह्म सरोवर सिद्ध वट पर पूजा अर्चना कर पितृ शान्ति करवानी
चाहिए।
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पित्र दोष निवारण / पूजा
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कुंडली में उपस्थित भिन्न प्रकार के दोषों के निवारण के लिए की जाने वाली पूजाओं को लेकर बहुत सी भ्रांतियां तथा अनिश्चितताएं बनीं हुईं हैं तथा एक आम जातक के लिए यह निर्णय लेना बहुत कठिन हो जाता है कि किसी दोष विशेष के लिए की जाने वाली पूजा की विधि क्या होनी चाहिए।
पित्र दोष के निवारण के लिए की जाने वाली पूजा को लेकर बहुत अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है जिसके कारण जातक को दुविधा का सामना करना पड़ता है। पित्र दोष के निवारण के लिए धार्मिक स्थानों पर की जाने वाली पूजा के महत्व के बारे में पितृ दोष के निवारण के लिए की जाने वाली पूजा है क्या।
पित्र दोष का कारण है:- जातक ने अपने पूर्वजों के मृत्योपरांत किये जाने वाले संस्कार तथा श्राद्ध आदि उचित प्रकार से नहीं किये होते जिसके चलते जातक के पूर्वज उसे शाप देते हैं जो पित्र दोष बनकर जातक की कुंडली में उपस्थित हो जाता है, उसके जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समस्याएं उत्पन्न करता है। ऐसे पित्र दोष के निवारण के लिए पित्रों के श्राद्ध कर्म आदि करने, पिंड दान करने तथा नारायण पूजा आदि का सुझाव देते हैं इन उपायों को करने वाले जातकों को पित्र दोष से कोई विशेष राहत नहीं मिलती क्योंकि पित्र दोष वास्तविकता में पित्रों के शाप से नहीं बनता अपितु पित्रों के द्वारा किये गए बुरे कर्मों के परिणामस्वरूप बनता है जिसका फल जातक को भुगतना पड़ता है, निवारण के लिए जातक को नवग्रहों में से किसी ग्रह विशेष के कार्य क्षेत्र में आने वाले शुभ कर्मों को करना पड़ता है जिनमें से उस ग्रह के वेद मंत्र के साथ की जाने वाली पूजा भी एक उपाय है जिसे पित्र दोष निवारण पूजा भी कहा जाता है।
दोष के निवारण के लिए की जाने वाली पूजा को विधिवत करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है दोष के निवारण के लिए निश्चित किये गए मंत्र होती है। पूजा के आरंभ वाले दिन पांच या सात पंडित पूजा करवाने वाले यजमान अर्थात जातक के साथ भगवान शिव के शिवलिंग के समक्ष बैठते हैं तथा शिव परिवार की विधिवत पूजा करने के पश्चात मुख्य पंडित यह संकल्प लेता है कि वह और उसके सहायक पंडित उपस्थित यजमान के लिए पित्र दोष के निवारण मंत्र जाप एक निश्चित अवधि में करेंगे तथा इस जाप के पूरा हो जाने पर पूजन, हवन तथा कुछ विशेष प्रकार के दान आदि करेंगे।
संकल्प के समय मंत्र का जाप करने वाली सभी पंडितों का नाम तथा उनका गोत्र बोला जाता है तथा इसी के साथ पूजा करवाने वाले यजमान का नाम, उसके पिता का नाम तथा उसका गोत्र भी बोला जाता है पितृ दोष के निवारण मंत्र के इस जाप से पित्र दोष का निवारण होता है।
भगवान शिव, मां पार्वती, भगवान गणेश तथा शिव परिवार के अन्य सदस्यों की पूजा फल, फूल, दूध, दहीं, घी, शहद, शक्कर, धूप, दीप, मिठाई, हलवे के प्रसाद तथा अन्य कई वस्तुओं के साथ की जाती है तथा इसके पश्चात मुख्य पंडित के द्वारा पितृ दोष के निवारण मंत्र का जाप पूरा हो जाने का संकल्प किया जाता है जिसमे यह कहा जाता है कि मुख्य पंडित ने अपने सहायक अमुक अमुक पंडितों की सहायता से इस मंत्र का जाप निर्धारित विधि में सभी नियमों का पालन करते हुए किया है जिसने जाप के शुरू होने से लेकर अब तक पूर्ण निष्ठा से पूजा के प्रत्येक नियम की पालना की है तथा इसलिए अब इस पूजा से विधिवत प्राप्त होने वाला सारा शुभ फल उनके यजमान को प्राप्त होना चाहिए।
