तो आपके बच्चे होंगे यशस्वी और सफल


भारतीय परिवारों में सोलह संस्कार की जो व्यवस्था रखी गई है, उसमें संतान को भी संस्कार से जोड़ा गया है। ऋषि-मुनियों ने यह व्यवस्था बड़े सोच-समझकर की है। गृहस्थी में बिना प्रेम के शांति नहीं हो सकती। परिवार में प्रेम लाने के लिए शारीरिकता से ऊपर उठना होगा।

रिश्तों में शरीर के भाव को कम करने के लिए संतान बहुत बड़ा अवसर होती है। जैसे ही संतान होती है, माता-पिता प्रेम और संवेदना के साथ संतान पर टिक जाते हैं। यहीं से पति-पत्नी के बीच शारीरिकता कम होती जाती है। परिवार में बच्चों की मौजूदगी झगड़े और तनाव को कम करती है।

स्त्रित्व मातृत्व में और पुरुषत्व पितृत्व में घुल-मिल जाता है। बच्चों के लिए जब माता-पिता त्याग करते हैं तो वे इसे बोझ न मानकर आनंद मानते हैं, जबकि ऐसा त्याग पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए नहीं कर पाते। पहले के मुकाबले आज के बच्चे बाहर की स्थितियों से जल्दी व ज्यादा परिचित हो जाते हैं। ऐसे में संस्कारों को उनसे जोड़े रखना थोड़ा दबाव का काम हो जाता है।

लेकिन उनके व्यक्तित्व में संतुलन बनाने के लिए प्रेम से संस्कारों को उनके व्यक्तित्व में उतारा जाए, नहीं तो यह बच्चे घर और बाहर दोनों ही स्थिति में अशांत होकर अपने आप को दुख की स्थिति में पटक लेंगे।

इन्हें घर उपद्रव का अड्डा लगने लगेगा और बाहर नर्क नजर आएगा, जबकि नर्क हमारे जीने के तरीके का दूसरा नाम है। इसलिए परिवार जितना प्रेमपूर्ण होगा, संतानें उतनी ही यशस्वी हो सकेंगी।