शिवधनुष तोड़क राम के उपासक तुलसी ने शिव से लगवायी मानस पर मोहर : जो प्रेम में भी नकारा गया और भक्ति में भी दुत्‍कारा गया, उसकी बदतर हालत की कल्‍पना तो हर कोई कर सकता है। ऐसे लोगों को आम तौर पर तो लोग यह कह कर खारिज कर सकते हैं कि माया मिली ना राम। लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसा ही एक शख्‍स आखिरकार ऊंचाई के उस मुकाम तक पहुंच गया, जहां सोच पाने तक का साहस शायद कोई नहीं कर सकेगा। उसे राम का वह नाम मिल गया जहां उसके बिना कोई राम का नाम तक नहीं ले सकता है। चार शताब्‍दी बीत जाने के बावजूद उसका नाम राम के साथ ठीक वैसा ही जुड गया है, जैसा सीता या हनुमान का नाम। बिलकुल सही पहचाना आपने। हम शाहों के उस शाह का जिक्र कर रहे हैं जिसे आज पूरी दुनिया गोस्‍वामी तुलसीदास के नाम से जानती है।
विवाह के बाद पत्‍नी जब पहली बार अपने मायके गयी तो पत्‍नी-विरह से विह्वल तुलसीदास से रहा नहीं गया। वे अपने इसी प्रेम के चलते सांप की पूंछ पकड़ कर भले ही अपनी ससुराल पहुंच गये, लेकिन आखिरकार पत्‍नी ने ही उनकी इस हरकत पर दुत्‍कार लगा दी। झिड़कते हुए बोली कि मेरे बजाय अगर तुमने अपना ध्‍यान प्रभु राम पर लगाया होता तो जीवन ही सार्थक हो गया होता। चित्रकूट में तो चरित्र जाता दिखा, तो बेइज्‍जती और शर्म के मारे तुलसीदास सीधे भोलेनाथ की नगरी काशी पहुंच गये और राम की उपासना में लीन होना चाहा। लेकिन वहां शैव उपासकों ने उन्‍हें चैन से रहने ही नहीं दिया। जहां भी धूनी रमायी, उजाड़ दी गयी। ऐसा एक नहीं, अनेक बार हुआ। अब यह भले ही समझ से परे हो, लेकिन अयोध्‍या के बजाय तुलसीदास ने वाराणसी को क्‍यों चुना। शायद इसलिए कि वे इतने अपमान के बाद अपने जीवन का ध्‍येय अपमान मार्ग से ही हासिल करना चाहते रहे हों। बहरहाल, तुलसीदास पर इन अपमानों का आखिरकार कितना जबर्दस्‍त असर पड़ा होगा, यह उनकी इन लाइनों में देखा जा सकता है।
धूत कहो, अवधूत कहो,
राजपूत कहो, जुलहा कहो कोऊ।
काहू की बेटी से बेटा ना ब्‍याहब,
काहू की जात बिगार ना सोउ।
तनिक दिल पर हाथ रख कर सुनिये कि अपने बारे में तुलसीदास जी की एकमात्र यही उक्ति अब तक मिली है। कुछ भी हो, वेदों की नगरी काशी में तुलसी का हठ योग कुछ इस कदर हावी हुआ कि उन्‍होंने संस्‍कृत की बजाय रामचरित मानस को अवधी में लिखा। बस यहीं से उनके विरोध की नींव पड़ गयी। काशी में उनका जबर्दस्‍त विरोध हुआ। संस्‍कृत की नगरी काशी के पंडितों ने इसे बकवास करार दे दिया। उन विद्वानों ने ऐलानिया कहा कि इसे कोई भी स्‍वीकार नहीं करेगा। लेकिन इन चुनौतियों का सामना हर मोड़ पर तुलसी ने किया और अपने राम अभियान को और भी तेज लहकाते रहे। बनारस में ही इस असाधारण जीवट वाले साधु ने अपने लिये संकट मोचन तैयार किया और लंका भी। यानी अपनी सारी भक्तिगत सोच की जमीन वहीं अपने आसपास ही तैयार कर ली। ग्रंथ तो तैयार होने के पहले ही बकवास करार दिया जा चुका था। लेकिन तुलसी ने फिर अपने विरोध की अलख जगायी और यह साबित करने के लिए कि राम और शिव आदि भगवान एकात्‍म ही हैं, उन्‍होंने विश्‍वनाथ मंदिर में माथा टेका।
यह अजीब ही तो था कि रामचरित मानस में शिव-धनुष तोड़क राम की महिमा लिखने वाले तुलसी ने स्‍वयं के त्राण के लिए खुद शिव की चौखट पर न्‍याय की अर्जी बिलकुल निरपेक्ष भाव से लगायी और किंवदंतियों के अनुसार विश्‍वनाथ मंदिर की चौखट पर रामचरित मानस की प्रति रख दी। बताते हैं कि सुबह जब वे मंदिर पहुंचे तो देखा कि उनके ग्रंथ पर शिव की मोहर लग चुकी है। और अब यह कहने की जरूरत तो हर्गिज नहीं है कि भीषण अपमान और चरम उपेक्षा के दौर से शुरू हुए तुलसी के अपने अभियान की सफलता का अंदाजा आज घर-घर में पूरे सम्‍मान के साथ रखे जाने वाले रामचरित मानस के गुटका के तौर पर देखा जा सकता है। पिछले चार सौ बरसों से रामचरित मानस भारतीय जीवन का एक बड़ा जीवन-सिद्धांत ग्रंथ बन चुका है, जहां इंसान की हर समस्‍या का समाधान है, उसके लिए दिशा-निर्देश हैं और इतना ही नहीं, चमत्‍कारों पर यकीन रखने वालों के लिए जादुई वर्ग पहेली भी है।
दरअसल, सच तो यह है कि राम के प्रेम के साथ ही तुलसीदास जी ने भक्ति की एक ऐसी महान कहानी रच डाली जो इसके पहले कभी सोची ही नहीं गयी थी। उस कहानी का नाम है हनुमान चालीसा। हैरत की बात तो यह है कि एक ओर जहां रामचरित मानस मर्यादित जीवन जीने का एक सम्‍बल बन गया, वहीं हनुमान चालीसा ने भक्ति भाव की सारी सीमाएं ही तोड़ डालीं। इस चालीसा में वे भले ही राम की उपासना से अपनी बात शुरू करते हों, लेकिन दोहे की अगली पंक्ति में ही वे इस भक्ति का माध्‍यम पवनसुत यानी हनुमान की उपासना से कर बैठते हैं और फिर उसकी सारी लाइनें बजरंगबली को ही समर्पित हैं। कहने की जरूरत नहीं कि किसी भी साहित्‍य में यह अद़भुत संयोग लाख खोजने पर भी नहीं मिलेगा। हां, अब यह अलग बात है कि रामचरित मानस के गुटका को छापने का रिकार्ड बना चुके गीता प्रेस का भी दावा है कि रामचरित मानस अपने मूल में नहीं बचा है, उसमें अनेक दोहा और चौपाई बाद में भी जोड़ी गयी हैं।