नीलकंठ महादेव www.balajidarbar.com |
श्रावण मास त्रिदेव और पंच देवों में प्रधान
भगवान शिव की भक्ति को समर्पित है। पौराणिक मान्यता है कि देव-दानव द्वारा किए गए
समुद्र मंथन से निकले हलाहल यानि जहर का असर देव-दानव सहित पूरा जगत सहन नहीं कर
पाया। सभी ने भगवान शंकर से प्रार्थना की। भगवान शंकर ने पूरे जगत की रक्षा और
कल्याण के लिए उस जहर को पीना स्वीकार किया। विष पीकर शंकर नीलकंठ कहलाए। भगवान
शंकर ने विष पान से हुई दाह की शांति के लिए समुद्र मंथन से ही निकले चंद्रमा को
अपने सिर पर धारण किया। इस विष के प्रभाव को शांत करने के लिए भगवान शंकर ने गंगा
को अपनी जटाओं में स्थान दिया।
भगवान शंकराचार्य ने ज्योर्तिलिंग रामेश्वरम
पर गंगा जल चढ़ाकर जगत को शिव के जलाभिषेक का महत्व बताया। शास्त्रों के अनुसार
भगवान शंकर ने समुद्र मंथन से निकले विष का पान श्रावण मास में ही किया था। इस मास
में शिव आराधना का विशेष महत्व है। शिव भक्ति का पुण्य काल माना जाता है। शिव की
पूजा-अर्चना, अभिषेक, जलाभिषेक, बिल्वपत्र सहित अनेक प्रकार से की जाती है। इस काल में शिव की उपासना
भौतिक सुखों को देने वाली होती है। भगवान शंकर द्वारा विष पीकर कंठ में रखना और
उससे हुई दाह के शमन के लिए गंगा और चंद्रमा को अपनी जटाओं और सिर पर धारण करना इस
बात का प्रतीक है कि मानव को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए।
खास तौर पर कटु वचन से बचना चाहिए, जो कंठ से ही बाहर आते
हैं और व्यावहारिक जीवन पर बुरा प्रभाव डालते हैं। किंतु कटु वचन पर संयम तभी हो
सकता है, जब व्यक्ति मन को काबू में रखने के साथ ही बुद्धि और ज्ञान का
सदुपयोग करे। शंकर की जटाओं में विराजित गंगा ज्ञान की सूचक है और चंद्रमा मन और
विवेक का। गंगा और चंद्रमा को भगवान शंकर ने उसी स्थान पर रखा है जहां मानव का भी
विचार केन्द्र यानि मस्तिष्क होता है।
भगवान शंकर ने समुद्र मंथन से निकले विष का
पान श्रावण मास में ही किया था।