हिमाचल प्रदेश के जिला चंबामें समुद्र तल से साढे सात हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित देव घाटी भरमौरका सौंदर्य नयनाभिराम है और अतीत गौरवपूर्ण। हमारे पौराणिक ग्रंथों में जिन चार कैलाश पर्वतों का उल्लेख आया है, उनमें से एक मणिमहेशकैलाश, इसी नैसर्गिक घाटी में स्थित है।
चंबाशहर से भरमौरकी दूरी कोई पैंसठ किलोमीटर है। भरमौरका रास्ता खडामुखसे होकर जाता है। खडामुखऔर भरमौरके बीच रावीनदी बहती है। भरमौरकई तरह के फलदार वृक्षों से सजी एक ऐसी मनोरम घाटी है, जहां कदम रखते ही सारी थकान पल भर के लिए छू-मंतर हो जाती है। यह घाटी वर्ष में तकरीबन पांच मास बर्फ की सफेद चादर से ढंकी रहती है।
भरमौरका जिक्र प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है और जनश्रुतियोंमें भी। भरमौरका प्राचीन नाम ब्रह्मपुर है। उसे पांच सौ वर्षो तक चंबाराज्य की राजधानी रहने का गौरव भी हासिल है। भरमौरनिवासियों की यह मान्यता है कि कालांतर में भगवान शिव यानी नटराज ने भरमौरघाटी में तांडव नृत्य भी किया था। भरमौरनिवासियों के अनुसार नटराज सात तरह के तांडव नृत्य करते हैं-आनंद तांडव, संध्या (प्रदोष) तांडव, कालिका तांडव, त्रिपुर दाह तांडव, गौरी तांडव, संहार तांडव और उमा तांडव। भारत ही नहीं, अनेक पाश्चात्य पुरातत्ववेताओंको भी भरमौरने अपने गौरवपूर्ण अतीत की तरफ आकर्षित किया है। इनमें डॉ. हटचिनसन,डा. फोगल,हरमनगोटसके नाम उल्लेखनीय है।
शिखर शैली में बना मणिमहेशका विशाल मंदिर यहां के निवासियों और शैव मतावलंबियों के लिए आस्था का प्रतीक है। आबादी के बीच एक बडे मंदिर परिसर में शिखर और पहाडी शैली में बने बीसियोंछोटे शिव मंदिर हैं और शिवलिंगभी। मंदिर समूह में सबसे बडा और ऊंचा मणिमहेशमंदिर ही है, जिसका शिखर दूर से ही दिखाई देने लग जाता है। विद्वानों ने इस मंदिर का निर्माण काल राजा मेरुवर्मन(780 ई.) के समय का माना है। इस काल में मेरुवर्मनने भरमौरमें अन्य मंदिरों और मूर्तियों की स्थापना की थी। कहा जाता है कि भरमौर(ब्रह्मपुर) में चौरासी सिद्धोंने धूनी रमाई थी और जहां-जहां वे बैठे थे, उन्हीं जगहों पर राजा साहिल वर्मा ने चौरासी मंदिरों का निर्माण करवाया था। यह मंदिर शिल्प व वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। मणिमहेशमंदिर में प्रवेश करते ही नंदी की भव्य कांस्य प्रतिमा ध्यान आकर्षित करती है।
नृसिंह भगवान का मंदिर शिखर शैली का बना है। इस मंदिर में नृसिंह भगवान की अष्टधातु की मूर्ति ग्यारह इंच ऊंचे तांबे की पीठ पर प्रतिष्ठित है। एक हजार से अधिक वर्ष पुरानी इन प्रतिमाओं पर वक्त की धूल जमी नहीं दिखाई देती, बल्कि इनकी चमक-दमक अभी तक बरकरार है और बडी श्रद्धा से इन्हें पूजा जाता है। भरमौरघाटी का दूसरा प्रसिद्ध शिव मंदिर हडसरमें है। हडसरजिसे स्थानीय बोली में हरसरभी कहा जाता है, पवित्र मणिमहेशको जाने वाली सडक पर अंतिम गांव है और कैलाश पर्वत के दर्शनार्थ जाने वाले श्रद्धालुओं की विश्राम स्थली भी है। गांव में पहाडी शैली में लकडी से निर्मित भगवान शिव का ऐतिहासिक मंदिर है। भरमौरघाटी का तीसरा प्रमुख मंदिर छतराडीमें है, जिसका निर्माण भी राजा मेरुवर्मनने करवाया था। मंदिर में अष्टधातु की बनी आदि शक्ति की कलात्मक मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस बहूमूल्यमूर्ति का निर्माण काल छठी-सातवीं शताब्दी का है। मंदिर की कलात्मकता देखते ही बनती है।
