भागवत सुने तो ये बात जरूर ध्यान रखें क्योंकि...


इस बात को स्वीकार कर लेना ही असली कथा श्रवण है। भागवत हमें यही अंतर समझा रही है। जिन्हें यह समझ आ जाता है वे परीक्षित की तरह निद्र्वद्व और निर्विकार हो जाते हैं लेकिन जो लोग सिर्फ इसे कथा का एक हिस्सा मानकर बैठ जाते हैं वो देह से ऊपर नहीं उठ पाते। भागवत कथा सुनने से क्या मिलता है इसे समझ लें। इस कथा को सुनने से हमारे मन में भक्ति जाग जाती है। इस भक्ति को गौणी भक्ति भी कहा गया है।भक्ति का एक स्वरूप गौणी भक्ति भी है। जो गौण हो, मुख्य नहीं हो वही गौणी भक्ति है। सामान्यतया जीव जगत व्यवहार करे अथवा प्रभु-भक्ति उसमें चित्त की संकुचितता तथा अहंकार बना रहता है, जिससे उसके अंतर में कर्मों तथा उपासनाओं के संस्कार संचित होते रहते हैं जबकि भक्ति का मूल उद्देश्य चित्त को निर्मलता प्रदान कर उसमें जगत का अनुभवात्मक वैराग्य भर देना तथा प्रभु के प्रति प्रेम भाव उदय करना है। 


भक्ति का यह भाव ही हममे कथा श्रवण का रस अनुभूत कराता है। भक्ति जीवन में जरूरी है। यह संस्कारों को जन्म देती है। संस्कारों से विचारों में दिव्यता आती है, विचारों की दिव्यता ही हमारे व्यक्तित्व को निखारती है। भक्ति का रूप कोई भी हो लेकिन उसमें भाव, आस्था और विश्वास होने चाहिए। जब तक हमारी भक्ति में ये बातें नहीं होती तब तक भक्ति केवल एक स्वांग ही दिखाई देती है। असली भक्त प्रक्रिया पर नही भावो पर ध्यान केंद्रित करता है। कई लोग केवल प्रक्रिया को ही भक्ति मान बैठते हैं। भक्ति के लिए जो भी विधियां बनाई गई हैं वे केवल इसलिए हैं कि हमारे मन में उस काम के प्रति थोड़ी एकाग्रता रहे। जब तक एकाग्रता नहीं होगी, भाव नहीं जागगे। 

भाव नहीं जागेंगे तो भक्ति में रस नहीं आएगा। निरस भक्ति भगवान को जागृत नहीं कर सकती। भक्ति जरूरी है और इसे हमारे जीवन में उतारना बहुत आवश्यक है। निर्गुण या सगुण कोई रूप हो, भगवान में आस्था होनी चाहिए। यह कार्य अहंकार युक्त गौणी-भक्ति से संभव नहीं। हम यह नहीं कहते कि जीव को जप नहीं करना चाहिए अथवा करना ठीक नहीं। किन्तु जब तक मन अहंकार मुक्त नहीं तथा वैराग्य युक्त नहीं, तब तक उसकी भक्ति गौणी ही है। जब तक उसे ईश्वर की चाहे छोटी सी ही क्यों न हो, प्रत्यक्ष, निश्चित एवं अनुभव युक्त झलक प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक उसकी भक्ति गौणी ही है। उसे ईश्वर की चाहे छोटी सी क्यों न हो, निश्चित एवं अनुभव युक्त झलक प्राप्त नहीं हो जाती तब तक न तो यथार्थ में उसमें परम प्रेम उदय हो सकता है और न ही जगत के प्रति पूर्ण वैराग्य। क्योंकि भक्ति मार्ग प्रेम तथा समर्पण का मार्ग है।