कबूतरबाजी
चूंकि 'कबूतर' शब्द से बना है, इसलिए इसके लिए कबूतर का होना जरूरी है। कबूतर कोई एनडेंजर्ड प्रजाति नहीं है। यह अभी भी बहुतायत में मिलता है। धर्म-कर्म वाले लोग शहर के चौराहों पर उनके लिए अब भी दाना डालते हैं। वैसे तो दाना डालने के बाद जाल डालने का भी रिवाज है। पर धर्म-कर्म वाले लोग ऐसा तो नहीं करते होंगे। खैर, कबूतर बहुत ही निरीह प्राणी होता है। इतना कि बिल्ली को देखकर आंखें बंद कर लेता है और बिल्ली भी कोई एनडेंजर्ड प्रजाति नहीं है। वह भी बहुतायत में मिलती है। वह हर उस जगह पर पहुंच जाती है, जहां खाने-पीने का जुगाड़ हो। वह दूध पी जाती है, मलाई खा जाती है। कबूतर उसके लिए दूध-मलाई जैसी ही चीज है। बल्कि उससे भी आसान। वह उसके सामने आंख मूंदकर बैठ जाता है- लीजिए, मैं हाजिर हूं।
कबूतर हमेशा इंसान के काम आया है। पहले के जमाने में वह संदेशवाहक का काम करता था। इधर उसका यह काम कुछ फिल्मों तक ही सीमित रह गया है। फिर वह शांति दूत बन गया। जैसे कभी खलील खां फाख्ते उड़ाया करता था, वैसे ही नेता शांति के लिए कबूतर उड़ाने लगे। अब न खलील खां के फाख्ते उड़ाने का जमाना रहा, न नेताओं के शांति कपोत उड़ाने का। यह तो बुश का जमाना है और इस जमाने में सिर्फ बमवर्षक उड़ते हैं।
वैसे तो बताते हैं कि कबूतर के और भी कई काम हैं। जैसे कहते हैं लक्का
कबूतर के पंखों की हवा से लकवा ठीक हो जाता है। पर इधर कबूतर, कबूतरबाजी के
ज्यादा काम आ रहा है। कबूतरबाजी एक पेशा है। यह इतना अच्छा और मलाईदार
पेशा है कि कुछ साल पहले जो लोग भंगड़ेबाज थे, वे कबूतरबाज हो गए। गा-गाकर
कबूतरों को आकर्षित करने लगे- साढे नाल रहोगे तो ऐश करोगे, दुनिया के सारे
मजे कैश करोगे। फिर कैश खुद रख लेते थे और उसे ऐश करने के लिए फुर्र कर
देते थे। नाल नहीं रखते थे। अब कबूतरों का तो ऐसा ही है जी। उनसे चाहे
संदेशे भिजवा लो, प्यार और शांति के और चाहे भंगड़ा डलवा लो। और जब चाहो
फुर्र कर दो।
खैर, यह पेशा लोगों को इतना पसंद आया कि गाने वाले गाना छोड़ कबूतरबाजी करने लगे। डांस वाले डांस छोड़ कबूतरबाजी करने लगे। कल्चर की तुक वैसे तो वल्चर से बैठती है, मगर कल्चर वाले, वल्चर को पसंद नहीं करते, पर कबूतरबाजी उन्हें बड़ी रास आई। पर ऐसा नहीं है कि कल्चर में ही कबूतरबाजी का योगदान रहा हो। कहते हैं कि खेल में और खासतौर से हॉकी में कबूतरबाजी का काफी योगदान है। देश में हॉकी की आज जो स्थिति है, उसे इस एंगल से भी समझा जा सकता है।
अब अगर पेशा इतना अच्छा हो, तो हर कोई उसकी ओर आकर्षित हो सकता है। आकर्षित होने के मामले में हमारे नेताओं का कोई जवाब नहीं। कभी जनता उनकी ओर आकर्षित होती थी, इधर वे कबूतरबाजी की ओर आकर्षित हो रहे हैं। बीच-बीच में वे अपनी पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टियों की ओर आकर्षित हो जाते हैं। बड़े-बड़े सेठों और कंपनियों की ओर आकर्षित हो जाते हैं। खैर, कबूतरबाजी की ओर वे खूब आकर्षित हो रहे हैं।
बाबूभाई कटारा को ही देख लीजिए। पहले वह हिंदुत्व की ओर आकर्षित हुए। फिर वह हिंदुत्व के बाहुबली हो गए। जी हां, सबके अपने-अपने बाहुबली होते हैं। कोई समाजवाद का बाहुबली तो कोई हिंदुत्व का बाहुबली। फिर गुजरात के हैं और गोधरा के पड़ोसी हैं तो दंगों ने उन्हें आकर्षित कर लिया और पूरी फैमिली दंगों के बिजनेस में आ गई। बताते हैं उनके और उनके बेटों पर अभी दंगों के केस चल रहे हैं। पर दंगे तो हमेशा होते नहीं रह सकते न और वे ठहरे आकर्षण के मारे। सो वे कबूतरबाजी की ओर आकर्षित हो गए। विचारधारा का कोई संकट तो था नहीं। हिंदुत्व वाले हवाला, तहलका वगैरह सबकी ओर आकर्षित होते रहते हैं, तो उन्हें क्या संकट था। फिर यूएस, यूके, कनाडा में हिंदुत्व का प्रसार हो रहा था। भई, उनके कबूतर संदेश तो ले जाते होंगे न। और वे हिंदुत्व का संदेश नहीं ले जाएंगे तो क्या प्रेम का संदेश ले जाएंगे?
