वर्तमान समय में धर्म का पतन तथा गृहस्थाश्रम का धर्म पुराने समय में “भौतिक” तथा “आध्यात्मिक”-दो भिन्न विभाग नहीं थे। परमात्मा की प्राप्ति प्रत्येक का लक्ष्य था। गृहस्थ जीवन व आध्यात्मिक जीवन की प्रगति साथ-साथ होती थी। जन्म के तुरंत पश्चात, माता-पिता बच्चों के कानों में प्रभु के नाम का उच्चारण करते थे, इस प्रकार परमात्मा का नाम सुनते, बोलते बच्चे बडे होते थे।
तत्पश्चात उन्हें गुरुकुल भेज दिया जाता था, जहाँ ब्रह्मचारी व्रत का पालन तथा तपश्चर्या करते हुए वे गुरु के मार्गदर्शन में शास्त्रों का अध्ययन करते। परिणामतः बच्चे जगत के विषय में तथा इसमें रहते हुए विभिन्न परिस्थितियों का सामना करते हुए जीवन जीने की कला भी सीख जाते और विवेकी, प्रसन्निचत्त तथा दृढ-संकल्पवान होते थे। मृत्यु के भय से रहित, वे सत्य हेतु अपना जीवन बलिदान करने को तत्पर रहते थे। उनके शरीर बलवान, सुगठित, सिंह-शावक के समान प्रभावशाली होते थे और उम्र लम्बी!
फिर वे उसी प्रकार से पली-बढी लडकियों से विवाह कर धार्मिक, सदाचारी गृहस्थ जीवन का निर्वाह करते। वे दूसरों की निष्काम सेवा करते व भूखों को भरपेट भोजन करा कर उनके चरण पूजते। वंश-वृद्धि हेतु केवल एक संतान उत्पन्न करते थे। गर्भ-धारण के बाद माँ तप-पूर्ण जीवन व्यतीत करती थी जिसके फलस्वरूप उत्तम, बुद्धिमान संतान उत्पन्न होती थी जो जगत के लिए उपयोगी सिद्ध होती। गर्भावस्था में माता के विचारों की तरंगें बालक के चरित्र को प्रभावित करती हैं। गर्भावस्था के दौरान जो माँ परमात्म-विचार करती है, उसका बालक अवश्य ही भक्त होता है।
पुरुष का अपना ही अस्तित्व पत्नी के गर्भ से बालक रूप में प्रकट होता है अतः बालक के जन्मोपरांत पति अपनी पत्नी को माता-भाव से देखता है। बालक के वयस्क हो जाने व घर-बार सँभालने योग्य हो जाने पर, माता-पिता तप हेतु वन-गमन करते थे।
उस समय में लोगों को यह विचार कभी नहीं आता था कि दूसरों को कैसे लूटें। कोई सिनेमा आदि नहीं थे। सुबह और शाम, संध्या-समय लोग तेल के दिए जलाते और भगवान का नामोच्चारण करते, तत्पश्चात दिन भर में किये कर्मों को याद करते व गलतियों के लिए पश्चाताप करते थे, जिससे उन्हें शांति प्राप्त होती थी।