शरीर भले ही परिश्रम करे, मन को आराम मिलना चाहिए


हमारे व्यावसायिक जीवन में परिश्रम हो लेकिन परिश्रम के अर्थ समझिए। परिश्रम नशा न बन जाए, परिश्रम बीमारी न बन जाए कितना परिश्रम करते हैं लोग आज। पर परिश्रम होना चाहिए तन का और विश्राम मिलना चाहिए मन को। होता उल्टा है। जितना परिश्रम हम तन से करते हैं उससे कहीं अधिक परिश्रम मन करने लगता है। 

इससे आदमी या तो थक जाता है, चिढ़चिढ़ा हो जाता है, बैचेन हो जाता है, बीमार हो जाता है। परिश्रम का अर्थ समझिए। आज के परिश्रम ने इतना दौड़ा दिया है आदमी को बाहर से और भीतर से कि उसकी जितनी भी प्रतिभा थी वो सब प्रचंडता में बदल गई। उसकी जो योग्यता थी वह छीना-झपटी में बदल गई और आदमी आक्रामक होता गया है। देह खूब परिश्रम करे, देह की तीव्रता होना चाहिए लेकिन मन उसी क्षण बहुत विश्राम में रहे तब आप इस परिश्रम का आनंद उठा पाएंगे। इसी परिश्रम को पूजा कहा गया है। 

इस समय आलस्य अपराध है। 14 घण्टे काम करना कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती, लेकिन थोड़ा समय अपने भीतरी व्यक्तित्व को जानने में भी लगाना चाहिए। हनुमान जब लंका गए तो वे जानते थे कि वे एक विष्व विजेता रावण की दुनिया में जा रहे हैं। वहां न सिर्फ चुनौतियां थीं, बल्कि जान का खतरा भी था। वे रामदूत बनकर गए थे। 

उस समय उन्होंने सीताजी को ढूंढते-ढूंढते थोड़ी देर एकांत में बैठकर विचार किया था कि इस परिस्थिति से कैसे निपटा जाए। उनके लिए एक षब्द लिखा गया है- मन महुं तरक करैं कपि लागा। हनुमानजी ने मन में विचार किया था। इसका सीधा अर्थ है थोड़ा भीतर उतरकर अपने आंतरिक व्यक्तित्व को पकडऩा। आप जितना गहरे उतरेंगे, बाहर उतना ही परिपक्व होंगे और आपका परिश्रम सचमुच पूजा बनेगा।