समापन पूजा के चलते नवग्रहों से कुछ विशेष ग्रहों से संबंधित विशेष वस्तुओं का दान किया जाता है जो जातकों के लिए भिन्न हो सकता है तथा इन वस्तुओं में चावल, गुड़, चीनी, नमक, गेहूं, दाल, तेल, सफेद तिल, काले तिल, जौं तथा कंबल का दान किया जाता है। हवन की प्रक्रिया शुरू की जाती है जो जातक तथा पूजा का फल प्रदान करने वाले देवी देवताओं अथवा ग्रहों के मध्य एक सीधा तथा शक्तिशाली संबंध स्थापित करती है। विधियों के साथ हवन अग्नि प्रज्जवल्लित करने के पश्चात तथा हवन शुरू करने के पश्चात पित्र दोष के निवारण मंत्र का जाप पुन: प्रारंभ किया जाता है, इस मंत्र का जाप पूरा होने पर स्वाहा: का स्वर उच्चारण किया जाता है जिसके साथ ही हवन कुंड की अग्नि में एक विशेष विधि से हवन सामग्री डाली जाती है।
पितृदोष निवारण |
अंत में सूखे नारियल को उपर से काटकर उसके अंदर कुछ विशेष सामग्री भरी जाती है तथा नारियल को विशेष मंत्रों के उच्चारण के साथ हवन कुंड की अग्नि में पूर्ण आहुति के रूप में अर्पित किया जाता है तथा इसके साथ ही इस पूजा के इच्छित फल एक बार फिर मांगे जाते हैं।
पूजा की शांति पितृ दोष निवारण पूजा में भी उपरोक्त विधियां पूरी की जातीं हैं इन्हें ठीक प्रकार से न करने पर जातक को इस पूजा से प्राप्त होने वाले फल में कमी आ सकती है तथा जितनी कम विधियों का पूर्णतया पालन किया गया होगा, उतना ही इस पूजा का फल कम होता जाएगा।
इसलिए धार्मिक स्थानों पर किसी भी प्रकार की पूजा का आयोजन करवाते रहने की आवश्यकता है जिससे आपके दवारा करवाई जाने वाली पूजा का शुभ फल आपको पूर्णरूप से प्राप्त हो सके।
जन्माष्टमी मनेगी रोहिणी नक्षत्र में
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इस
बार 28 अगस्त को श्रीकृष्ण
जन्माष्टमी मनाया जाएगा। इसी दिन वैष्णव संप्रदाय भी जन्माष्टमी मनाएगा। पंडितों
के अनुसार ऐसा अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के एक साथ होने के कारण हो रहा है।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व बुधवार को ही मनाया जाएगा। बुधवार को दोपहर तीन बजे तक
कृतिका नक्षत्र है। इसके बाद रोहिणी नक्षत्र शुरू हो जाएगा। अष्टमी तिथि एक दिन
पहले मंगलवार रात से प्रारंभ होकर बुधवार देर रात तक रहेगी। इस दिन वृषभ लग्न
रहेगी।
27 को चन्द्रमा वृषभ राशि से रोहिणी नक्षत्र में जाएगा, इसलिए मुहूर्त तभी से आरंभ माना जाएगा। स्मार्त: मत को मानने वाले 27 को व्रत रखेंगे। 27 को रात्रि 1.53 मिनट के बाद व्रत खोल सकते हैं। दिनमान में अष्टमी तिथि होने की वजह से
संभावना यह है कि अधिकांश लोग 28 को ही जन्माष्टमी
मनाएंगे। 28 अगस्त को रात्रि 3.10 मिनट तक अष्टमी का सद्भाव रहेगा। श्रीमद्भागवत् में स्पष्ट निर्देश है कि
भाद्रपद के कृष्ण पक्ष में आधी रात के समय रोहिणी नक्षत्र और बुधवार मिल जाए तो यह
विलक्षण योग है। इसमें श्री कृष्ण का पूजन, अर्चन, व्रत और दोला रोहण किया जाए तो शुभदाई है।
उनके अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने 125 वर्षों तक लीला की। जब वे गो लोक गए तब से कलियुग का आरंभ हुआ। भारतीय काल
गणना के अनुसार कलियुग के अब तक 5114 वर्ष बीत
चुके हैं। इसलिए इस बार श्रीकृष्ण की 5239 वीं
जयंती मनाई जाएगी। मथुरा के बांके बिहारी मंदिर ने भी अभी तक यह घोषित नहीं किया
है कि जन्माष्टमी किस दिन मनाई जाएगी।
पंडितों
के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण का जन्म रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। कुछ पंचांगों में 29 अगस्त को रोहिणी नक्षत्र
दर्शाया गया है। इससे लोगों में इस नक्षत्र को लेकर भ्रम की स्थिति है, लेकिन ऐसा नहीं है।
28 अगस्त को दोपहर बाद
रोहिणी नक्षत्र लग रहा है और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी हमेशा रोहिणी नक्षत्र में ही
मनाया जाता है। इसलिए इस बार 28 अगस्त बुधवार को
जन्माष्टमी मनाया जाएगा। वैष्णव को छोड़ स्मार्त संप्रदाय के लोग अष्टमी तिथि को
ही जन्माष्टमी मनाते है, लेकिन इस बार एक ही दिन
रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी तिथि होने के कारण दोनों संप्रदाय के लोग इसी दिन पर्व
मनाएंगे।
ब्रज
में जन्माष्टमीं को लेकर तैयारियां जोर-शोर से चल रही है। लोगों में जन्माष्टमीं
को लेकर जबरदस्त उत्साह है। यह अगस्त महीने की 28 तारीख को पड़ेगी।
श्रीकृष्ण जन्म महोत्सव समिति के अनुसार श्रीकृष्ण मंदिर प्रांगण में 25 अगस्त से ही कार्यक्रम
प्रारंभ हो जाएंगे जो जन्माष्टमी तक चलेंगे।
जन्माष्टमी के दिन सुबह
पुष्पांजलि कार्यक्रम श्रीराम मंदिर अयोध्या के महंत नृत्यगोपाल दास करेंगे। इसी
प्रकार वृंदावन के सप्त देवालयों में भद्रमास की प्रतिपदा को ठाकुर जी के विभिन्न
रूप दिखाई देगे। वृंदावन स्थित गोपीनाथ, गोविंद देव, गोकुलानंद, मदन मोहन, राधादामोदर, राधारमण, राधाश्यामसुंदर मंदिर
सप्त देवालय माने जाते हैं।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व बुधवार को ही मनाया जाएगा। बुधवार को दोपहर तीन बजे तक
कृतिका नक्षत्र है। इसके बाद रोहिणी नक्षत्र शुरू हो जाएगा। अष्टमी तिथि एक दिन
पहले मंगलवार रात से प्रारंभ होकर बुधवार देर रात तक रहेगी। इस दिन वृषभ लग्न
रहेगी।
27 को चन्द्रमा वृषभ राशि से रोहिणी नक्षत्र में जाएगा, इसलिए मुहूर्त तभी से आरंभ माना जाएगा। स्मार्त: मत को मानने वाले 27 को व्रत रखेंगे। 27 को रात्रि 1.53 मिनट के बाद व्रत खोल सकते हैं। दिनमान में अष्टमी तिथि होने की वजह से
संभावना यह है कि अधिकांश लोग 28 को ही जन्माष्टमी
मनाएंगे। 28 अगस्त को रात्रि 3.10 मिनट तक अष्टमी का सद्भाव रहेगा। श्रीमद्भागवत् में स्पष्ट निर्देश है कि
भाद्रपद के कृष्ण पक्ष में आधी रात के समय रोहिणी नक्षत्र और बुधवार मिल जाए तो यह
विलक्षण योग है। इसमें श्री कृष्ण का पूजन, अर्चन, व्रत और दोला रोहण किया जाए तो शुभदाई है।
उनके अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने 125 वर्षों तक लीला की। जब वे गो लोक गए तब से कलियुग का आरंभ हुआ। भारतीय काल
गणना के अनुसार कलियुग के अब तक 5114 वर्ष बीत
चुके हैं। इसलिए इस बार श्रीकृष्ण की 5239 वीं
जयंती मनाई जाएगी। मथुरा के बांके बिहारी मंदिर ने भी अभी तक यह घोषित नहीं किया
है कि जन्माष्टमी किस दिन मनाई जाएगी।
पंडितों
के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण का जन्म रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। कुछ पंचांगों में 29 अगस्त को रोहिणी नक्षत्र
दर्शाया गया है। इससे लोगों में इस नक्षत्र को लेकर भ्रम की स्थिति है, लेकिन ऐसा नहीं है।
28 अगस्त को दोपहर बाद
रोहिणी नक्षत्र लग रहा है और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी हमेशा रोहिणी नक्षत्र में ही
मनाया जाता है। इसलिए इस बार 28 अगस्त बुधवार को
जन्माष्टमी मनाया जाएगा। वैष्णव को छोड़ स्मार्त संप्रदाय के लोग अष्टमी तिथि को
ही जन्माष्टमी मनाते है, लेकिन इस बार एक ही दिन
रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी तिथि होने के कारण दोनों संप्रदाय के लोग इसी दिन पर्व
मनाएंगे।
ब्रज
में जन्माष्टमीं को लेकर तैयारियां जोर-शोर से चल रही है। लोगों में जन्माष्टमीं
को लेकर जबरदस्त उत्साह है। यह अगस्त महीने की 28 तारीख को पड़ेगी।
श्रीकृष्ण जन्म महोत्सव समिति के अनुसार श्रीकृष्ण मंदिर प्रांगण में 25 अगस्त से ही कार्यक्रम
प्रारंभ हो जाएंगे जो जन्माष्टमी तक चलेंगे।
जन्माष्टमी के दिन सुबह
पुष्पांजलि कार्यक्रम श्रीराम मंदिर अयोध्या के महंत नृत्यगोपाल दास करेंगे। इसी
प्रकार वृंदावन के सप्त देवालयों में भद्रमास की प्रतिपदा को ठाकुर जी के विभिन्न
रूप दिखाई देगे। वृंदावन स्थित गोपीनाथ, गोविंद देव, गोकुलानंद, मदन मोहन, राधादामोदर, राधारमण, राधाश्यामसुंदर मंदिर
सप्त देवालय माने जाते हैं।
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