हमारी भारतीय संस्कृति इतनी विशाल है कि उसका प्रत्येक कार्य चाहे उपवास हो, पूजन हो, ध्यान हो या सामाजिक कार्य हो, सदैव संस्कृति से जुड़ा रहता है। हमारे देश के विभिन्न प्रांतों में अनेक देवताओं का पूजन होता रहा है किंतु शिव की व्यापकता ऐसी है कि वह हर जगह पूजे जाते हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथ, जो हर जिज्ञासा को शांत करने में समर्थ हैं, जो श्रुति स्मृति के दैदीप्यमान स्तंभ हैं, ऐसे वेदों के वाग्मय में जगह-जगह शिव को ईश्वर या रुद्र के नाम से संबोधित कर उनकी व्यापकता को दर्शाया गया है।
यजुर्वेद के एकादश अध्याय के 54वें मंत्र में कहा गया है कि रुद्रदेव ने भूलोक का सृजन किया और उसको महान तेजस्विता से युक्त सूर्यदेव ने प्रकाशित किया। उन रुद्रदेव की प्रचंड ज्योति ही अन्य देवों के अस्तित्व की परिचायक है। शिव ही सर्वप्रथम देव हैं, जिन्होंने पृथ्वी की संरचना की तथा अन्य सभी देवों को अपने तेज से तेजस्वी बनाया। यजुर्वेद के 19वें अध्याय में 66 मंत्र हैं, जिन्हें रुद्री का नाम या नमक चमक के मंत्रों की संज्ञा दी है। इसी से भगवान भूत भावन महाकाल की पूजा-अर्चन व अभिषेक आदि होता है। इसी अध्याय के चौथे मंत्र में भगवान शिव को पर्वतवासी कहा गया। उनसे संपूर्ण जगत के कल्याण की कामना की गई और अपने विचारों की पवित्रता तथा निर्मलता मांगी गई। आगे 19वें मंत्र में अपनी संतानों की तथा पशुधन की रक्षा चाही गई।
महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश में महेश्वर ˜यम्बक एवं न द्रपटा कहकर त्रिलोचन सदाशिव को ही महेश्वर कहा है। सभी प्रकार की याचनाएं उसी से की जाती हैं, जो उसको पूर्ण करने में समर्थ है और यही कारण है कि शिव औघरदानी के नाम से भी जाने जाते हैं।
वैदिक वांगमय में रुद्र का विशिष्ट स्थान है। शतपथ ब्रह्मण में रुद्र को अनेक जगह अग्नि के निकट ही माना गया है। कहते हैं कि ‘यो वैरुद्र: सो अग्नि’ रुद्र को पशुओं का पति भी कहा गया है। भगवान रुद्र को मरुत्तपिता कहा गया है। तैत्तरीय संहिता में शिव की व्यापकता बताई गई है। इसी कारण रुद्र एवं उनके गणों की यजुर्वेद में स्तुति की गई है।
शिव को पंचमुखी, दशभुजा युक्त माना है। शिव के पश्चिम मुख का पूजन पृथ्वी तत्व के रूप में किया जाता है। उनके उत्तर मुख का पूजन जल तत्व के रूप में, दक्षिण मुख का तेजस तत्व के रूप में तथा पूर्व मुख का वायु तत्व के रूप में किया जाता है। भगवान शिव के ऊध्र्वमुख का पूजन आकाश तत्व के रूप में किया जाता है। इन पांच तत्वों का निर्माण भगवान सदाशिव से ही हुआ है। इन्हीं पांच तत्वों से संपूर्ण चराचर जगत का निर्माण हुआ है। तभी तो भवराज पुष्पदंत महिम्न में कहते हैं - हे सदाशिव! आपकी शक्ति से ही इस संपूर्ण संसार चर-अचर का निर्माण हुआ है।