कुछ लोग इसे हिमाचल का अमरनाथ कहकर भी पुकारते हैं। भारत के उत्तर-पश्चिम में यह सबसे बडा शैव तीर्थ है और इसे भगवान शिव का वास्तविक घर माना गया है। समुद्र तल से 18,564फुट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेशके आंचल में करीब दो सौ मीटर परिधि की झील है। प्रति वर्ष भाद्रपक्षमास में कृष्णाष्टमी तथा जन्माष्टमी को यहां विशाल मेला लगता है।
भरमौरका जिक्र प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है और जनश्रुतियोंमें भी। भरमौरका प्राचीन नाम ब्रह्मपुर है। उसे पांच सौ वर्षो तक चंबाराज्य की राजधानी रहने का गौरव भी हासिल है। भरमौरनिवासियों की यह मान्यता है कि कालांतर में भगवान शिव यानी नटराज ने भरमौरघाटी में तांडव नृत्य भी किया था। भरमौरनिवासियों के अनुसार नटराज सात तरह के तांडव नृत्य करते हैं-आनंद तांडव, संध्या (प्रदोष) तांडव, कालिका तांडव, त्रिपुर दाह तांडव, गौरी तांडव, संहार तांडव और उमा तांडव। भारत ही नहीं, अनेक पाश्चात्य पुरातत्ववेताओंको भी भरमौरने अपने गौरवपूर्ण अतीत की तरफ आकर्षित किया है। इनमें डॉ. हटचिनसन,डा. फोगल,हरमनगोटसके नाम उल्लेखनीय है।
शिखर शैली में बना मणिमहेशका विशाल मंदिर यहां के निवासियों और शैव मतावलंबियों के लिए आस्था का प्रतीक है। आबादी के बीच एक बडे मंदिर परिसर में शिखर और पहाडी शैली में बने बीसियोंछोटे शिव मंदिर हैं और शिवलिंगभी। मंदिर समूह में सबसे बडा और ऊंचा मणिमहेशमंदिर ही है, जिसका शिखर दूर से ही दिखाई देने लग जाता है। विद्वानों ने इस मंदिर का निर्माण काल राजा मेरुवर्मन(780 ई.) के समय का माना है। इस काल में मेरुवर्मनने भरमौरमें अन्य मंदिरों और मूर्तियों की स्थापना की थी। कहा जाता है कि भरमौर(ब्रह्मपुर) में चौरासी सिद्धोंने धूनी रमाई थी और जहां-जहां वे बैठे थे, उन्हीं जगहों पर राजा साहिल वर्मा ने चौरासी मंदिरों का निर्माण करवाया था। यह मंदिर शिल्प व वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। मणिमहेशमंदिर में प्रवेश करते ही नंदी की भव्य कांस्य प्रतिमा ध्यान आकर्षित करती है।
नृसिंह भगवान का मंदिर शिखर शैली का बना है। इस मंदिर में नृसिंह भगवान की अष्टधातु की मूर्ति ग्यारह इंच ऊंचे तांबे की पीठ पर प्रतिष्ठित है। एक हजार से अधिक वर्ष पुरानी इन प्रतिमाओं पर वक्त की धूल जमी नहीं दिखाई देती, बल्कि इनकी चमक-दमक अभी तक बरकरार है और बडी श्रद्धा से इन्हें पूजा जाता है। भरमौरघाटी का दूसरा प्रसिद्ध शिव मंदिर हडसरमें है। हडसरजिसे स्थानीय बोली में हरसरभी कहा जाता है, पवित्र मणिमहेशको जाने वाली सडक पर अंतिम गांव है और कैलाश पर्वत के दर्शनार्थ जाने वाले श्रद्धालुओं की विश्राम स्थली भी है। गांव में पहाडी शैली में लकडी से निर्मित भगवान शिव का ऐतिहासिक मंदिर है। भरमौरघाटी का तीसरा प्रमुख मंदिर छतराडीमें है, जिसका निर्माण भी राजा मेरुवर्मनने करवाया था। मंदिर में अष्टधातु की बनी आदि शक्ति की कलात्मक मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस बहूमूल्यमूर्ति का निर्माण काल छठी-सातवीं शताब्दी का है। मंदिर की कलात्मकता देखते ही बनती है।
कुछ लोग इसे हिमाचल का अमरनाथ कहकर भी पुकारते हैं। भारत के उत्तर-पश्चिम में यह सबसे बडा शैव तीर्थ है और इसे भगवान शिव का वास्तविक घर माना गया है। समुद्र तल से 18,564फुट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेशके आंचल में करीब दो सौ मीटर परिधि की झील है। प्रति वर्ष भाद्रपक्षमास में कृष्णाष्टमी तथा जन्माष्टमी को यहां विशाल मेला लगता है।