शुकदेवजी कहते हैं- राजन् परीक्षित! ज्यों-ज्यों घोर कलयुग आता जाएगा, त्यों-त्यों धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरणशक्ति का लोप होता जाएगा। कलयुग में जिसके पास धन होगा, उसी को लोग कुलीन, सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे। जिसके हाथ में शक्ति होगी वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा। विवाह संबंध के लिए कुल-शील-योग्यता आदि की परख-निरख नहीं रहेगी, युवक-युवती की पारस्परिक रूचि से ही संबंध हो जाएगा।
आज जिस तरह से विवाह हो रहे हैं वो परिवार चलाने के लिए न होकर सिर्फ एक समझौता किया जा रहा है। भारत के परिवार अपने दाम्पत्य के कारण जाने गए। विवाह केवल स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं होता। इसमें वंश वृद्धि का भी एक भाव रहता है। पर आज महत्वाकांक्षा के युग में जब विवाह हो रहे हैं तो केवल स्त्री-पुरुष नहीं मिल रहे दो शिक्षाएं, दो महत्वाकांक्षाएं और दो अहंकार का मिलन हो रहा है। और इसीलिए विवाह संबंध बोझ बन गए हैं, तनावपूर्ण बन गए हैं। कलयुग में दाम्पत्य में स्त्री-पुरुष के संबंधों को भक्ति से संयुक्त रखना लाभकारी होगा।
शास्त्रों में व्यक्त है कि गृहस्थी में कर्म करते हुए भी भक्त को स्त्री, धन, नास्तिक तथा वैरी का चरित्र नहीं सुनना चाहिए। यहां सवाल उठता है कि भक्त का अधिकार क्या केवल पुरुषों को ही है जो उन्हें ही स्त्रियों का चरित्र सुनने से मना किया गया है। यदि कोई स्त्री भक्त हो तो वह क्या करे? शास्त्रों में स्त्री शब्द का प्रयोग प्रतीकात्मक ही है जिसे काम-वासना के रूप में लिया जाना चाहिए। जिस प्रकार पुरुष भक्तों को स्त्रियों का चरित्र नहीं सुनना चाहिए उसी प्रकार स्त्री भक्तों को भी पुरुषों का चरित्र सुनने से बचना चाहिए। इसी प्रकार आत्मविमुख स्त्री-पुरुषों के जीवन-प्रसंग तथा अपने प्रति शत्रुता का भाव रखने वाले स्त्री-पुरुष की बातें तथा धन-संचय-चर्चा भक्त को नहीं सुनना चाहिए।
काम-वासना के संस्कार प्रत्येक स्त्री-पुरुष के मन में जन्म-जन्मांतर से ही संचित हैं, जिनकी प्रसंग श्रवण से उद्वीप्त हो उठने की सम्भावना हो सकती है। जिसका मन काम-वासना में लिप्त हो, वह भला भगवान का भजन क्या करेगा। मन उधर गया कि लक्ष्य अंतर-जाग्रत भक्ति-शक्ति से हट गया। इस प्रकार बार-बार लक्ष्य काम-वासना की ओर ही जाते रहने से, भक्ति-शक्ति की क्रियाशीलता में अंतर आ सकता है। चिन्तन-श्रवण से काम की उत्पत्ति होती है तथा काम, प्रेम का विरोधी भाव है। प्रेम की पवित्रता इसी में है कि उसमें वासना का लेशमात्र भी समावेश न हो।