आप ही रक्षक हैं। आपकी माया से ही इस ब्रम्हांड का लय होता है। हे शिव! सत्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण का समावेश भी आपसे ही होता है। श्लोक में आगे वे कहते हैं कि हे सदाशिव! आपके पास केवल एक बूढ़ा बेल, खाट की पाटी, कपाल, फरसा, सिंहचर्म, भस्म एवं सर्प है, किंतु सभी देवता आपकी कृपा से ही सिद्धियां, शक्तियां एवं ऐश्वर्य भोगते हैं। 29वें श्लोक में वे कहते हैं - शिव को ऋक, यजु, साम, ओंकार तीनों अवस्थाएं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, स्वर्ग लोक, मृत्युलोक एवं पाताल लोक, ब्रह्मा, विष्णु आदि को धारण किए हुए दर्शाया है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान शिव उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के दृष्टा हैं। निर्माण, रक्षण एवं संहरण कार्यो का कर्ता होने के कारण उन्हें ही ब्रम्हा, विष्णु एवं रुद्र कहा गया है। इदं व इत्थं से उनका वर्णन शब्द से परे है। शिव की महिमा वाणी का विषय नहीं है। मन का विषय भी नहीं है। वे तो सारे ब्रम्हांड में तद्रूप होकर विद्यमान होने से सदैव श्वास-प्रश्वास में अनुभूत होते रहते हैं। इसी कारण ईश्वर के स्वरूप को अनुभव एवं आनंद की संज्ञा दी गई है।
आगे भगवान सदाशिव को अनेक नामों से जानने का प्रयत्न किया गया है, जिसमें त्रिनेत्र, जटाधर, गंगाधर, महाकाल, काल, नक्षत्रसाधक, ज्योतिषमयाय, त्रिकालधृष, शत्रुहंता आदि अनेक नाम हैं। यहां महाकाल पर चर्चा करना आवश्यक होगा। काल का अर्थ है समय। ज्योतिषीय गणना में समय का बहुत महत्व है। उस समय की गणना किसे आधार मानकर की जाए, यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है। अवंतिका (उज्जैन) गौरवशालिनी है क्योंकि जब सूर्य की परम क्रांति 24 होती है, तब सूर्य ठीक अवंतिका के मस्तक पर होता है।
वर्ष में एक बार ही ऐसा होता है। यह स्थिति विश्व में और कहीं नहीं होती क्योंकि अवंतिका का ही अक्षांक्ष 24 है। यही संपूर्ण भूमंडल का मध्यवर्ती स्थान माना गया है। यह गौरव मात्र अवंतिका को ही प्राप्त है और इसी कारण यहां महाकाल स्थापित हुए हैं, जो स्वयंभू हैं। यहीं से भूमध्य रेखा को माना गया है। शिव को नक्षत्र साधक भी कहा गया है। जो यह स्पष्ट करता है कि शिव ज्योतिष शास्त्र के प्रणोता, गुरु, प्रसारक एवं उपदेशक शिव है।
भगवान सदाशिव का एक नाम शत्रुहंता भी है। हम इसका अर्थ लौकिक शत्रु का नाश करना समझते हैं, लेकिन इसका अर्थ है, अपने भीतर के शत्रु भाव को समाप्त करना। अनेक कथाओं में हम देखते हैं कि जब ब्रrांड पर कोई भी विपत्ति आई, सभी देवता सदाशिव के पास गए। चाहे समुद्रमंथन से निकलने वाला जहर हो या त्रिपुरासुर का आतंक या आपतदैत्य का कोलाहल, इसी कारण तो भगवान शिव परिवार के सभी वाहन शत्रु भाव त्यागकर परस्पर मैत्री भाव से रहते हैं। शिवजी का वाहन नंदी (बैल), उमा (पार्वती) का वाहन सिंह, भगवान के गले का सर्प, कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणोश का चूहा सभी परस्पर प्रेम एवं सहयोग भाव से रहते हैं।
शिव को त्रिनेत्र कहा गया है। ये तीन नेत्र सूर्य, चंद्र एवं वहनी है, जिनके नेत्र सूर्य एवं चंद्र हैं। शिव के बारे में जितना जाना जाए, उतना कम है। अधिक न कहते हुए इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि शिव केवल नाम ही नहीं हैं अपितु संपूर्ण ब्रह्मांड की प्रत्येक हलचल परिवर्तन, परिवर्धन आदि में भगवान सदाशिव के सर्वव्यापी स्वरूप के ही दर्शन होते हैं।