सफलता के लिए जरुरी है इन दो बातों को याद रखना


गुरु बनाने के संबंध में एक लोकोक्ति प्रचलित है कि गुरु कीजै जान के, पानी पीजै छान के।। यह लोकोक्ति अपने आप में कोई स्पष्ट तात्पर्य नहीं बताती, क्योंकि गुरु बनाया नहीं जाता वे तो अनेकों पूर्व जन्मों के संस्कारवश मिल जाते हैं। निश्चित वार, तिथि, घड़ी में वे दीक्षा देकर साधक को कृतार्थ कर शिष्य बनाते हैं। शिष्य बनाते ही शिष्य के भार को वे वहन कर लेते हैं, गुरु शब्द में यह सार्थकता निहित है। अयोग्य शिष्य के पाप या पुण्य के भागीदारी गुरु भार वहन करते ही हो जाते हैं। माता-पिता के संस्कारों की भांति गुरु के संस्कार भी शिष्य में उतरते हैं। नित्य सतत् आध्यात्मिक साधना में लीन गुरु ही भार वहन करने में समर्थ होता है, क्योंकि वह अपने तथा शिष्य के कर्मों को ज्ञानाग्नि में नित्य दुग्ध करता जाता है। 

इसी प्रकार गुरु के कर्मों का शिष्य भी भागीदार होता है। अतएव आवश्यक है कि गुरु शिष्य दोनों आध्यात्मिक पथ को नित्य साधन से आलोकित करते जाएं। आज के वातावरण में महापुरुषों पर विश्वास जमना कठिन है। भ्रम जाता नहीं, संस्कार जागते नहीं, साधन, पूजन, तप इत्यादि कर्म निष्काम होते नहीं, ऐसे में अध्यात्म पथ पर चला कैसे जाए, यह एक गंभीर और अहम सवाल है। 

पूर्व में चले आ रहे महापुरुषों की गाथाएं व चरित्र हमारे सामने हैं। उनकी वाणियां हैं, उनके आचरण और वाणियों का प्रतिपालन करने के प्रयत्न से वासना नष्ट करने में सहायता मिलेगी। वासना के नष्ट होने से संत का सान्निध्य इस जन्म में या अगले जन्म में मिल सकता है। वर्तमान जन्म के अंतिम निमिष में अगले जन्मों का क्रम निश्चित हो जाता है।

गुरु साधन या अन्य आध्यात्मिक क्रियाओं की दीक्षा या शिक्षा देकर उस अभ्यास में पटुकर कर देते हैं कि अंतिम निमिष में मोझा की ओर बढ़ जाता है या अपनी अनन्त यात्रा में, उत्तरोत्तर आगे बढ़ता हुआ भगवान श्रीकृष्ण से प्राप्त प्रमाणिकता शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोअभिजायते योगभ्रष्ट पवित्रात्मा श्रीमांत के घर में जन्म लेता है और पूर्वाभ्यास के वशीभूत विरक्त हो योग संसिद्ध हो परमगति को प्राप्त करता है। 

प्रत्येक साधन या उपासना पद्धतियों में गुरु का स्थान सर्वोपरि निरुपित किया गया है। न काटे जाने के कारण व्यावहारिक रूप में जिस व्यक्ति के माध्यम से ईश्वरीय शक्ति कार्य करती है उसे गुरु कहा जाता है। उसे ज्ञान होता है ईश्वर या परमात्मा सभी जगह व्याप्त है, महापुरुष उसे प्रगट में व्याप्त देखता है, इसी महात्मा से साधक आत्मसंतुष्ट रहने की शक्ति प्राप्त करता है।

यहां गुरु के संबंध में विश्वास को महाभारत में एकलव्य की कथा वर्णित है। विश्वास और अभ्यास से द्रौणाचार्य को गुरु मानकर एकलव्य नियमित शिष्यों की योग्यता से बहुत ऊपर उठ गया था। सफलता के लिए ये दोनों ही बातें याद रखना जरुरी है क्योंकि ये प्रवीणता प्रमाण है। गुरु ही वह परम शक्ति होती है जो शिष्य के लक्ष्य को स्पष्ट करती है। साधक आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ता हुआ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होता है।