चूंकि 'कबूतर' शब्द से बना है, इसलिए इसके लिए कबूतर का होना जरूरी है। कबूतर कोई एनडेंजर्ड प्रजाति नहीं है। यह अभी भी बहुतायत में मिलता है। धर्म-कर्म वाले लोग शहर के चौराहों पर उनके लिए अब भी दाना डालते हैं। वैसे तो दाना डालने के बाद जाल डालने का भी रिवाज है। पर धर्म-कर्म वाले लोग ऐसा तो नहीं करते होंगे। खैर, कबूतर बहुत ही निरीह प्राणी होता है। इतना कि बिल्ली को देखकर आंखें बंद कर लेता है और बिल्ली भी कोई एनडेंजर्ड प्रजाति नहीं है। वह भी बहुतायत में मिलती है। वह हर उस जगह पर पहुंच जाती है, जहां खाने-पीने का जुगाड़ हो। वह दूध पी जाती है, मलाई खा जाती है। कबूतर उसके लिए दूध-मलाई जैसी ही चीज है। बल्कि उससे भी आसान। वह उसके सामने आंख मूंदकर बैठ जाता है- लीजिए, मैं हाजिर हूं।
कबूतर हमेशा इंसान के काम आया है। पहले के जमाने में वह संदेशवाहक का काम करता था। इधर उसका यह काम कुछ फिल्मों तक ही सीमित रह गया है। फिर वह शांति दूत बन गया। जैसे कभी खलील खां फाख्ते उड़ाया करता था, वैसे ही नेता शांति के लिए कबूतर उड़ाने लगे। अब न खलील खां के फाख्ते उड़ाने का जमाना रहा, न नेताओं के शांति कपोत उड़ाने का। यह तो बुश का जमाना है और इस जमाने में सिर्फ बमवर्षक उड़ते हैं।
खैर, यह पेशा लोगों को इतना पसंद आया कि गाने वाले गाना छोड़ कबूतरबाजी करने लगे। डांस वाले डांस छोड़ कबूतरबाजी करने लगे। कल्चर की तुक वैसे तो वल्चर से बैठती है, मगर कल्चर वाले, वल्चर को पसंद नहीं करते, पर कबूतरबाजी उन्हें बड़ी रास आई। पर ऐसा नहीं है कि कल्चर में ही कबूतरबाजी का योगदान रहा हो। कहते हैं कि खेल में और खासतौर से हॉकी में कबूतरबाजी का काफी योगदान है। देश में हॉकी की आज जो स्थिति है, उसे इस एंगल से भी समझा जा सकता है।
अब अगर पेशा इतना अच्छा हो, तो हर कोई उसकी ओर आकर्षित हो सकता है। आकर्षित होने के मामले में हमारे नेताओं का कोई जवाब नहीं। कभी जनता उनकी ओर आकर्षित होती थी, इधर वे कबूतरबाजी की ओर आकर्षित हो रहे हैं। बीच-बीच में वे अपनी पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टियों की ओर आकर्षित हो जाते हैं। बड़े-बड़े सेठों और कंपनियों की ओर आकर्षित हो जाते हैं। खैर, कबूतरबाजी की ओर वे खूब आकर्षित हो रहे हैं।
बाबूभाई कटारा को ही देख लीजिए। पहले वह हिंदुत्व की ओर आकर्षित हुए। फिर वह हिंदुत्व के बाहुबली हो गए। जी हां, सबके अपने-अपने बाहुबली होते हैं। कोई समाजवाद का बाहुबली तो कोई हिंदुत्व का बाहुबली। फिर गुजरात के हैं और गोधरा के पड़ोसी हैं तो दंगों ने उन्हें आकर्षित कर लिया और पूरी फैमिली दंगों के बिजनेस में आ गई। बताते हैं उनके और उनके बेटों पर अभी दंगों के केस चल रहे हैं। पर दंगे तो हमेशा होते नहीं रह सकते न और वे ठहरे आकर्षण के मारे। सो वे कबूतरबाजी की ओर आकर्षित हो गए। विचारधारा का कोई संकट तो था नहीं। हिंदुत्व वाले हवाला, तहलका वगैरह सबकी ओर आकर्षित होते रहते हैं, तो उन्हें क्या संकट था। फिर यूएस, यूके, कनाडा में हिंदुत्व का प्रसार हो रहा था। भई, उनके कबूतर संदेश तो ले जाते होंगे न। और वे हिंदुत्व का संदेश नहीं ले जाएंगे तो क्या प्रेम का संदेश ले जाएंगे?