ये है पूजा का नियम जब भी करें पूजन ध्यान रखें


दिनभर जिसकी पूजा करते हो उसकी कृति का अपमान करना गलत है। कोई अपने माता-पिता को बुरा नहीं कहता है। बेटा कितना ही पढ़ा लिखा हो जाए और मां अगर कम पढ़ी लिखी है, सुदर्शना नहीं है तो भी वह उतना ही सम्मान करता है। मेरी कृति है, मुझे रचाया है मां ने। आप अपने परमात्मा की कृति की निंदा करेंगे तो आप उसकी ही निंदा करेंगे? यानी आप परमात्मा को कोस रहे हैं।सावधान हो जाइए, निंदा छोड़ दीजिए। लोग हमसे पूछते हैं पंडितजी निंदा कैसे छोड़ें। 

हम कहते हैं एक सिद्धांत बना लीजिए निंदा छूट जाएगी। सिद्धांत यह कि जो व्यक्ति आपके सामने उपस्थित न हो उसकी चर्चा नहीं करेंगे। बात कर सकते हैं, टिप्पणी मत करिएगा। चर्चा तो करनी पड़ती है कि वह आ रहे हैं, वह जा रहे हैं। पर पीठ पीछे किसी पर टिप्पणी नहीं करें, आपसे निंदा छूट जाएगी। हालांकि दो-तीन दिन तबीयत खराब रहेगी। पहली बात सत्य बोलें, अहंकार न करें, निंदा न करें, जिन्हें निंदा की वृत्ति छोडऩा हो वे त्याग को अपनाएं। बिना आसक्ति-त्याग के, त्याग का कोई अर्थ नहीं, क्योंकि तब जीव भौतिक दृष्टि से किसी कर्म का त्याग करके भी मानसिक स्तर पर उसी से जुड़ा रहता है तथा राग-द्वेष के संस्कार संचय करता, कामना को बल प्रदान करता है।

भावनायुक्त समर्पण में भी समर्पण का आधार परिपक्व नहीं होता, क्योंकि उसमें कुछ अनुभव तो होता ही नहीं, केवल भावना ही होती है। इसलिए अंतर में सूक्ष्म स्तर पर अहंकार बना रहता है। इसके लिए गीता में कर्म करने के उपरांत, कर्म फल भगवान को अर्पण कर देने का मार्ग सुझाया गया है। किन्तु कर्म करते समय जो मन में कामना होगी, उसका संस्कार तो संचित हो ही जाएगा। भगवान को कर्मफल अर्पण कर देने का अभिमान भी उदय हो सकता है। यही अभिमान आगे जाकर निंदा करवाता है।

चौथी बात नित्य पूजा करें। हमारे यहां पूजा को भी कार्यक्रम बना लिया है लोगों ने। जिसको जैसे टाईम मिला, खड़े हैं तो खड़े, बैठे हैं तो बैठे हैं। अनुशासन लाइए जीवन में। व्यक्ति श्रृंगार करता है तो क्रम होता है- पहले मुखड़ा सजाएगा, देह सजाएगा उल्टा कोई श्रृंगार नहीं करता। हर चीज का नियम है, पर आदमी पूजा का नियम नहीं पालता। पूजा करने का नियम है सबसे पहले सूर्य को अध्र्य दें, तुलसी को जल दें, गाय को घास दें उसके बाद स्वरूप पूजा करें, नित्य पाठ करें जो भी आप पाठ करते हैं एक चौपाई, एक मंत्र, लेकिन पाठ करें खड़े होकर, ग्रंथ को खोलकर छोटी सी किताब रख लीजिए।नित्यपाठ इसलिए कहते हैं कि चौबीस घंटे में एक बार घर में ग्रंथ खुलना चाहिए। ग्रंथ में परमात्मा बसता है। जैसे ही आप ग्रंथ खोलते हैं वह बाहर निकलता है, आपके घर में सुंगध देने के लिए। अब तो समय जब मिलता है तभी खुलता है हफ्ते में एक बार, महीन में एक बार। पाठ के साथ-साथ कभी कथा भी बाचें। थोड़ा इसे समझा जाए।